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रूहेलखंड को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने वाले 70 साल के ख़ान बहादुर ख़ां

1857 में क्रांति की ज्वाला ने समूचे भारतवर्ष को झकझोर दिया था। उस समय ख़ान बहादुर ख़ां रुहेलखंड क्षेत्र के महान क्रांतिकारी नेता थे। वह केवल क्रांति के सूत्रधार ही नहीं थे बल्कि कुछ समय के लिए उन्होंने समस्त रुहेलखंड क्षेत्र में स्वतंत्र शासन की स्थापना की थी।

 

कौन थे ख़ान बहादुर ख़ां

 

ख़ान बहादुर ख़ां का जन्म 1791 रूहेलखंड में हुआ था। ख़ान बहादुर रूहेला सरदार हाफिज़ रहमत ख़ां के वंशज थे। रहमत ख़ां के बेटों में जुल्फिकार अली खां, इनके पिता थे। अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की भावना ख़ान बहादुर  के रक्त में थी। सरदार रहमत ख़ां रुहेलखंड के अंतिम स्वतंत्र रुहेला शासक थे तथा उनके वंशज होने के कारण ख़ान बहादुर  को सौ रुपये मासिक पेंशन मिलती थी।

वह अंग्रेजों के द्वारा न्यायाधीश के पद पर भी नियुक्त किये गए थे। उनका जीवन आराम से बीत रहा था मगर सुख-सुविधाओं के सब साधन उपलब्ध थे। परन्तु, उनके मन में अंग्रेजों के अन्यायपूर्ण शासन के प्रति गहरा आक्रोश था।

1857 की क्रांति के समय उनकी आयु लगभग सत्तर वर्ष की थी। आयु का अधिक होना उनके ह्रदय में क्रांति की ज्वाला को कम होने से रोक नहीं सका। वृद्ध नेता अपूर्व उत्साह के साथ स्वतंत्रता संग्राम के समर में कूद पड़े।

क्रांति का आरम्भ मेरठ से हुआ और शीघ्र ही दिल्ली में भी स्वतंत्रता का हरा झंड़ा फहराने लगा। बहादुरशाह ज़फ़र को दिल्ली का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया गया। दिल्ली की स्वाधीनता का समाचार समस्त देश में बिजली की भांति फैल गया और अलीगढ़, इटावा, मैनपुरी और नसीराबाद भी स्वतंत्र हो गये।

 

1857 की क्रांति में रुहेलखंड कराया ख़ान बहादुर ख़ां ने

31 मई का दिन देश भर में क्रांति के लिए निर्धारित किया गया था। ख़ान बहादुर ने भी पूर्व योजना के अनुसार 31 मई तक प्रतीक्षा करने का निश्चय किया। उनका अंग्रेजों के साथ इतना मधुर व्यवहार था कि किसी को कोई संदेह नहीं हो सका।

 

ठीक 31 मई को सुबह-सुबह कर्नल ब्राउनली का बंगला जला दिया गया। ग्यारह बजे दोपहर को एक तोप छूटी। यह क्रांति का आरंभ था। 68 न0 पलटन ने अग्रेजों के बंगले में आग लगा दी और उन्हें मारना आरम्भ कर दिया।

अंग्रेज नैनीताल के तरफ भाग निकले। 6 घंटे के अन्दर बरेली पर स्वाधीनता का हरा झंडा फहराने लगा। ख़ान बहादुर को सर्वसम्मति से दिल्ली के बादशाह जफर के अधीन रुहेलखंड का शासक घोषित कर दिया गया।

 

ख़ान बहादुर ने क्रांतिकारियों की सहायता के लिए सेनापति बक्त ख़ान के नेतृत्व में 16000 सैनिकों की सेना भेजी। उसमें रुहेलखंड में स्वदेशी शासन स्थापित करने के बाद राज्य में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए 5000 घुड़सवार तथा 25000 पैदल सैंनिक भर्ती किए। लगभग 10 माह तक रुहेलखंड में शांति बनी रही। क्रांतिकारियों की शक्तियों को देखकर अंग्रेज रूहेलखंड की ओर मुंह नहीं कर रहे थे।


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ख़ान बहादुर ने समस्त प्रदेश में शांति, व्यवस्था तथा सुशासन स्थापित करने का प्रयत्न किया। क्रांति के कारण सब दुकान बंद थी और जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। आम जनता को आदेश दिया कि दुकानों को खोल दिया जाए।

1 जून 1857 को सुबह ख़ान बहादुर ख़ां ने सभी कर्मचारियों को कोतवाली में उपस्थित होने का आदेश दिया। उन्होंने कहा कि सब राजकीय अधिकारी अपने-अपने स्थानों पर पूर्ववत कार्य करते रहेंगे और यदि किसी कर्मचारी ने अपने कर्त्तव्य का उल्लंघन किया तो कठोर दंड दिया जाएगा।

 

1857 के अंत तक ख़ान बहादुर ख़ां रुहेलखंड में स्वतंत्र शासन चलाया

21 जून को  ख़ान बहादुर  को दिल्ली से एक शाही फरमान प्राप्त हुआ। जिसके अनुसार उन्हें रुहेलखंड का शासक नियुक्त किया गया तथा सम्पूर्ण प्रशासकीय अधिकार प्रदान किये गये। शाही फरमान के अनुसार प्रशासन का ध्येय की उन्नति करना, राज्य-कर ठीक समय पर उपलब्ध करना और सेना को ठीक समय पर वेतन देना था। शाही फरमान की प्रतियाँ समस्त तहसीलों और कोतवालियों को भेज दी गई।

ख़ान बहादुर भली-भांती समझते थे कि अंग्रेजों से खुले मैदान के युद्ध करना सम्भव नहीं है क्योंकि उनके पास अपार सैन्य बल है। उनके साथ छापामार युद्ध ही उचित है। यह ख़ान बहादुर की सैनिक दक्षता का प्रमाण था।

ख़ान बहादुर  तथा उनके सहयोगियों का विचार था कि जब तक अंग्रेज नैनीताल में सुरक्षित रहेगे तब तक उनका रुहेलखंड पर पूर्ण अधिकार नहीं हो सकेगा। उन्होंने नैनीताल पर आक्रमण करने का निश्चय किया।

जुलाई 1857 में उन्होंने अपनी सेना अपने पौत्र बन्ने मीर की अध्यक्षता में नैनीताल पर आक्रमण करने के लिए भेजी। बन्ने मीर की पराजय हुई तथा यह अभियान असफल रहा। ख़ांन बहादुर ने नैनीताल को जीतने के लिए दो बार फिर प्रयास किये परंतु सफल नहीं हो सके।

1857 के अंत तक ख़ांन बहादुर रुहेलखंड के शासक बने रहे। समस्त क्षेत्र सुरक्षित था तथा अंग्रेज उन पर आक्रमण करने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे।

ख़ान बहादुर ख़ां और अंग्रजो के मध्य लड़ाईया और संघर्ष

क्रांति ने जब दूसरा मोड़ लिया और दिल्ली में क्रांतिकारी हार गये तथा लखनऊ में भी उनकी पराजय हुई। अंग्रेजों ने रुहेलखंड की ओर प्रस्थान किया। 7 अप्रैल 1858 को वालपोल  लखनऊ से एक शक्तिशाली सेना के साथ रुहेलखंड की ओर चल पड़ा।

 

ख़ान बहादुर  ने बरेली के पास अंग्रेजों से डटकर मुकाबला करने का निर्णय लिया। 5 मई को नकटिया नदी के पास युद्ध हुआ। खान बहादुर  सम्पूर्ण शक्ति और उत्साह के साथ लड़ रहे थे। उसी समय गाजी लोग हरे साफे बाँधकर तथा हाथों में तलवार लेकर युद्ध में सम्मिलित हो गये। गाज़ियों ने अंग्रेजी सेना पर आक्रमण किया तथा उन्हें बुरी तरफ परास्त किया।

बालपोल तथा केमरन घायल हो गये। अगले दिन फिर युद्ध हुआ। अंग्रेजों की सेना ने पुन: क्रांतिकारी सेना पर जोरदार आक्रमण किया। भारतीय सेनानियों के पांव उखड़ने लगे।

 

ख़ान बहादुर अन्य क्रांतिकारियों सहित बरेली छोड़कर पीलीभीत चले गए। 7 मई 1858 को बरेली पर अंग्रेजों का पूर्ण अधिकार हो गया।


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अंतिम समय ख़ान बहादुर ख़ां का

ख़ान बहादुर  पीलीभीत से अवध चले गये। अवध में पहुँचने के बाद वह छुप कर  इधर-उधर घूमते रहे।

 

ख़ान बहादुर  55 अन्य क्रांतिकारी नेताओं के साथ नेपाल के तराई की ओर निकल गये। उनके साथ अवध की बेगम हजरत महल, नाना साहब, ज्वाला प्रसाद, बाला साहब आदि क्रांति के नेता भी थे। इन लोगों ने नेपाल के राणा जंगबहदुर से सम्बंध स्थापित करने का प्रयास किया। उन्हे क्रांतिकारियों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी, उन्होंने अपनी सेनाओं को भेजकर क्रांतिकारी नेताओं को पकड़वा दिया। इनसे से प्रमुख ख़ान बहादुर, मम्मू ख़ां और ज्वालाप्रसाद थे जिनको बंदी बनाकर लखनऊ के कारागृह में भेज दिया गया।

न्यायालय ने ख़ान बहादुर  के ऊपर अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति को प्रोत्साहन देने का और राजद्रोह का अभियोग लगाया। ख़ांन बहादुर  को मृत्युदंड दिया गया अवध के गजट के अनुसार उन्हें बरेली में फ़ांसी गी गई।

ख़ान बहादुर ख़ां वीरतापूर्व फांसी के फंदे पर झूल गये। उनके सम्बंधियों ने उनकी लाश मांगी, पर उनका शब तक उनके सम्बंधियों को नहीं दिया गया तथा उन्हें वही किले में दफन कर दिया गया।

उनकी स्मृति आज धूमिल हो चूकी है परंतु 1857 के गदर में उनकी भूमिका आज भी बरकरार है।

 


संदर्भ

उषा चंद्रा, सन सत्तावन के भूले-बिसरे शहीद, सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1986, पेज 59-63

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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