मुस्लिम संगठन और आज़ादी की लड़ाई
शांतीमोय रे ने अपनी किताब ‘Freedom Movement and Indian Muslims‘ में इस पर विस्तार से लिखा है।
प्रस्तुत है उसी से एक अंश – सं
1919 में जमायत-ए-उलेमा नामक एक नए संगठन के जन्म से मुस्लिम राजनीति में एक नया मोड़ लिया। 1920 के इसके सम्मलेन में, जिसकी सदारत, हाल ही रिहा हुए, मौलाना महमूद-उल-हसन या देवबंद के शेख-उल-हिंद[i] ने की, सरकार के साथ असहयोग की दृष्टिकोण से राष्ट्रीय संघर्ष में भागीदारी का समर्थन करने वाला प्रस्ताव पास किया गया।
जमायत-ए-उलेमा ने मुसलमानों से सरकार द्वारा ही गई पदवियाँ त्यागने की अपील की। इसने लोगों से विदेशी वस्तुओं के साथ सरकार की निगरानी में चलने वाले कांलेजों और स्कूलों की शिक्षा के बायकाट की भी अपील की। इस सम्बन्ध में उस समय के पांच सौ जाने-माने उलेमाओं के दस्तखत वाला एक फ़तवा भी जारी किया गया जिसे तुरंत ही सरकार द्वारा ज़ब्त कर लिया गया। इस ज़ब्ती की मुखालिफ़त करने के लिए जमायत-ए-उलेमा ने सत्याग्रह शुरू कर दिया।
जमायत के एक और महान नेता, मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने अपनी पार्टी की नीति को बेहद साफ़ शब्दों में सामने रखा:
हमने कांग्रेस हाईकमान के सामने यह स्पष्ट कर दिया है कि हमारी केवल एक मांग है, वह यह कि भारत की आज़ादी के बाद मुसलमानों को अपने धार्मिक मसलों के प्रबंधन में खुली छूट दी जानी चाहिए। तब तक हम देश की आज़ादी के लिए कांग्रेस के आंदोलन को बिना किसी द्वेष के पूरे दिल से समर्थन दे सकते हैं।
इस नीति के आधार पर 1947 तक जमायत ने अपने हजारों सदस्यों को आजादी की लड़ाई में हिस्सेदारी के लिए भेजा।
मज़लिस-ए-अहरार नाम का एक और मुस्लिम संगठन पंजाब में 1929 में अस्तित्व में आया। चौधरी अफजल हक इस संगठन के नेता थे। इसमें मुस्लिम लीग की प्रतिक्रियावादी नीति के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया और आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने का निश्चय किया।[ii]
हम देश में ऐसी आज़ादी चाहते हैं जिसमें ग़रीब आदमी शांति और सुकून से जी सके, उनके नेताओं में से एक मौलाना-उर-रहमान ने घोषणा की: हम अमीरों की सरकार को सर्वहारा की सरकार से प्रतिस्थापित करना चाहते हैं। एक और नेता साहेबजादा फज़ल-उल-हुसैन ने मुसलमानों का आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए आह्वान किया।[iii]
1940 के इसके अधिवेशन में निम्नलिखित प्रस्ताव स्वीकार किया गया-
मजलिस-ए-आरहार का यह अधिवेशन अपने दृढ़ निश्चय को दोहराता है कि मजलिस का मक़सद-ए-आली भारत की पूरी और मुकम्मल आज़ादी हासिल करना है जो उन मुश्किलात का हल कर देगी जिसे लोग झेल रहे हैं और हिंदुस्तान के मुसलमानों के हक़-ओ-हुकूक की हिफ़ाजत करेगी।
नवाब अली खान इस संगठन के संस्थापक थे। इसने सैयद वाहिब हुसैन के नेतृत्व में आज़ादी की लड़ाई में हिस्सेदारी की।
आल इंडिया शिया कांफ्रेंस एक और संगठन था जिसने उस वक्त आज़ादी की लड़ाई में हिस्सेदारी की। इसका जन्म लखनऊ में 1929 में हुआ था।
नेशनलिस्ट मुस्लिम पार्टी जिसके अध्यक्ष हुए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद
उस वक्त के सभी मुस्लिम संगठनों में जो एक खासतौर पर क़ाबिल-ए-ज़िक्र है, वह है नेशनलिस्ट मुस्लिम पार्टी।
इस पार्टी की स्थापना इलाहाबाद में जुलाई 1929 में की गई। इस पार्टी का उद्देश्य मुसलमानों की देशभक्ति की चेतना को जगाना, उन्हें सांप्रदायिक नजरिए से ऊपर उठने के लिए प्रेरित करना, भारत की आजादी की लड़ाई में दुसरों के साथ शामिल होने के लिए और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ सांप्रदायिक सद्भाव द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष था।[iv]
मौलाना अबुल कलाम आजाद इस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए, डा एम.ए.अंसारी इसके कोषाध्यक्ष और तसद्दक अहमद खान इसके सचिव चुने गए।
मुस्लिम लीग की तीखी प्रतिक्रिया के बीच भी पार्टी ने बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, पंजाब और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेश में साम्राज्यवाद के खिलाफ तमाम संघर्षों में हिस्सेदारी की और इसके लगभग बारह हज़ार कार्यकर्ताओं ने गिरफ्तारी दी।
बंगाल के लोकप्रिय मुस्लिम नेता
बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी के सदस्य मुख्यत: नेशनलिस्ट मुस्लिम पार्टी से ही सम्बद्ध थे। उनमें से महत्त्वपूर्ण थे बंगाल के लोकप्रिय नेता फजल-उल-हक।[v] ( बाद में फ़ज़ल उल हक़ मुस्लिम लीग के क़रीब हो गए: सं) फरीदपुर के तमीजुद्दीन खान और लाल मियां तथा बर्दवान के तीन नेताओं, अब्दुल कासिम, जनाब जावेद अली और अब्दुल हयात के नामों का भी जिक्र जरूरी होना चाहिए, जिन सभी लोगों ने बार-बार गिरफ्तारियां झेलीं।
बंगाल के अलावा दूसरी जगहों पर जो लोग शामिल हुए उनमें बिहार में पटना के प्रतिष्ठित बैरिस्टर सैयद महमूद, शफी दाउदी, अब्दुल बारी, उत्तरप्रदेश के रफी अहमद किदवई, मियाँ इब्राहिम, प्रोफेसर मुजीब और अंसार हरवानी के नाम काबिल-ए-ज़िक्र हैं। उन्होंने कुछ सांप्रदायिक मानसिकता वाले कांग्रेसी नेताओं के धड़े की अरुचि को नज़रअंदाज करते हुए आज़ादी की लड़ाई में हिस्सेदारी की।[vi]
गांधी जी से आकर्षित पत्रकार सैयद अब्दुल्लाह बरेलवी
बंबई में एक प्रतिष्ठित पत्रकार सैयद अब्दुल्लाह बरेलवी ने 1933 में आल इंडिया न्यूजपेपर्स एडिटर्स काफ्रेंस का आयोजन किया। वह गांधी जी के प्रति आकर्षित थे और उन्होंने पहले खिलाफ़त आंदोलन के दौरान और फिर सविनय अवज्ञा आंदोलन में उनका साथ दिया और जीवन भर दृढ़ता से मुक़दमों और कारावास का सामना किया।[vii]
लाल कुर्ती संगठन के अब्दुल गफ़्फ़ार खान
जबकि उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेश खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान के नेतृत्व में उनके अहिंसात्मक लेकिन जुझारू लाल कुर्ती संगठन के साथ पठानों के अभूतपूर्व जागरण का गवाह है, सिंधी और बलूची भी बहुत पीछे नहीं रहे। लाल-कुर्ती आंदोलन के महान प्रभाव ने सिंध और बलूचिस्तान में भी कुछ सबसे काबिल नेताओं को जन्म दिया।
समरू अल्लाह बख़्श (1900-43) ने ब्रिटिश सरकार के मदद पाने वाली मुस्लिम सांप्रदायिकता के खिलाफ एक दृढ़ लड़ाई लड़ी। वह इस लड़ाई से ऊपर उठकर एक महबूत राष्ट्रवादी के रूप में आगे आए और मुस्लिम जन को एक दृढ़ नेतृत्व प्रदान किया।
उन्होंने यह खुली घोषणा की कि धर्म के आधार पर भारत में मुस्लमानों के एक अलग राष्ट्र होने की मुस्लिम लीग की अवधारणा गैर-इस्लामी है।
क़ुरान की सच्ची शिक्षा के मुताबिक एक मुसलमान जो ख़ुदा में यक़ीन रखता है, जो अच्छे क़िरदार का है वह सभी लोगों के बीच एकता और शांति के लिए कोशिश करता है…धर्मों के आधार पर दुनिया का मौजूदा बंटवारा बुनियादी तौर पर अवास्तविक और ग़लत है तथा इस रूप में ख़तरनाक है कि एक सबसे पापी इंसान भी मुसलमान के रूप में जन्म लेने के नाते दूसरे धर्म के अनुकरणीय चरित्र वाले महात्मा व्यक्ति से अच्छे आदमी के रूप में जाना जाए।
अल्लाह बख़्श ने मुस्लिम लीग के नेता खुरू को 1936 के विधानसभा चुनाव में पराजित किया और मुख्यमंत्री बने। सिंध के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने 1941 में ब्रिटिश सरकार की जंग की कोशिशों की मुख़ालिफ़त की और गांधीजी के भारत छोड़ो प्रस्ताव का खुला समर्थन किया।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के भाड़े के टट्टू खुरू ने 14 मई 1943 को शिकारपुर में उनकी हत्या करा दी। उनकी मृत्यु सिंध में राष्ट्रवादी ताकतों को एक गहरा आघात था।[viii]
बलूच गांधी के नाम से लोकप्रिय अब्दुल समद खान
राष्ट्रीय संघर्ष की कहानी एक और व्यक्ति, अब्दुल समद खान, जो बलूच गांधी के नाम से लोकप्रिय थे, के ज़िक्र के बिना पूरी नहीं हो सकती। बलूचिस्तान में क्वेटा के पास गुलिस्तान में 1895 में जन्में अब्दुल समद खान के पिता खान नूर मुहम्मद खान एक अमीर जमींदार थे और गुलिस्तान के अचाक्जाई कबीले के प्रमुख थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा पारंपरिक तरीके से उनके गांव मुक्ताब में हुई थी। उन्होंने उर्दू, पश्तो और फारसी में निपुणता हासिल की। उन्होंने मैट्रिकुलेशन तथा स्नातक की डिग्रियाँ पाकिस्तान की एक जेल में रहते हुए(1958-68) हासिल कीं।
वह 1920 में राष्ट्रवादी आंदोलन में शामिल हुए। एक कट्टर राष्ट्रवादी के रूप में उन्होंने बलूचिस्तान के अपने सुधार आंदोलन को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जोड़ा और अपने संगठन अंजुमन-ए-वतन को कांग्रेस से संबंद्ध किया। सामाजिक सुधार और राजनीतिक चेतना के अपने अभियान की सहायता के लिए उन्होंने 1934 में पश्तों में इस्तिकलाल नाम से एक अख़बार शुरू किया।
1947 में इस अख़बार तथा अंजुमन-ए-वतन संगठन, दोनों को ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया गया। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच के विवाद में अब्दुल समद खान ने पूरी तरह से कांग्रेस का पक्ष लिया। वह लीग और पाकिस्तान की मांग के ख़िलाफ़ खड़े हुए।
वह सबसे दृढ़ राष्ट्रवादियों में से एक थे जो सांप्रदायिक बल्कि पाकिस्तान की सांप्रदायिक ताक़तों के ख़िलाफ़ भी उन्होंने एक अथक लड़ाई लड़ी। उन्हें अपनी जिंदगी का अधिकांश हिस्सा भारतीय और पाकिस्तानी जेलों में बिताना पड़ा।
खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान की तरह वह एक महान भारतीय देशभक्त तथा सामाजिक और राजनीतिक न्याय के एक अथक यौद्धा की तरह याद किए जाएंगे।[ix]
सदर्भ स्त्रोत
स्रोत : Freedom Movement and Indian Muslims by Shantimoy Ray, NBT-Delhi
[i] देखें, डां. ताराचंद हिस्ट्री आंफ फ्रीडम मूवमेंट,खंड III, कैंटवाल स्मिथ, पेज नं -265
[ii] देखे, अब्दुल हयात, द मुसलमान आंफ बंगाल,कलकता, पेज नं- 265
[iii] देखे वही, पेज न.- 267
[iv] देखे, अब्दुल हयात, द मुसलमान आंफ बंगाल,कलकता, पेज नं- 44
[v] देखे वही, पेज न-50
[vi] देखे, रेमिनिसेसज आंफ 1921, भारत सरकार, पेज न 73
[vii] देखे, III,खंड 1, पृष्ठ 236, होम पालिटिक्स, 1930, फाइल नं 366
[viii] देखे, बंबई का संविधान सभा का कार्यक्रम(1926-36), सिंध विधानसभा की वहसें(1937-1943)
[ix] देखे, विदेश का कार्यक्रम , 1920- 35, होम पांलिटिकल, 1920-45, अब्दुल गफ्फार खान ले-बी.जी.तेंदुलकर, फ्रंटियर मेल, देहरादून में 5 फरवरी 1967 को छाप आलेख द थ्री गांधी, गांधीनगर, हैदराबाद के डी. विश्वेश्वर राव के अनुसार –(1) 1920-22 के दौरान खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन में 32,000 लोग जेल गए थे जिनमें 8000 मुसलमान थे। (2) 1930-31; सविनय अवज्ञा आंदोलन में सजायाफ्ता 78,000 लोगों में से 13,000 मुसलमान थे, जिनमें अधिकांशत: सीमात प्रदेश से थे और (3) 1932-33 लगभग यही आकंड़ा(ए.आई.सी.सी के इलाहाबाद और लंदन के रिकार्ड के अनुसार)
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में