भगवती चरन वोहरा को गुप्तचर विभाग का आदमी क्यों समझा जाता था
क्रांतिकारी विचारक, संगठनकर्ता, वक्ता, प्रचारक आदि के रूप में भगवती चरन अक्सर याद किए जाते है।इसके साथ-साथ आदर्श के प्रति उनकी अगाध निष्ठा, सुख-दुख की परवाह किए बगैर निरंतर निर्धारित पथ पर आगे बढ़ते रहने का उनका हौसला जैसे उनके व्यक्तिगत गुण हर किसी को उनके प्रति आकर्षित करता है।
भगवती चरण वोहरा का व्यक्तित्व
हिन्दी के प्रसिद्ध नाटककार एवं आलोचक उदय शंकर भट्ट भगवती चरन के व्यक्तित्व के बारे में बताते है –ऊँचा कद, लंबा और हृष्ट-पुष्ट शरीर, चौड़ा माथा, गोल चेहरा, मस्त और लापरवाह तबीयत, चश्मे में छिपी हुई तीव्र आँखें, गेहुंआ रंग। मित्रों के साथ व्यंग्य, हँसी, वादविवाद, घुमक्कड़ी और अध्ययन उनके प्रिय काम थे।
पिता के मरने के बाद सौतेले भाई ने जायदाद के अच्छे मकान स्वयं ले लिए और साधारण मकान भगवती चरन को दिया। घर का कीमती समान भी रख लिया। भट्टजी उनदिनों उन्हीं के मकान में रहते थे। उन्होंने भगवती से पूछा- क्या पिताजी मरते समय इस प्रकार का विभाजन कर गये थे?
भगवती चरन से हंसते हुए दार्शनिक अंदाज में कहा- पिताजी ने तो नहीं, बड़े भाई ने जो उचित समझा किया। मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं।
भगवरी चरन का जन्म 1903 में जुलाई महीने में आगरे में हुआ था। उनके जन्म से काफी पहले उनके दादा गुजरात से आगरा आकर बस गए थे। पिता लहौर में रेलवे में ऊंचे पद पर थे। अंग्रेज सरकार ने उनके कामों से प्रसन्न होकर उन्हे रायसाहब का खिताब दिया था। आर्थिक रूप से परिवार संपन्न था, शादी भी आठ साल के उम्र में कर दी गई थी।
क्यों गांधीजी से उठ चुका था भगवती चरन का विश्वास
1921 में गांधीजी के आह्वान पर कांलेज छोड़ दिया और असहयोग आन्दोलन का हिस्सा बन गए। आन्दोलन वापस होने पर अपने साथियों के साथ लाहौर कालेज का में भर्ती हो गए और बी.ए. पास किया।
कांग्रेस और गांधीजी पर से भगवती चरन का विश्वास उठ चुका था। गांधीजी का वायसराय के सामने गिड़गिड़ाना उन्हें अच्छा नहीं लगता था। वायसराय के साथ गांधीजी के मुलाकात को वह एक साम्राज्यवादी के साथ पूंजीपतियों के एक प्रतिनिधि की बातचीत कहा करते थे।
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क्यों था, संगठन को भगवती चरन पर शक
भगवती चरन को गुप्तचर विभाग का आदमी क्यों और कैसे समझा जाता था। इसके बारे में एक धारणा बनी हुई थी। पंजाब से नेशनल कॉलेज के प्रोफ़ेसर जयचंद विद्यालंकर उन दिनों पंजाब के क्रांतिकारी दल के नेता थे, लेकिन कुछ करने के पक्ष में नहीं थे। अध्ययन, बहस-मुबाहिसा, प्रचार, संगठन, पैसा जमा करना आदि कामों तक ही वे नौजवानों को सीमित रखना चाहते थे।
भगवती चरन के नजदीक आकर कम्युनिस्ट दल के नजदीक आ गये थे और योरप से आने वाले कागजात उन्हीं के पते पर आया करता था। फिर वे कुछ कर डालने के उद्देश्य से क्रांतिकारी दल में शामिल हो गए। उन्ही दिनों काकोरी स्टेशन के पास गाड़ी रोकर क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाने लूट लिया। बहुत पकड़े गए और लखनऊ में के काकोरी षडयंत्र के नाम से उनपर केस चला।
काकोरी के अभियुक्तों को छुड़वाने के लिए लखनऊ जेल पर हमले की योजना बनाई गई। यू.पी. और पंजाब में जो दो बड़े नेता थे, वे समय टालने के अतिरिक्त और कुछ न करना चाहते थे। एक दिन भगवती चरन ने बिगड़कर कहा- अगर यही रवैया रहा तो हम अपना दल अलग बनाकर काम शुरू कर देंगे। पंजाब के नेता जानते थे कि भगवती चरन इतनी योग्यता रखते हैं और उनके पास साधन भी मौजूद है। इसी समय कहीं से यह खबर आ गई कि भगवती चरन सी.आई.डी के आदमी है और सी.आई.डी से तनख्वाह पाते हैं। उन्हें दल में, कांग्रेस में और नौजवान भारत सभा में जगह-जगह पर बदनाम कर दिया गया।
एक बार सुखदेव के कहने पर भगवती चरन की गैर-हाज़री में उनके कमरे तथा किताबों आदि की तलाशी भी ली गई। पर शक़ की पुष्टि करने लायक कोई चीज बरामद नहीं हुई। भगवती चरन को बदनाम करने में विरोधियों ने कोई क़सर नहीं छोड़ी, लेकिन भगवती चरन ने कभी भी उसकी सफाई पेश करने की कोशिश नहीं की। उनका कहना था – जो उचित है, उसे करते जाना मेरा काम है। सफाई देना और नाम कमाना मेरा काम नहीं।
चंद्रशेखर आजाद से संपर्क
पार्टी का काम व्यवस्थित एंव सुनियोजित ढंग् से चले, इसके लिए आज़ाद से संपर्क एवं उनका सफल नेतृत्व आवश्यक था। भगवती चरन आज़ाद की तलाश में कानपुर पहुँचे। वहाँ उन्हें आज़ाद के सूत्र शंकरराव मल्कापुरकर (सदाशिवराव मल्कापुरकर के बड़े भाई) का पता चला जो उस समय झांसी में थे। भगवती चरन झांसी पहुँचे तो पता चला आज़ाद ग्वालियर में है। उन्होंने आज़ाद से कहलवाया वह दिल्ली चलकर रहें। वहाँ स्थिति ठीक है रुपये-पैसा की व्यवस्थ भी आसानी से हो जाएगी।
कुछ समय बाद गणेशशंकर विद्यार्थी से पता चला कि आज़ाद का मन उनकी ओर से साफ़ नहीं है और वह न तो उनसे कोई संपर्क चाहते हैं और न कोई सहायता। इस रूखे जवाब से विचलित हुए बगैर भगवती चरन ने इतना ही कहा कि सन्देह किसी दिन स्वयं ही दूर हो जाएगा।
भगवती चरन ने सारी बातें दिल्ली जाकर कैलाशपति को बताईं जो उस समय आज़ाद की ओर से दिल्ली का संगठनकर्ता थे। कैलाशपति ने सब कुछ आज़ाद तक कहलवा दिया और दिल्ली में भवगती चरन से संपर्क स्थापित करने को कह दिया।
कानपुर के मारवाड़ी बासे में भगवती चरन पहली बार आज़ाद से मिले। लाहौर केस में भगत सिंह के गिरफ्तारी के बाद, उस स्तर का कोई व्यक्ति नहीं था जो आंशिक तौर पर इस कमी को पूरा कर सके। भगवती चरन के संपर्क में होने के बाद दोनों एक-दूसरे के पूरक बन गए और एक बार फिर दल फिर से सक्रिय होने लगा।
और फिर चिराग बुझ गया
मार्च 1930 का सत्ताइसवाँ दिन, लाहौर के एक बंगले में भगत सिंह और दत्त को जेल से छुड़ाने की योजना को अंतिम रूप दिया जा रहा था। निश्चित हुआ कि रविवार के दिन जब भगत सिंह और दत्त लाहौर की जेल में अपने अन्य साथियों से मिलकर बाहर आयें, तभी पुलिस की गाड़ी में बैठते समय हमला बोलकर उन्हें छुड़ा लिया जाये।
इस काम के लिए जाने वालों में आज़ाद और अन्य साथियों के साथ आग्रह करके भगवती चरन ने अपना नाम भी रखवा लिया था। उन्होंने यशपाल को बम तैयार कर देने के लिए कहा। एक्शन में बमों की आवश्यकता पड़ सकती थी।
दूसरे दिन यशपाल ने दो-तीन खोलों में बिरोजे का अस्तर दिया और सूखने के लिए उन्हें धूप में रखकर किसी काम से बाहर चले गए। भगवती चरन एक बम को लेकर जाकर टेस्ट करना चाहते थे। सुखदेवराज ने यश का इंतज़ार किए बग़ैर एक खोल में मसाला भर डाला और भगवती चरन, सुखदेव राज तथा वैशम्पायन को लेकर रावी के किनारे जंगल में उसे टेस्ट करने चले गए। आगे जो कुछ हुआ उसका आंखो देखा विवरण वैशम्पायन के अनुसार-
28 मई 1930 भगवती चरन, सुखदेवराज तथा मैं लगभग दस-बारह बजे भोजन करके रावी के किनारे घने जंगल में बम का विस्फोट के लिए गए। जब रावी के किनारे पहुँचे तो साइकिलें घाट पर ही छोड़ दीं। यूनिसर्सिटी क्लब की नावें जिस व्यक्ति की देखरेख में थी, वह सुखदेवराज से अच्छी तरह परिचित था तथा सुखदेवराज बोट क्लब के सेक्रेटरी भी था।
इसलिए नाव मिलने में कठिनाई नहीं हुई। सुखदेवराज नाव खेना जानते थे। इसलिए मल्लाह भी साथ लेने की आवश्यकता नहीं थी। जाते समय रास्ते में कुछ संतरे व एक तरबूज साथ में ले लिया थ। गर्मी तेज थी। लू भी जोरों से चल रही थी। नाव जब जंगल के पास पहुंची तो उसे किनारे लगाकर खूंटे से बांध दिया। उन दिनों भाई भगवती चरन बहुत प्रसन्न थे। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि वे भगत और दत्त को छुड़ाने में सफल हो जाएंगे।
जंगल में एक सुरक्षित स्थान देखकर हम लोग रुके। सामने एक बड़ा गड्ढा था। उसी में बम फेककर परीक्षण करना था। पहले सुखदेवराज ने बम फेंकने को लिया, परंतु उसने उसे देखने पर कहा कि बम की पिन ढीली है। इस पर मैंने उसे चलाने की इच्छा प्रकट की।
बाबू भाई ने बम हाथ में लेकर देखा और बोले, तुम लोग पीछे हटो। मैं देखता हूँ। हम दोनों ने बहुत मना किया, पर वे न माने। अपनी ज़िद पर अड़े रहे। पिन निकाली। फेंकने को हाथ उठा भी न पाये थे कि बम का विनाशकारी विस्फोट उनके हाथ में हो गया। धुंए का गुबार छा गया। इसके कम होते ही हमने देखा कि बाबू भाई जमीन पर ज़ख्मी हो पड़े हैं।
इधर सुखदेवराज के बायें पैर में बम का एक टुकड़ा घुस गया था। हम दोनों ने तय किया कि सुखदेवराज बंगले में जाकर साथियों को ख़बर दे दे और मैं बाबू भाई के पास रहूँ। यह सब क्षण भर में ही हो गया। राज के जाने के बाद मैं बाबू भाई को सहारा देकर जंगल के घने भाग में ले गया। जिससे विस्फोट की आवाज़ से यदि कोई इधर आये भी तो उसे पता न चले।
भववती चरन को भूमि पर लिटाकर मैं उनके घावों पर पट्टियाँ बांधने लगा। उनका एक हाथ कलाई से उड़ गया था। दूसरे हाथ की उंगलियाँ कट गयी थीं। सबसे बड़ा घाव पेट में था जिससे कुछ अंतड़ियाँ बाहर निकल आई थी।
मैं एक हाफ पैंट और कोट को छोड़ कर शरीर पर जितने कपड़े थे, उन सबको को फाड़-फाड़कर उनके घावों पर बांध चुका था। पर रक्त की धारायें धरती का अभिषेक किये जा रही थी।
मैंने रुंधे कंठ से इतना ही कहा, ‘भैया आपने यह क्या किया।’ उत्तर में वही हठीली मुस्कान, शांत मधुर वाणी, ‘यह तो अच्छा ही हुआ। यदि तुम दोनों में से कोई घायल हो जाता तो मैं भैया आज़ाद को मुख दिखाने लायक़ न रह जाता।
जीवन का संघर्ष जारी था, पर अंत में विजय मृत्यु की हुई। पार्थिव शरीर छोड़ने से पहले इतना ही संदेश था, ‘मेरी मृत्यु भगत सिंह और दत्त को छुड़ाने के योजना में बाधक न हो। उस कर्तव्य की पूर्ति ही मेरी आत्मा को शांति देगी।’ बाक़ी जो कहा, वह मानो अपने छोटे भाई को कह रहे हों, ‘अपनी भाभी का साथ न छोड़ना’, यह कहते-कहते उनके दोनों हाथ ऊपर उठे, मानो वो मेरे आंसू पोछना चाहते हों पर सांत्वना का सुखद स्पर्श प्रदान करने वाली उंगलियाँ होम हो चुकी थी।
उर्दू का एक शेर भगवती चरन को बहुत प्रिय था और वे उसे प्राय: गुनगुनाया करते थे-
दरे तदबीर पर सर फोड़ना शेबा रहा अपना।
बसीले हाथ में आये न क़िस्मत आजमाई के।
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में