महिला आन्दोलनों को निरन्तरता में पहचाने का प्रयास
देश में महिलाओं के अधिकारों को लेकर हुए आन्दोलन का एक लंबा इतिहास रहा है। जिसको आयात किया हुआ विमर्श और पढ़ी-लिखी पटरी से उतरी हुई औरतों का विमर्श के साथ-साथ कई आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा है। परंतु, महिला आन्दोलनों ने न केवल महिलाओं की आवाज़ को मुखरता से उठाया है बल्कि पितृसत्तात्मक सामाजिक सोच को भी काफी हद तक तोड़ने का काम किया है।
साथ ही साथ बदलती सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों मुक्त बाज़ार वाली अर्थव्यवस्था, बढ़ती धार्मिक रूढ़िवादिता और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तथा पहचान के राजनीति के दौर में महिला मुद्धों के श्रणीबद्धता को पहचानने के साथ-साथ इन मुद्दों पर मुखरता से सतह पर लाने का काम किया है।
भारत में महिला आन्दोलन विमर्श और चुनौतियाँ किताब में महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों और उसके अनुभवों की समीक्षा की है। जो महिलाओं के बीच मौजूद असमानताओं, श्रेणीबद्धताओं, भेदभावों और बहिष्करण के अनुभवों के कठोर सामाजिक यथार्थ से निकलकर सतह पर इकठ्ठा हुए है।
किताब ने जिन विषयों को चिन्हित किया है किया है वह नारीवादी संघर्षों के सामने खड़ी वर्तमान बहसों और सरोकारों को समेटते हैं। किताब की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि चिन्हित किये गए विषय स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर अलग-अलग पाठ्यक्रमो की ज़रूरतों को भी पूरा करती है।
आज महिलाओं के अनुभवों, संघर्षों और उनके सामने खड़ी चुनौतियों पर अकादमिक नारीवादी शोध एवं अध्ययनों में सामाजिक विज्ञान में प्रचलित शब्दों अवधारणाओं और पद्धतियों की आलोचनात्मक समीक्षा पेश की है और यह संतोषजनक है कि अलग-अलग अनुशासनों के पाठ्यक्रम में उसे स्थान मिला है।
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लेकिन यह भी सच है कि हिन्दीं में इन सामग्री का अभाव आज भी बनी हुई है। भारत में महिला आन्दोलन विमर्श और चुनौतियाँ किताब इस कमी को पूरा करना चाहती है और महिलाओं के आन्दोलनों और अध्ययन के सामने खड़े तमाम मुद्दों और बहसों पर एक व्यापक नज़रिया पेश करती है,हाल के महिला आन्दोलनों के नए सवालों को पर भी शामिल करती है। प्रस्तुत किताब महिलाओं से जुड़े अलग-अलग मुद्दों पर लेखों का संकलन है।
भारत में महिला आन्दोलन विमर्श और चुनौतियाँ किताब इस तथ्य को सतह पर लाने का प्रयास करती है कि भले ही भारत में महिला आन्दोलनों ने लम्बी दूरी तय की है परंतु वर्तमान में भी उनकी निरन्तरता बनी हुई है।
महिलाओं ने संगठित होकर स्वयं के कई मुद्दों पर बने मौन को न केवल तोड़ा है बल्कि अलग-अलग तबकों की महिलाओं द्वारा छेड़े गए संघर्षों की विशिष्ट्ताओं को समझने के साथ-साथ महिलाओं के साथ सामाजिक जीवन में पितृसत्ता की जटिलताओं और उसके अन्तर्सम्बधों के बारे में एक बेहतर समझदारी को विकसित भी किया है।साथ ही साथ नये सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मोर्चो पर महिलाओं के पहले के सवालों को नये परीपेक्ष्य में समझने का प्रयास किया है।
महिला आन्दोलनों के आवाज़ों में नये सवालों को पहचाने का प्रयास
भारत में महिला आन्दोलन विमर्श और चुनौतियाँ किताब परिवार, विवाह, समुदाय, जाति, यौनिकता और श्रम के साथ महिलाओं के सवालों को पुर्नपरिभाषित करने के साथ-साथ कई नये विषयों को भी सतह में लाने का प्रयास करती है जो हाल के महिला आन्दोलनों में ही नहीं घर और बाहर दोनों ही दायरे में महिलाओं से जुड़े हुए मुद्दे रहे है।
जिनको अब तक के महिला आन्दोलनों ने अपने विमर्श का हिस्सा नहीं बनाया था या उनपर विचार नहीं किया था। मसलन, टी. सौजन्या का लेख जहाँ दलित नारीवाद: एक्टिविज़्म और लेखन की नज़र में दलित-दलित नारीवाद के सैद्धान्तिक सूत्रीकरण का विश्लेषण करता है तो साथ ही साथ दलित महिलाओं के लेखन और आत्मकथाओं के ज़रिये जातिगत विषमताओं और श्रेणीबद्ध पितृसत्ताओं की पहचान कर उसकी आलोचना का पक्ष प्रस्तुत करता है।
अनीता घई का पर्चा, विकलांगता के साथ जी रही महिलाएँ भारत में विकलांगता के आम तस्वीर पर नारीवादी आन्दोलन के बेगानेपन को सतह पर लाकर पटक देता है। विकलांगता को समझने में नारीवादियों आन्दोलनों में कमीयाँ रही है जिसके कारण विकलांग महिलाओंके अनुभवात्मक हक़ीक़तों की उपेक्षा होती है।
साथ ही साथ राज्य ने इस विषय पर अपनी जिम्मेदारियों को झटक दिया है उसको भी सूत्रबद्ध करने का प्रयास किया है। अनीता घई ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि विकलांगता कैसे एक संस्कॄति को गढ़ती है जो राजनीति और सत्ता (हीनता) से सवाल से जुड़ा हुआ है।
गज़ाला जमील और ख़ौला ज़ैनब का आलेख मुस्मिल महिला अधिकार आन्दोलन का वृहत कैनवाश रचता है जिसमें इस तथ्य को प्रस्तुत किया है कि महिला आन्दोलनों के बहसों में ने मुस्लिम महिलाओं के संघर्षो और मुस्लिम महिलाओं के अधिकार आन्दोलन के संघषों में अब तक कुछ विषयों की अनदेखी होती रही हैं जैसे पर्सनहुड और उनकी एजेंसी को बाहर रखना
जिसके कारण मुस्लिम महिलाओं के सवाल हमेशा उनकी आस्थाओं में क़ैद करके देखने का तरीक़ा विकसित हुआ है। इस वज़ह से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की बहस कभी कोई सार्थक संवाद मुस्लिम महिलाओं के मध्य मौजूद विभिन्नता, श्रेणीबद्धता और जटिलताओं से नहीं कर पाता है।
सारी बहसें साम्प्रदायिक राष्ट्रवादी एजेंडा के साथ गुंथ जाती है। जिसके कारण मुस्लिम महिलाओं के समस्याओं को समझने के लिए जेंडर वाली चेतना अधूरी सिद्ध होती है।
चयनिका शाह का लेख क्वीयर नारीवादी सोच और संघर्ष इस बात पर ज़ोर देता है कि किस तरह क्वीयर नारीवादी के तहत जेंडर और यौनिकता की नई समझदारी आज के वक़्त में अदृश्य की गई जिन्दिगियों पर निरन्तर जारी हिंसा के विरोध में समर्थन प्रदान करती है और उसे एक नया सन्दर्भ देती है।
वह समाज की मान्यताओं, नियमों और ढ़ांचो प्रश्न खड़ा करती है और उसे एक सन्दर्भ देती है। वह वर्चस्वशाली प्रवृत्ति पर सोचने के लिए लोगों को प्रेरित करती है जिसके तहत हरेक को समरूप समझा जाता है और वह विविधताओं को स्वीकार तथा उसकी सृजनात्मक सम्भावनाओं को भी स्वीकारती है।
इसीतरह भारतीय महिला आन्दोलन के आलोक में लड़कियों की शिक्षा वह क्षेत्र रहा है जिसका विकास नारीवादी नज़रिये से नहीं हो सकता है। गौरतलब है कि भारतीय सामाजिक संरचना के इतिहास में स्त्री शिक्षा से वंचित थी। आज़ादी के बाद लोकतांत्रिक संरचना के विकास के बाद लड़कियों का शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है
परंतु शिक्षा के विभिन्न स्तर पर स्थिति संतोषजनक नहीं है। साधना सक्सेना क्या जेंडर समानता और न्याय शिक्षा नीति के उद्देश्य हैं?
लेख में रेखांकित किया है कि विगत दशकों में, शिक्षा के लिए समान अवसर और हाशिये पर पड़े समाजों के लिए प्रतिपूरक योजनाओं को श्रेणीबद्ध और असमान शिक्षा व्यवस्था ने प्रतिस्थापित किया है जिससे गुणवत्तावाली शिक्षा और सभी लड़कियों की शिक्षा में सहभागिता जैसे मुद्धों से लोगों का ध्यान बांट दिया है।
महिला आन्दोलनों में उभरे पुराने महिला सवालों पर नई झलक
भारत में महिला आन्दोलन विमर्श और चुनौतियाँ किताब में महिला आन्दोलनों में उभरे पुराने सवालों को नये परिदृश्य में देखने की कोशिश भी हुई है, यह पुराने सवालों की पुर्न समीक्षा या पुर्नपाठ करने की कोशिश भी है।
मैत्रेयी चौधरी का लेख भारत में मीडिया और जेंडर मीडिया, लता सिंह का लेख महिला और अभिनय हाल के दशको में विभिन्न महिला आन्दोलनों में उभरे नये महिला सवालों पर नई झलक प्रदान करने का प्रयास करती है।
संकलन के अन्य लेख मसलन, सुरंजिता रे का लेख पितृसत्ता को समझने का प्रयास, वी.गीता का लेख परिवार, नातेदारी, जेंडर और जाति, सुजाता गोठोसकर का लेख स्त्री का काम जो एक पहेली है, अनघा तांबे का लेख यौन कर्म पर विमर्श: जाति, कलंक और यौनिक श्रम, मीना गोपाल का लेख श्रम, जाति और यौनिकता से नारीवाद का संवाद, रंजना पाढ़ी का लेख निर्वाह अर्थव्यवस्था पर हमला: पूर्वी भारत में महिला श्रम और प्रतिरोध आन्दोलन, कल्पना कन्नबीरन, रितु मेनन का लेख मथुरा से मनोरमा तक, साधना आर्य, शशि खुराना का लेख भारत में विवाह, परिवार और समुदाय में महिलाओं पर हिंसा परिवार, विवाह, समुदाय, जाति, यौनिकता और श्रम के सवालों से टकराते हुए नई सामाजिक परिस्थितियों में जो आमूल-चूल बदलाव हो रहे है उसमें महिलाओं के सवालों को पुर्नपरिभाषित करने का प्रयास करते हुए दिखते है।
उमा चक्रवर्ती अपने लेख घर से देश सीमा तक: औरतों पर हिंसा, दंडमुक्ति और विरोध में भारत मे औरतों पर होने वाली हिंसा के इतिहास के वृत्त का परीक्षण और हिंसा के नये स्वरूपों के तरफ भी ध्यान देता है।
लेख महिलाओं के ख़िलाफ हिंसा को चार पहलुओं में सूत्रबद्ध करता है पहला, घर में जहां पर परिवार की नज़दीकी भरी जगह में हिंसा होती है; दूसरा, सड़कें और खेत जहां जाति और वर्ग की लक्षित हिंसा की जाती है,तीसरा; गांव के वह क्षेत्र जहां साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा की जाती है, चौथा है, प्रशासन जहां सुरक्षा के नाम पर सरकार द्वारा आम जनता को नियंत्रित क ने के लिए लागू किए गये क़ानूनों के माध्यम से पुलिस और सशस्त्र सेनाओं के द्वारा की गई हिंसा को दंड मुक्ति मिलती है।
साथ ही साथ के साथ महिलाओं के सवालों को पुर्नपरिभाषित करते हुए महिलाओं के साथ होनेवाली हिंसा और उत्पीड़न के तमाम रूपों को उजागर किया है।
बेशक, भारत में महिला आन्दोलन विमर्श और चुनौतियाँ किताब नारीवादी बहसों, संघर्षो और विमर्शो को समझने में बेहतर और गहरी समझदारी बनाने में मददगार सिद्ध होगी। विचारों के आदान-प्रदान, अलोचना-समालोचना के विकास में सहायक भी सिद्ध होगी।
साथ ही साथ महिला मुद्धों के जटिलता को समझने में उपयोगी कोशिश साबित होगी जिससे महिलाओं के अनुभवों और जटिलताओं को राजनीति में हिस्सा बनाने में मदद मिलेगी। प्रस्तुत किताब भारत में महिला आन्दोलन विमर्श और चुनौतियाँ नारीवादी राजनीति को समझने में निर्णायक होने के साथ-साथ कई मुद्दों पर एक झलक प्रदान करने में मदद करती है। इस सत्य को इंकार नहीं किया जा सकता है।
साधना आर्य, लता सिंह,(अनु.)मीनाक्षी कपूर, निधि अग्रवाल, सुभाष गताड़े, भारत में महिला आन्दोलन विमर्श और चुनौतियाँ, राधाकृष्ण प्रकाशन, पेपरबैक्स, दिल्ली, 2023
जे एन यू से मीडिया एंड जेंडर पर पीएचडी। दो बार लाडली मीडिया अवार्ड। स्वतंत्र लेखन।
संपादक- द क्रेडिबल हिस्ट्री