भगत सिंह के क्रांतिकारी साथी,डॉ. गया प्रसाद कटियार
भगतसिंह और आज़ाद के साथी, एक ऐसे क्रान्तिकारी जिनके बारे में देश के आम लोग अब भी बहुत कम जानते हैं। उनका नाम है, डॉ. गया प्रसाद कटियार।
“पागल मत बनो, यह भावुक होने का समय नहीं है, मेरा क्या है, मैं तो कुछ दिनों का मेहमान हूँ, फांसी पर झूलकर सारे झंझटों से छुटकारा पा जाउंगा, लेकिन तुम लोगों को लंबा सफर तय करना है। मुझे यकीन है कि उत्तरदायित्व का भारी बोझ और लंबे अभियान के बाद तुम थकोगे नहीं, सुस्त नहीं होगे और हारकर रास्ते में बैठ नहीं जाओंगे।” भगत सिंह ने यह, डॉ. गया प्रसाद कटियार से हुई अंतिम मुलाकात में कहा था।
ये वे शब्द हैं, जो सरदार भगत सिंह ने फांसी पर चढ़ने के कुछ दिन पूर्व जेल की सलाखों से अंतिम मुलाकात में अप ने प्रिय साथी डॉ. गया प्रसाद कटियार की आंखों में आंसू देखकर कहे थे। यह वही डॉ. गया प्रसाद हैं जिन्हें 7 अक्टूबर 1930 को अंग्रेजी हुकूमत ने प्रसिद्ध लाहौर षड्यंत्र केस में आजीवन कारावास (कालापानी) की सजा दी थी। इसी मुकदमें में सरदार भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई थी।
क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ने के लिए पत्नी को छोड़ दिया
20 जून 1900 को कानपुर जिले की बिल्हौर तहसील के गाँव खजूरी खुर्द में पिता मौजीराम व माता नंदीरानी के घर इस महान क्रांतिकारी का जन्म हुआ। उनके दादा महादीनजी ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था, जिसकी कहानियाँ सुनकर बचपन में ही गया प्रसाद के मन में अंग्रेजों के प्रति नफरत पैदा हो गई थी।
गया प्रसाद ने हाई स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करके डाक्टरी का कोर्स किया और आर्य समाज व कानपुर की मजदूर सभा में कार्य करना आरंभ कर दिया। यहीं पर गणेश शंकर विद्यार्थी, हरिहरनाथ शास्त्री आदि के साथ कार्य करते हुए उनका परिचय देश के शीर्षस्थ क्रांतिकारियों से हुआ।
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क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ने में सबसे बड़ी बाधा उनका विवाहित होना था, जिसके चलते उन्होंने अपनी पत्नी रज्जों देवी से कहकर हमेशा के लिए विदा ले ली कि मैं क्रांतिकारी पार्टी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्किन आर्मी (एच.एस.आर.) का सदस्य बनकर मातृभूमि की सेवा में प्राणों की बाजी लगाने जा रहा हूँ।
रज्जों देवी ने उन्हें सहर्ष विदा किया और फिर पति-पत्नी की कभी मुलाकत न हो सकी। यह घटना हमारे स्वर्णिम स्वतंत्रता आंदोलन की एक दुर्लभ घटना है।
अपने दवाखाने में खोले बमों के कारखाने
क्रांतिकारी पार्टी में कार्य करते हुए डॉ. साहब ने अपनी डाक्टरी ज्ञान का उपयोग करते हुए विभिन्न नामों से देश के आधा दर्जन से अधिक शहरों में दवाखाना खोले, जहाँ बाहर दवाखाना और अंदर बमों के कारखाने चलाए जाते थे।
भगत सिंह व बहुकेश्चर दत्त ने जिन बमों को 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली के संसद भवन में बाहरी हो चुकी अंग्रेज सरकार के कान खोलने के लिए फेंके थे। उन बमों का निर्माण डॉ. साहब की देखरेख में ही हुआ था।
सरदार भगत सिंह से नजदीकी तौर पर जुड़े रहे डॉ. साहब ने पार्टी के केंन्द्रीय कार्यालयों का भी संचालन किया। आज हम इनकलाब जिंदाबाद का जो नारा लगाते हैं, वह इसी पार्टी के क्रांतिकारी साथियों की ही देन हैं।
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जब देश के सम्मानित नेता लाला लाजपतराय की बर्बर हत्या के विरोध स्वरूप अंग्रेज डी.एस.पी. सांडर्स की हत्या के कार्य को भगत सिंह, राजगुरू व चंद्रशेखर आजाद ने बखूबी अंजाम दिया तो विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली अंग्रेज सरकार की चूलें हिल गई।
इस कार्य को अंजाम देने के लिए युवा सिख का भगत सिंह को अपने सिख धर्म के विरुद्ध केश व दाढ़ी काटानी पड़ी। केश व दाढ़ी काटने यह कार्य डॉ. साहब ने अपने हाथों से फिरोजपुर में किया था, जहाँ वे डॉ. बी.एस.निगम के नाम से दवाखाना चलाते थे।
जब सांडर्स हत्याकांड के बाद अंग्रेजों के क्रांतिकारियों की धर-पकड़ शुरू की तो डॉ. साहब भी सहारनपुर में बम फैक्टरी का संचालन करते हुए शिव शर्मा व जयदेव कपूर के साथ 15 मई 1929 को दर्जनों बम व पिस्तौलों के साथ गिरफ्तार कर लिये गए। डॉ. साहब को बमों के निमार्ण की कला यतींद्रनाथ दास और पिस्तौल चलाने की ट्रेनिंग चंद्रशेखर आजाद ने दी थी।
गिरफ्तारी के बाद डॉ. साहब पर अपने साथियों के राज उगलवाने के लिए पुलिस ने उन्हें कई अमानवीय बर्बर यातनाएँ दीं, परंतु सरकार सफल न हो सकी।
फिर क्या था! डॉ. साहब और उनके कई साथियों पर इकतरफा मुकदमा चलाकर उनकी अनुपस्थिति में ही लाहौर षड्यंत्र केस में उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुना दी। यह केस विश्व के सर्वाधिक चर्चित केसों में है, जिसमें सरकार ने न्याय के नाम पर कानून की धज्जियाँ उड़ा दी थीं।
लंबे जेल-जीवन में डेढ़ वर्ष से अधिक भूख हड़तालें कीं
15 मई 1929 की गिरफ्तारी से लेकर 21 फरवरी 1946 तक की रिहाई तक के लगभग 17 वर्षों के लंबे जेल-जीवन में डॉ. साहब से घबराई अंग्रेज सरकार ने उन्हें हिंदुस्तान के विभिन्न प्रांतों की जेलों में रखा।
अंत में अंडमान-निकोबार के सेल्यूलर जेल में वे सात वर्षों से अधिक समय तक बंदी रहे, जहाँ उन्होंने कम्युनिस्ट कांसोलिडेशन की स्थापना करके अपने चार सौ बंदियों के साथ मिलकर 46 दिन की भूख हड़ताल की, जो कि उस समय यह एक विश्व रिकार्ड थीं।
इसमें उनके साथी आजन्म कारावासी महावीर सिंह की मृत्यु हो गई थी। डॉ. साहब ने जेल जीवन के दौरान दर्जनों भूख हड़तालें कीं। दिनों के हिसाब से इसका योग डेढ़ वर्ष से अधिक होगा। इसमें जुलाई 1930 में लाहौर जेल में 63 दिन चली भूख हड़ताल उल्लेखनीय है, इसमें उनके अभियोग के साथी यतीन्द्रनाथ दास शहीद हो गए थे।
यह बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि इसी भूख हड़ताल के चलते राजनीतिक बंदियों के लिए बी क्लास का निमार्ण हुआ, जिसए कांग्रेस के बंदियों को यह सुविधा मिलने लगी, परंतु, अंग्रेजों ने क्रांतिकारी बंदियों को यह सुविधा नहीं दी।
10 फरवरी, 1993 को आजाद और भगत सिंह के सपनों का निर्माण करते हुए यह योद्धा सदा-सदा के लिए चिरनिंद्रा में सो गया।
भारत सरकार ने सन 2016 में स्वतंत्रता सेनानी एंव क्रांतिकारी डॉ. गया प्रसाद कटियार के नम पर 5 रुपए का एक डाक टिकट जारी किया। वहीं उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा वर्ष 2000 में शिवरापुर ब्लांक परिसर (जिला कानपुर) में उनकी प्रतिमा स्थापित की गई।
संदर्भ
[1] रक्त का कण-कण समर्मित, चिरंजीव सिन्हा, प्रभात प्रकाशन पेज 70-75
नोट: साभार श्री क्रांति कुमार कटियार पुत्र स्व. गया प्रसाद कटियार से प्राप्त साक्षात्कार, इंदिरा नगर, कानपुर
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में