धार्मिक कट्टरता पर क्यों उलझ पड़े थे नेहरू-इकबाल
दिल्ली विश्वविद्यालय के सिलेबस से सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा लिखने वाले कवि मोहम्मद इक़बाल को सिलेबस से निकालने का प्रस्ताव मंजूर कर लिया है। 1930-1940 के बीच नेहरू और इक़बाल एक दूसरे का सम्मान करते हुए, भाषाई मर्यादा रखते हुए अपनी-अपनी असहमितियों को पत्र के माध्यम से भारतीय जनता के सामने अपने मत रखे थे।
इस्लामी एकता और धार्मिक कट्टरता को लेकर नेहरू और इक़बाल के बीच कुछ सवाल थे जिस पर दोनो के बीच बहस हो रही थी। नेहरू-इक़बाल आपस में बहुत अच्छे दोस्त भी थे। लेकिन इस बहस का सवालों से उनके आपस के संबंधों पर असर नही पड़ा। तीखा बहस करते हुए भी कभी व्यक्तित्व पर हमला नही किया। यह मतभेदों को समझने, सुलझाने और अपनी बात रखने का सलीका कोई नेहरू से सीखे जोकि आजकल की राजनीति हमें नही दिखायी देती है।
समकालीन हस्तियों के साथ बहस को बड़े कैनवास पर खींचते थे नेहरू
यह राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं की शालीनता ही कहिए कि 1935 में नेहरू और इक़बाल के बीच भयानक असहमति होने के बावजूद 1938 में जब इक़बाल को यह बात पता चली कि नेहरू लाहौर आए है तो उन्होने नेहरू को बुलावा भेजा और नेहरू उनसे मिलने भी गए। इसके बारे में नेहरू ने अपनी आत्मकथा में जिक्र भी किया है। इस समय इक़बाल अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर थे और आंख से लगभग न के बराबर दिखता था बावजूद इसके कि वे राजनीतिक लोगों से मिलने की इच्छा रखते थे। यह एक जीने की लालसा के साथ ही समाज और राजनीति में क्या हो रहा है उसके प्रति उनकी रुचि बताती है। अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी साथी से भी मिलने इच्छा जाहिर की।
नेहरू अपने समय के ऐसे शख्सियत थे जिनसे हर कोई मिलने की चाहत रखता था। उनके विचार और संवाद ने राजनीति और आने वाले समय के लिए एक दिशा को परिभाषित करने का काम किया था। नेहरू सिर्फ एक समकालीन नेता ही नही बल्कि आज की भी राजनीति उनके बिना नही हो रही है।
इतिहास के साथ ही भारतीय राजनीति में वे हमेशा मौजूद है। नेहरू आज हमारे बीच न हो लेकिन कुछ विषय ऐसे है जो किसी न किसी रूप में उस समय से लेकर आज तक मौजूद है और उनके विचार और संवाद आज भी इसीलिए महत्व रखते है। सबसे खास बात हमारे लिए महत्वपूर्ण है और अहमियत रखती है वह यह कि उनकी लड़ाई हमेशा वैचारिक रही है।
कभी भी निजी रिश्ते उससे प्रभावित नही होते थे, उनका कोई निजी हित भी नही होता था। त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन अपनी किताब में लिखते है कि “दूसरे राजनीतिक किरदारों के साथ उनका जुड़ाव जितना इंस्ट्रूमेंटल था उतना ही वैचारिक था, और जितना व्यक्तिगत था, उतना ही सार्वजनिक भी था। अगर दूरदर्शी नेहरू आदर्शवादी थे तो राजनीतिक किरदार के तौर पर वो सख्ती से यथार्थवादी थे”[i]।
नेहरू और उनके समकालीन लोगों के बीच बहस को जिस बड़े कैनवास के साथ वे खींचते थे और जिस तार्किकता के साथ वे अपनी बात को रखते थे उसका कुछ अक्स हम आगे देखेंगे।
नेहरू और इक़बाल के बीच समानता
इसमें कोई शक नही कि नेहरू और इक़बाल दोनों ही अपने समय के अच्छे वक्ता रहे है। दर्शन में रुचि रखते थे। दोनों का ही इतिहास कश्मीर से जुड़ा हुआ था। दोनों की पढ़ाई कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से उस समय हुई जब विदेशों में पढ़ना काफी बड़ी बात हुआ करती थी। लेकिन इक़बाल जल्दी ही विदेश से लाहौर वापस आ गए।
अगर इक़बाल जर्मनी से 1907 में लाहौर लौटने की बजाय ट्रिनिटी कॉलेज आ गये होते तो नेहरू के साथ उनके संबंध बेहद अलग होते। दूर से ही, एक दूसरे की राजनीतिक गतिविधियों पर नजर बनाए रखने वाले ये दोनों ट्र्निटी के डाइनिंग हॉल में मिलने वाले स्वादहीन खाने की शिकायत करते हुए, भारतीय छात्रों के डिबेटिंग क्लब कैम्ब्रिज मजलिस में अपनी भाषा पर धार चढ़ाते हुए या भारतीय स्वाधीनता संग्राम के नायकों के लंदन आने पर उनके भाषणों को सुनते हुए अच्छे दोस्त भी बन सकते थे। लेकिन बौद्धिक स्तर पर इनका आमना-सामना होने में तीन दशक लग गए।[ii]
नेहरू और इक़बाल भारत के पिछड़ेपन को लेकर चिंतित थे और अपने-अपने तरीके से परिवर्तन लाने का प्रयास कर रहे थे। राजनीतिक मसले पर भी दोनों के बीच समानता दिखायी देती है।
दोनों ने ही “फिलिस्तीन को यहूदियों का राष्ट्रीय घर बनाने के विचार का घोर विरोध किया था। इक़बाल को लगता था कि यह एक खतरनाक प्रयोग होगा। यहूदियों के लिए एक स्वायत्त जगह उन्हें मुसलमानों के धार्मिक घर में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की सेंधमारी लग रही थी”|[iii]
नेहरू को भी फिलिस्तीन के मसले पर ‘अरब से विश्वासघात’ लगता था और अरब राष्ट्रवाद की ब्रिटिश साम्राज्यवाद से स्वाधीनता की लड़ाई के साथ खड़े थे|[iv]
नेहरू को लगता था कि इक़बाल के बाद के कविताओं और अन्य लेखन में समाजवाद के प्रति झुकाव दिखता है। इक़बाल को कहीं न कहीं यह समझ आ गया था कि भारत की जमीन पर मुस्लिम राज्य की स्थापना से मुस्लिम पिछड़ेपन से नही मुक्त हुआ जा सकता है। वे उसके खतरे को भी जानते थे…इसीलिए लगता है कि वे अलग राज्य की वकालत करना बंद कर दिए थे।
नेहरू और इक़बाल एक-दूसरे से अल्हदा नज़र आते है
राष्ट्रवाद, धर्म और सांस्कृतिक मसले पर दोनों के विचार बिल्कुल अलग थे। नेहरू के दिमाग में एक ऐसा राष्ट्रवाद था जिसमें सभी एक साथ आकर लोकतांत्रिक भारत की नींव रखें। वही इक़बाल को लगता था कि अलग-अलग समुदायों को एक छतरी की नीचे लाने के इतर देखने की जरूरत है।
सभी धार्मिक समुदायों को रहने लायक बनाने के लिए जरूरी है और एकीकरण का राग अलापना बंद कर देना चाहिए। इक़बाल का कहना था कि “मुसलमान लोकतंत्र से नही डरते थे, जैसा कि नेहरू ने अपने एक भाषण में कहा था। असल में मुस्लिम “लोकतंत्र की भेष में साम्प्रदायिक (हिंदू) गुटतंत्र से डर रहे थे।[v] हलांकि इक़बाल का यह अंदेशा भारतीय राजनीति में गलत साबित नही हुई।
शुरूआत से ही भारत में कुछ ऐसे बुनियादी सवाल है जिसको लेकर उस समय भी बहस हो रही थी और आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है। जैसे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सार्वजनिक दायरे में धर्म की भूमिका, मुस्लिम प्रतिनिधित्व आदि।
नेहरू बेबाक होकर तार्किकता के साथ अपना विचार रखते थे। भारतीय राजनीति में इन सवालों ने हमेशा अपना आस्तित्व बनाए रखा। या यूं कहा जाए कि भारतीय राजानीति में इन सवालों की अहम भूमिका है।
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नेहरू और इक़बाल के असहमतियों का कैनवाश
नेहरू और इक़बाल के बीच मुस्लिम एकता, सार्वजनिक जीवन में धर्म की अहमियत और धार्मिक कट्टरता के मुद्दों को लेकर घोर असहमति थी। नेहरू और इक़बाल के बीच 1935 में बहस अहमदिया मुसलमान के उपर हुई थी। अहमदिया मुसलमान ऐसा समुदाय था जो पंजाब में 1890 के आस-पास मिर्जा गुलाम अहमद की अगुवाई में बना था।
इक़बाल को इस सम्प्रदाय से सख्त नाराजगी थी। क्योंकि मिर्जा गुलाम अहमद इस्लाम को आधुनिक समय के लिए तैयार करने में जुटे थे। लेकिन समस्या यह थी कि वे खुद को धर्म से जुड़े दावों के चलते बहुतों को नागवार गुजरे।
जैसे कि मिर्जा गुलाम अहमद ने दावा किया था कि “वो जीसस का दूसरा जन्म थे और विष्णु का अवतार थे…स्वयं भगवान ने उनसे बात की और भगवान ने ही उनसे पैगम्बर की मशाल थामने को कहा….भगवान के साथ उनका अनोखा संबंध उन्हें भविष्य में झांकने में मदद करता है था जिससे उन्हें अपने खिलाफ खड़े लोगों की मृत्यु के बारे में मालूम पड़ जाता था”।[vii]
इस तरह के बेतुके दावे में कोई तार्किकता तो है नही लेकिन धर्म की बात है तो उनके साथ भी लोग हो लिए। शुरूआत में तो इक़बाल भी प्रभावित थे लेकिन बाद में वे कट्टर आलोचक बन गए।
उन्होंने एक पर्चा लिखा कादियां एंड ऑर्थोडॉक्स मुस्लिम के नाम से जिसमें इक़बाल ने लिखा कि “पैगम्बर होने के दावे से इस्लाम की एकजुटता को खतरे में डाल दिया था। वह मानते थे कि आधुनिक उदारतावाद ने ऐसे धार्मिक दुस्साहसियों को खुली छूट दे दी थी”।[viii]
इक़बाल का मानना था कि इस तरह के दावे के चलते इस्लाम खतरे में है क्योंकि धार्मिक सत्ता और पवित्रतता सिर्फ पैगम्बर से शुरु होती है और उन्हीं से खत्म होती है। इसलिए इक़बाल ने बिटिश सरकार से अहमदिया समाज को मुस्लिम समाज से अलग-थलग घोषित करने की गुजारिश की थी।
मुस्लिम एकता की महत्व को देते हुए इक़बाल कादियां एंड ऑर्थोडॉक्स मुस्लिम में लिखते है कि
“मै रूढ़िवादी हिंदुओं की बहुत सराहना करता हूं कि उन्होंने नये संविधान में धार्मिक सुधारकों के खिलाफ सुरक्षा की मांग की। दरअसल, मांग सबसे पहले मुसलमानों को करनी चाहिए थी क्यूंकि वो. हिंदुओं के विपरीत, अपने सामाजिक ढांचे से नस्ल के विचार को पूरी तरह से खत्म कर देते है।
सरकार को मौजूदा स्थिति पर गम्भीरता से विचार करना चहिए और यदि संभव हो तो इस मुद्दे पर एक औसत मुस्लिम की मानसिकता को समझने की कोशिश करनी चाहिए, जिसे वा अपने समुदाय की अखंडता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानता है। आखिरकार अगर किसी समुदाय की अखंडता को खतरा है , तो उस समुदाय के लिए एकमात्र रास्ता उसे तोड़ने वाली ताकतों से खुद की रक्षा करने का है|[ix]
नेहरू का अहमदिया समाज के साथ एक राजनीतिक रिश्ता था। 1928 के राष्ट्रीय सम्मेलन में इस समाज के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था। अहमदिया समाज अपने आपको मुस्लिम समाज सुधारक संगठन मानता था जो मोहम्मद अली जिन्ना को अपना समर्थन भी दिया था।
नेहरू की इस पर घोर असहमति थी कि इक़बाल द्वारा ब्रिटिश सरकार से एक धार्मिक सुधार आंदोलन पर रोक लगाने की मांग करना हर समुदाय के प्रगतिशील और नरमदलीय हिस्से के लिए घातक साबित होगा। नेहरु के शब्दों में
सनातनी, अपने समाज में ही ऐसे कदम उठाएंगे और जरुरी सुधारों को अमल में लाने से रोकते रहेंगे। और इस तरह से वो भी रूढ़िवादी मुस्लिम विचारधारा के नजदीक ही पहुंच जाएंगे…
नेहरू अचरज में थे कि गुरदासपुर जिले की इस छोटी मगर महत्वपूर्ण अहमदिया जनसंख्या को किनारे करके इक़बाल क्यूं उस मुस्लिम हिस्से को खो देना चाह रहे थे जो उन्हें बढ़त दिला सकता था। खासकर 1935 के भारत शासन अधिनियम के बाद, जिसने चुनाव की गणित को तवज्जों देना सिखाया। लेकिन इक़बाल का अहमदियों को छांट देने का प्रस्ताव मुसलमानों को निर्वाचन में सफलता से पीछे धकेल सकता था।[x]
दोनों तरह के तर्कों को देखते हुए यही लगता है कि अहमदिया समाज को इक़बाल विशुद्ध तौर पर धार्मिक मुद्दा मानते थे और इस्लाम के एकता के लिए खतरा मानते थे वही नेहरू राजनीति के साथ रूढ़िवाद के चंगुल से निकलने वाला धार्मिक सुधार आंदोलन मानते थे।
नेहरू इस्लामिक एकता पर सवाल उठाते है और कहते है कि आर्थिक तौर पर पिछड़े मुसलमान को उसके इस स्थितियों से निकलने के लिए इक़बाल का इस्लामी एकता का विचार लाभकारी साबित नही होने वाला था। इस्लामी एकता एवं अखंडता को बचाए रखने के इक़बाल की चिंता पर नेहरू सवाल खड़ा करते है और लिखते है कि
यदि मैं ये मानकर चल रहा हूं कि अतातुर्क कमाल के अधिपत्य में चल रहा तुर्की देश अब किसी भी हालत में इस्लामिक देश नही कहलाया जा सकता है। मिस्र में भी कई धार्मिक बदलावों की लहर आयी जिसने पुरातन सत्यों पर नए कपड़े डालने की कोशिश की। साथ ही, मैं ये समझ पा रहा हूं कि सर मोहम्मद इस आधुनिकता को बढ़ावा देने वाली प्रवृत्ति को ठीक नहीं मानते है।
सीरिया और फिलिस्तीन के अरब कमोबेश मिस्र के ही विचारों को मानते है और कुछ हद तक तुर्की के उदाहरण से प्रभावित है। ईरान तो वैसे भी इस्लाम-पूर्व मेजियन दिनों को ही अपनी प्रेरणा मानकर चल रजा है। इन सभी देशों में, असला में, पश्चिमी और केंद्रीय एशिया में, राष्ट्रवादी विचारों का तेजी से उत्थान हो रहा है।
ज्यादातर ऐसा शुद्ध और रूढ़िवादी धार्मिक दृष्टीकोण को खोकर रहा है…ये सब कुछ दिखाता है कि ये देश उस इस्लामिक एकता से दूर हो चले है जिसे सर मोहम्मद सामने रखते है। फिर आज के समय में ये एकजुटता कहां है?…इन सभी जगहों पर धार्मिक एकजुटता कितनी और कैसी है, ये मुझे नही मालूम…इन जगहों पर भी राष्ट्रवादी विचारों ने सेंध मारी है। और ये भी बात है कि राष्ट्रवाद और इस्लाम की एकजुटता एक साथ नही देखी जाती है। दोनों एक दूसरे को कमजोर करते रहते है।..दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है, इसके सामने तो कदायनियों का सवाल छोटा पड़ जाता होगा।[xi]
नेहरू का मानना था कि किसी समुदाय को धार्मिक आधार पर अलग-थलग करने सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता नही आ जाएगी। नेहरू की यह बात सच साबित हुई। अहमदियों को मुस्लिम माना जाए या नही इसी सवाल को लेकर 1953 में पाकिस्तान में आपातकाल लगा था। अंतत: 1974 में कानूनी तौर पर ऐलान कर दिया गया कि अहमदिया समूह अपने को मुसलमान नही कह सकते है। लेकिन दूसरी तरफ इक़बाल का डर अनायास नही था। भारतीय राजीति में आगे सच होती दिखायी दी कि नेहरू के राष्ट्रवाद में, अंत में मुसलमानों को असुरक्षा से बचा नही पायेगा।
पुरातनपंथी और रूढ़िवादियों के खिलाफ थे नेहरू
1935 में नेहरू ने “सभी धर्मों के रूढ़िवादी एक हों के नाम अल्मोड़ा जेल से एक पर्चा लिखा जिसमें वे रुढ़िवादियों की आलोचना करते है शारदा ऐक्ट के सवाल पर और सभी पुरातनपंथियों की शारदा एक्ट की एकजुटता पर सवाल उठाते है। शारदा ऐक्ट के जरिए 14 साल से कम उम्र की लड़कियों के विवाह को गैर-कानूनी करार दिया था।
दोनों तरफ के धर्मनिष्ठ लोग एकजुट होकर एलान किया था कि इस तरह कानून से अपने अधिकारों का हनन नही होने देंगे और न ही अपने परम्परा के साथ खिलवाड़ होने देंगे।
बनारस में एक जुलूस का जिक्र करते हुए नेहरू लिखते है कि “क्या वो इन कथित सुधारकों की धमकियों के चलते बालिका-वधुओं से शादी करने के अपने अधिकार को यूं ही जाने देंगे? कभी नही! कानून बने या न बने, ये सभी छोटी बच्चियों से शादियां करते रहेंगे-क्यूंकि प्यूबर्टी के बाद शादी तो पाप है न? और इस तरह से उनके धर्म की शान बढ़ती रहेगी… कुछ चिल्लम-चिल्ली हुई, जिसमें मुसलमानों ने नेतृत्व सम्भाला हुआ था और शारदा ऐक्ट को उसके अंत तक पहुंचा दिया था…मुसलमान इस जीत में अपने हिस्से के पूरे हकदार है”।[xii]
नेहरू और इक़बाल के असहमियों का कैनवाश काफी बड़ा है और एक-दूसरे के प्रति सम्मान बेमिसाल। अपने असहमियों और बहसो से जो लकीर दोनों खीचते है वह आज के दौर में काफी लंबी हो चुकी है जिसको मिटाना आज के दौर में संभव नहीं है। परंतु अपनी बहसों में जिस प्रस्थान बिंदु पर दोनों पहुंचते है उसपर पुर्नविचार करने की जरूरत नेहरू और इकबाल छोड़ भी देते है, यही वैचारिक और आध्यात्मिक बहसों कि मंजिल भी होती है।
संदर्भ सूची :-
[i] त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन, (2022), नेहरू: भारत को परिभाषित करने वाले संवाद, हार्परकॉलिंस पबिलशर्स इंडिया, पृ. सं. xii.
[ii] त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन, (2022), नेहरू: भारत को परिभाषित करने वाले संवाद, हार्परकॉलिंस पबिलशर्स इंडिया, पृ. सं. 5.
[iii] त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन, (2022), नेहरू: भारत को परिभाषित करने वाले संवाद, हार्परकॉलिंस पबिलशर्स इंडिया, पृ. सं. 2.
[iv] त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन, (2022), नेहरू: भारत को परिभाषित करने वाले संवाद, हार्परकॉलिंस पबिलशर्स इंडिया, पृ. सं. 2.
[v] त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन, (2022), नेहरू: भारत को परिभाषित करने वाले संवाद, हार्परकॉलिंस पबिलशर्स इंडिया, पृ. सं. 4.
[vi] त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन, (2022), नेहरू: भारत को परिभाषित करने वाले संवाद, हार्परकॉलिंस पबिलशर्स इंडिया, पृ. सं. 6.
[vii] त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन, (2022), नेहरू: भारत को परिभाषित करने वाले संवाद, हार्परकॉलिंस पबिलशर्स इंडिया, पृ. सं. 7
[viii] त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन, (2022), नेहरू: भारत को परिभाषित करने वाले संवाद, हार्परकॉलिंस पबिलशर्स इंडिया, पृ. सं. 13-13
[x] त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन, (2022), नेहरू: भारत को परिभाषित करने वाले संवाद, हार्परकॉलिंस पबिलशर्स इंडिया, पृ. सं. 8
[xi] त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन, (2022), नेहरू: भारत को परिभाषित करने वाले संवाद, हार्परकॉलिंस पबिलशर्स इंडिया, पृ. सं. 16-17
[xii] त्रिपुरदमन सिंह और अदील हुसैन, (2022), नेहरू: भारत को परिभाषित करने वाले संवाद, हार्परकॉलिंस पबिलशर्स इंडिया, पृ. सं.24
डा. अर्चना पाण्डेय जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पोस्टडॉक कर रही है