नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आदर्श खुदीराम बोस का आख़िरी दिन
खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी ने 30 अप्रैल, 1908 को मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम फेंका था। बम फेंकने के बाद दोनों दो अलग दिशाओं में दौड़ पड़े। खुदीराम समस्तीपुर की ओर मुड़ गए और रेलवे लाइन के सहारे बढ़ते चले गए। प्रफुल्ल दूसरे रास्ते से समस्तीपुर की ओर चल पड़े।
खुदीराम रात भर नंगे पैर चलते रहे सुबह तक 24 मील का सफर तय करके वे वैनी स्टेशन पहुँच गए। वहां शिव प्रसाद सिंह और फ़तेह सिंह नाम के दो सिपाहियों ने उन्हें पकड़ लिया। वे मुजफ्फरपुर लाए गए।
खुदीराम बोस का फाँसी आलिंगन
मुजफ्फरपुर के सेशन जज के यहां मुकदमा दर्ज हुआ और सुनवाई शुरू हुई। 13 जून को फाँसी की सजा सुनाई गई। 11 अगस्त फाँसी का दिन तय हुआ।
उपेंद्रनाथ सेन नामक बंगाली अधिवक्ता, जो तबके मशहूर अंग्रेजी दैनिक बंगाली के मुजफ्फरपुर स्थित संवाददाता थे, शुरू से इस घटनाक्रम की रिपोर्टिंग करते रहे। फाँसी के दिन सिर्फ दो व्यक्तियों को तख्ते तक जाने की अनुमति मिली थी। उनमें से एक उपेंद्रनाथ सेन थे। उस दिन उन्होंने अपनी रपट में लिखा है —
11 अगस्त को सुबह 6 बजे फाँसी होनी थी। हम लोगों ने फाँसी के वक़्त जेल के अंदर उपस्थित रहने की अनुमति मांगी थी, साथ ही खुदीराम की हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार अंतिम क्रिया कर्म करने की भी।
वुडमैन ने इसके लिए दो लोगों को अनुमति दी। उन्होंने बारह लोगों को मृत शरीर को ले जाने के लिए और अन्य बारह लोगों को अंत्येष्टि में शामिल होने की अनुमति दी। शव यात्रा के लिए मार्ग का भी निर्धारण कर दिया गया था।
मुझे और क्षेत्रनाथ बनर्जी को फाँसी के वक़्त मौजूद रहने की अनुमति मिली। बहुत ही गुप्त रूप से मैंने अपने घर में एक अर्थी बनाई थी। उसके सिरहाने मैंने नुकीले चाकू से वंदे मातरम खोद दिया था। करीब 5 बजे अंत्येष्टि से संबंधित सामग्रियों के साथ मैं जेल के गेट पर पहुँचा।
मैंने देखा कि चारों ओर के रास्ते लोगों से भरे थे। बहुतों के हाथों में फूल-मालाएं थीं। जैसे ही जेल के दूसरे दरवाजे से हम अंदर आए, हमारी नजर थोड़ी दूरी पर दाहिनी ओर जमीन से करीब पंद्रह फीट ऊंचे फाँसी के तख्ते पर पड़ी।
लोहे के दो मोटे खंभों पर, लोहे की एक पर बंधी हुई थी। उस पर छड़ के बीचो बीच एक मोटी रस्सी लटकी थी जिसके दूसरे सिरे पर फंदा था।
तभी हमने देखा कि चार सिपाही खुदीराम को अपने साथ ला रहे हैं। खुदीराम आगे थे। ऐसा लग रहा था की वे ही सिपाहियों को अपने साथ फाँसी के तख्ते पर ले जा रहे हैं। हमारी ओर देख कर मुस्कुराए। उन्होंने स्नान कर लिया था। अपनी उंगलियों से अपने काले, लंबे घुंघराले बालों को, जो जेल में और ज्यादा लंबे हो गए थे, सँवार लिया था।
एक बार फिर उन्होंने हम लोगों की तरफ देखा। फिर उनके कदम दृढ़ता के साथ तख्ते की ओर बढ़ गए। जब वे ऊपर चढ़े, उनके हाथ रस्सियों से पीछे की ओर बांध दिए गए। एक हरी टोपी सर पर डाल दी गई। अब उनका चेहरा गर्दन तक ढक गया था। फंदे को गर्दन में डालकर उसे कस दिया गया।
खुदीराम उसी तरह खड़े रहे– निश्चल, जरा भी नहीं हिले! वुडमैन ने जल्लाद को देखा और रुमाल हिला कर संकेत दिया… जल्लाद ने वहाँ कोने में लगे हैंडल को घुमा दिया– तख्ता खिसक चुका था। कुछ ही क्षणों में खुदीराम का शरीर आंखों से ओझल हो गया।
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बहादुर आत्मा की आखिरी झलक पाने के लिए पहुँचे हज़ारों लोग
हम जेल से बाहर आ गए। करीब आधे घंटे के बाद जेल के युवा डॉक्टर अर्थी और नए कपड़े, जो हम मृत शरीर के लिए लाए थे, हम से मांग कर ले गए। कानून के मुताबिक फाँसी के बाद मृत शरीर की ठुड्डी पर एक चीरा लगाया जाता था, ताकि यह देखा जा सके कि क्या मृत्यु नीचे गिरने के साथ ही हुई है?
डॉक्टर ने चीरे को सिल दिया तथा जीभ और आंखों को सही स्थिति में ला दिया था। उन्होंने नए कपड़े बदल दिए थे और मृत शरीर को अर्थी पर डाल जेल के बाहर हमारे हाथों सौंप दिया।
हम पूर्व निर्धारित मार्ग से श्मशान घाट की ओर चल पड़े। थोड़ी-थोड़ी दूर के अंतराल पर सड़क के दोनों किनारे पुलिस के सिपाही खड़े थे। उनके पीछे सुरक्षा-व्यवस्था को धता बताते हुए हजारों लोग उस बहादुर आत्मा की आखिरी झलक पाने को खड़े थे। श्मशान घाट तक पहुंचने तक फूलों की बारिश होती रही। एक जमादार के नेतृत्व में बारह कांस्टेबलों का एक दल श्मशान घाट पर अंत्येष्टि के वक्त मौजूद रहा।
शरीर को चिता पर रखने के पहले हमने उन्हें बिठाकर नहलाने की कोशिश की। किंतु सिर रीढ़ की हड्डी से अलग हो छाती पर लटक गया था। गहरी पीड़ा के साथ मैंने सिर को नियत स्थान पर रखे रहने की कोशिश की।
मित्रों ने नहलाने की प्रक्रिया पूरी की। शरीर को चिता पर रखा गया। उसे फूलों से ढक दिया गया। सिर्फ खुदीराम का मुस्कुराता चेहरा भव्य आभा लिए बाहर दिख रहा था। चिता को आग लगाई गई। शरीर को राख बनते अधिक वक़्त नहीं लगा।
स्कूल-कॉलेज के छात्रों ने मनाया था उस दिन शोक दिवस
विदेशी शासकों ने शव को श्मशान घाट ले जाने का रास्ता भी तय कर रखा था। हजारों देशी लोग सुरक्षा व्यवस्था को धता बताते हुए, रास्ते के दोनों ओर हाथों में फूल लिए खड़े थे। कलकत्ता में स्कूल-कॉलेज के छात्रों ने उस दिन शोक दिवस के रूप में मनाया।
उसी दिन मुजफ्फरपुर से कोसों दूर कटक में रिवेंसा कॉलेजिएट स्कूल में, जहाँ इन घटनाओं की चर्चा भी नहीं थी, ग्यारह बरस का एक छात्र बहुत उद्वेलित हुआ। उसने अखबारों से शहीद खुदीराम की तस्वीरें निकाली। अपने अध्ययन-कक्ष की दीवारों पर चिपका दी। यही लड़का आगे चलकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम से प्रख्यात हुआ।
सन्दर्भ ग्रन्थ
खुदीराम-द इम्मॉर्टल मार्टीयर: विप्लव चक्रवर्ती
वेगाबॉन्ड खुदीराम : शैलेश डे
खुदीराम बोस: अरुण सिंह – संवाद प्रकाशन, मेरठ