मज़हब के आधार पर देश के बंटवारे के विरोधी – मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी
वतन की आज़ादी के सिपाहियों की न तो आयु की कोई सीमा थी और न धर्म का कोई बंधन। आज़ादी की लड़ाई में जहाँ पढ़े-लिखे देशवासी एवं उलमा-ए-दीन ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, वहीं अनपढ़ लोग भी देश पर जान निछावर करने के लिए सीना ताने फिरते थे। आज़ादी की लड़ाई में भाग लेने की अगर कोई शर्त थी तो केवल वतन प्रेम, वतन से मुहब्बत। देश की आबरू पर अपनी आरजुओं को कुर्बान करने का सच्चा जज़्बा और वतन पर मर-मिटने की हिम्मत शर्त थी।
मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी भी आज़ादी के उन जोशीले सिपाहियों में से थे जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में सर पर कफ़न बाँध कर फ़िरंगियों से मुक़ाबला किया।
10 मार्च 1892 को पंजाब के ज़िला सियालकोट के एक गाँव में जन्में भारत के इस सपूत ने जीवन भर देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए संघर्ष किया। मौलाना हिन्दू-सिख परिवार से थे। उनके पिताजी का नाम राम सिंह और दादा जी का नाम हसपत राय था। मौलाना ने जन्म से कुछ महीने पहले ही उनके वालिद इस संसार को अलविदा कह गए। उसके बाद दादा हसपर राय का भी देहान्त हो गया। उनकी माँ अकेलेपन के कारण उन्हें साथ लेकर अपने मायके चली आई।
मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी का ननिहाल सिख परिवार था। उस समय के अनुसार होश संभालते ही उनकी तालीम शुरू करवा दी गई। उनकी शुरुआती शिक्षा उर्दू मिडिल स्कूल में हुई। इसी दौरान उनका रुझान इस्लाम धर्म की ओर बढ़ने लगा। इसी कारण उन्होंने इस्लाम की कुछ पुस्तकों का भी अध्ययन किया। उनसे प्रभावित होकर उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। पुस्तक तोहफ़्तुल हिन्द के लेखक का जो नाम था, उन्होंने स्वयं भी अपना नाम उबैदुल्लाह रख लिया।
आगे की पढ़ाई के लिए वह अपने घर से चल दिए। उनके घर वालों ने उन्हें बहुत रोकना चाहा मगर वह तालीम पाने के शौक़ में सिन्ध आ गए। वहाँ रह कर एक बड़े बुर्ज़ुग हाफ़िज़ मुहम्मद सिद्द्क़ साहिब से तालीम हासिल की।
कुछ समय बाद वहाँ के दारुल-उलूम-देवबंद आ गए। यहाँ शैख़ुल-हिन्द मौलाना महमूद हसन और अन्य मज़हबी बुर्ज़ुर्गो की संगति में रहे, जिनके दिलों में देश प्रेम और आज़ादी का जज़्बा कूट-कूट कर गहराई तक भरा हुआ था।
उनकी सोहमत में मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी के दिलों में भी वतन की मुहब्बत और उसे आज़ाद कराने का जज़्बा जाग उठा।[i]
फ़िरंगियों के ख़िलाफ रेशमी रूमाल की योजना भी बनाई
आज़ादी के मतवाले मुल्क को आज़ाद कराने के लिए नई-नई तरह की योजनाएं बनाते। उबैदुल्लाह सिन्धी के लिए यह मशहूर था कि वह बहुत सटीक योजनाएं बनाते तथा उन पर कार्यवाही भी शूरू कर दिया करते थे। फ़िरंगियों के ख़िलाफ रेशमी रूमाल की योजना उनकी ही बनाई हुई थी। जिस में शैख़ुल हिन्द भी शामिल थे। वह योजना एक समय तक ही सफल रही। उसका राज़ खुल जाने के बाद उसे रोकना पड़ा।
मौलाना सिन्धी ने शैख़ुल हिन्द की सोहबत में देश को आज़ाद कराने के कई संघर्ष किए। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन देश की आज़ादी का दबाव बनाने के लिए कई मुल्कों के दौरे दिए। वह इस सिलसिले में कभी रूस गए तो कभी अफ़गानिस्तान।
उन्होंने कभी तुर्की का दौरा किया तो कभी अरब जा पहुँचे, उनकी इस दौड़-धूप का केवल एक मक़सद था कि किसी भी तरह से उनका देश ग़ुलामी से आजाद हो जाये।[ii]
काबुल में हिन्दुस्तान की अस्थायी सरकार बनाने मे मदद की
मौलाना महमूद हसन के इशारे पर मौलाना सिन्धी काबुल गए। वहाँ रहकर उन्होंने तुर्की हुकूमत से हिन्दुस्तान को आज़ाद कराने में मदद के लिए प्रयास किया। इधर वह काबुल में भी आज़ादी की तहरीक को जारी रखे हुए थे।
इसी बीच उनका सम्पर्क देश के महान स्वतंत्रता सेनानी डा. बरकतुल्लाह भोपाली तथा राजा महेन्द्र प्रताप से हुआ। आज़ादी के संघर्ष को मज़बूती और व्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए 1915 में काबुल में हिन्दुस्तान की अस्थायी सरकार बनाई गई।
जिस में डा. बरकतुल्लाह भोपाली प्रधान-मंत्री बनाए गए। मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी ने अस्थायी सरकार में रहकर हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई में बाक़ायदा प्रयास किए। शैखु़ल हिन्द द्वारा आज़ादी के लिए चलाई गई योजनाओं में भी उनका बड़ा योगदान रहा।
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कई बार नज़रबन्द भी होना पड़ा, क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण
मौलाना उबैदुल्लाह की क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें काबुल में कुछ समय के लिए नज़रबन्द भी रखा गया, फिर रिहा कर दिया गया। वहाँ से रिहाई के बाद उन्होंने हिजाज़ का रुख़ किया। वहाँ भी उनपर कुछ तक पाबंदियाँ लागू रहीं। भारत के वह साहसी सपूत देश की
आज़ादी के संघर्ष में अपने जीवन का लम्बा सफ़र विदेशों में गुज़ार कर मार्च 1939 में वापस स्वदेश लौट आए। वापस लौटने पर कराची बन्दरगाह पर उनका स्वागत किया गया।
देश वापस लौटने तक वह अपनी जिन्दगी का अधिकांश हिस्सा विदेशों में आज़ादी की राह तलाश करते हुए अपने जीवन के अंतिम पड़ाव बुढ़ापे को पहुँच चुके थे। वह देश के बंटवारे के कड़े विरोधी थे।
वह नहीं चाहते थे कि जिस मुल्क की आज़ादी के लिए हिन्दू और मुसलमानों ने एक साथ अपना ख़ून बहाया, धरने दिए, आन्दोलन किए, देश-विदेशों की राहों में भटके, उसका हिन्दू-मुस्लिम के धार्मिक आधार पर बंटवारा किया जाए।
अपनी बढ़ती हुई ज़ईफ़ी, बीमारी और कमजोरी के बावजूद उन्होंने गांव-गांव घूमकर मुल्क के बंटबारे की योजना का कड़ा विरोध किया। उन्होंने बँटवारे के नुक़सान को ख़ुद भी समझा और देशवासियों को भी समझाया लेकिन मौलाना उबैदुल्लाह सिन्धी का विरोध बेअसर रहा।
भारत के उस स्वतंत्रता सेनानी ने अपना जीवन देश सेवा में गुज़ार कर 24 अगस्त 1944 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया और देश के बँटवारे के बाद के दंगे-फंसाद और क़त्ले-आम को देखने से बच गए।
संदर्भ स्त्रोत
[i] मौलाना अबुल कलाम क़ासमी शमसी, तहरीके आज़ादी में उलझाए किराम का हिस्सा, पेज नं 132
[ii] असीर अदरबी, तहरीके आज़ादी और मुसलमान, पेज नं 155-56
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में