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भारत के आदिविद्रोही बिरसा मुंडा

बिरसा विद्रोह दरअसल मुण्डा विद्रोह था। इस विद्रोह का आर्थिक उद्देश्य उन ज़मींदारों  को, जिन्होंने मुण्डों की जमीन हथिया ली थी, भागाना और जमीन को मुण्डों के हाथ में लाना था। इसका राजनीतिक उद्देश्य अंगरेजों के राज्य को खत्म कर मुण्डा अंचल में मुण्डा राज कायम करना था। इसका धार्मिक उदेश्य ईसाई धर्म का विरोध करना और ईसाई बने असंतुष्ट मुण्डों का नया धर्म स्थापित करना था। [i]

मुण्डा विद्रोह को सरदारी लड़ाई भी कहा जाता है

 

बहुत से ज़मींदारों  ने छल-बल से मुण्डों की जमीन हथिया ली थी। मुण्डा अंचल में ही जमीन मुण्डों के हाथ से निकल कर अन्य लोगों के हाथ में जा रही थी। इससे उनके अन्दर असंतोष की आग बहुत दिनों से सुलग रही थी।

अपने सरदारों के नेतृत्व में मुण्डों ने उसके खिलाफ लगभग  15 साल तक आन्दोलन चलाया था। उनका आन्दोलन सरदारी लड़ाई के नाम से मशहूर है।[ii] मुण्डे दावा कर रहे थे कि जमीन के मालिक वे हैं, जमीन्दार नहीं। इसलिए वे किसी भी तरह का राजस्व या लगान ज़मींदारों  को न देंए। यह राजस्व वे सीधे अंगरेज सरकार को देने को तैयार थे।

उनका यह सरदारी आन्दोलन रांची से आरम्भ हुआ और शीघ्र ही सिंहभूमि में फैल गया। इस आन्दोलन का फौरी कारण जंगलों का संरक्षित क़रार दिया जाना[iii]

इस प्रकार से मुण्डों के हाथ से छीन लिया जाना था। सरदारों के नेतृत्च में मुण्डे अपना आन्दोलन चला रहे थे। लेकिन 15 वर्ष बाद भी जब कोई फल निकलते नज़र न आया तो मुण्डा सरदारों के सामने प्रश्न खड़ा हो गया कि वे अब क्या करें

इस पृष्ठभूमि में बिरसा मुण्डा सामने आये और सब सरदार उनके साथ मिल गये। बिरसा अंगरेजों के राज को खत्म कर मुण्डा राज कायम करना चाहते थे और मुण्डों को अपनी मुक्ति का यही रास्ता सूझ पड़ा।

 

क्यों  आदिवासी  ईसाई धर्म के खिलाफ हो गये

कितने ही मुण्डे बेहतरीन ज़िंदगी की उम्मीद से ईसाई बन गये थे। लेकिन जल्दी ही उन्होंने अनुभव किया कि अपनी जाति और पुराना धर्म खो देने पर भी उनकी ज़िंदगी बेहतर नहीं हुई। इसलिए उन्होंने ईसाई धर्म से भी विद्रोह किया। उन्हे यह धर्म भी ढकोसलों से भरा और शोषण का हथियार मालूम हुआ।

अपने विद्रोह और हिंसात्मक कायों का दिन ईसा का जन्म दिन या एक दिन पहले चुना और अपने कितनी ही दुश्मनों का खून बहाया। उनके विद्रोह के तीन उद्देशय होते हुए भी मुख्य कारण जमीन और जंगल छीना जाना था। इसपर अपनाअधिकार जमाने के लिए उन्होंने विद्रोह का सहारा लिया।

अंगरेजों को ज़मींदारों  का मददगार पाकर वे उस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जब तक इन अंगरेजों को मार भगाया नहीं जाता, तब तक मुण्डों के हाथ से जमीन निकलती जायगी। इसी वजह से जमीन की उनली लड़ाई ने मुण्डा राज की लड़ाई का रूप धारण किया। ईसाई धर्म अंगरेजों का राज बनाये रखने का हथियार था, इसलिए उनके खिलाफ भी वे गये।

 

क्यों बिरसा ने अपने को भगवान का अवतार घोषित किया 

बिरसा रांची जिले के तमार थाने के दक्षिण की पहाड़ियों में स्थित एक छोटे से गाँव चलकद के एक मुण्डा थे।[iv] कितने ही मुण्डों के तरह वे भी लूथरपंथी ईसाई बन गये थे और चायबास के जर्मन मिशन स्कूल में उन्हें कुछ शिक्षा भी मिली थी। लेकिन ईसाई धर्म से असंतुष्ट होकर वे फिर मुण्डा बन गए।

1815 में उन्होंने अपने को भगवान का अवतार घोषित किया और कहा कि वे मुण्डों को इस लोक और परलोक में बचाने के लिए आये हैं। संभवत: मुण्डों को जगाने और ज़मींदारों  तथा अंगरेजों के खिलफ खड़ा करने का उन्हें यहीं उत्तम उपाय सूझ पड़ा। उन्होंने प्रचार किया कि जो मुण्डे उनका साथ न देंगे, उनका नाश हो जायेगा।

 

नौजवान बिरसा ने प्रचार किया कि अब मुण्डा राज शुरू हो गया  है तो महारानी विक्टोरिया का राज समाप्त हो गया है। उन्होंने मुण्डो को आदेश दिया कि किसी को भी राजस्व न दें और जमीन का भोग बिना राजस दिये ही करें। अंगरेज सरकार का हुक्म अब कोई भी मानकर न चले।[v]

 

इससे अंगरेज सरकार का चिन्तित होना स्वाभाविक था। इस बीच यह अफ़वाह फैल गई कि जो भी बिरसा का मत मानकर न चलेगा उसे क़त्ल कर दिया जाएगा। अंगरेजों को यह अच्छा बहाना मिल गया। 16 अगस्त 1815 को बीस वर्षीय नौजवान बिरसा को गिरफ़्तार करमे तमार का हेड कांस्टेबुल चलकद गया। मुण्डों ने उसको अच्छी तरह अपमानित कर चलकद से निकाल दिया।

 

24 अगस्त की रात को बिरसा जब अपने घर में सो रहे थे, अंगरेज सरकार की पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। उन पर और उनके अनुयायियों पर बगावत फैलाने का अभियोग लगाया गया और दो साल की कड़ी सज़ा दे दी गयी।[vi]


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बिरसा ने आन्दोलन के लिए मुण्डों को संगठित किया

जेल से छूटने के बाद बिरसा ने फिर अपने आन्दोलन का संगठन आरंभ किया। एक योजना के अनुसार वे सदल बल रांची के पास स्थित चुटिया गये। उनका उद्देश्य यहाँ के मन्दिर के साथ मुण्डों का सम्बध सिद्ध करना और इस सम्बन्ध के कागजात की खोज करना था।

 

उनका दावा था कि यह मन्दिर पुराने जमाने में कोलों का था। कहा जाता है कि बिरसापंथियों ने यह हिन्दू मन्दिर अपवित्र कर दिया। मन्दिर के अन्दर उन्होंने नाच किया, उसकी मूर्तियों को उखाड़ कर फेंक दिया और ताला तोड़ डाला। इससे हिन्दू बिगड़ खड़े हुए और कुछ अपराधियों को पकड़ लिया। गिरफ़्तार मुण्डों ने बयान दिया कि जो कुछ उन्होंने किया वह बिरसा की प्रेरणा से किया था, अपने मन से नहीं। इसपर बिरसा की गिरफ़्तारी के लिए हुक्म जारी हो गया।

 

किन्तु बिरसा हाथ न आये। वे दो साल तक गुप्त रूप से अपना काम करते रहे और लोगों को अंगरेजों के खिलाफ विद्रोह के लिए तैयार करते रहे। इसी गुप्तावास के दौरान वे जगन्नाथपुर के मन्दिर गए। कहा जाता है कि वहाँ वयोवृद्ध मुण्डों ने बिरसा को आशीर्वाद दिया और सफलता की कामना की।वे नेगफेनी और दूसरे महत्वपूर्ण स्थानों पर भी गए।

जगह-जगह गुप्त सभाएं कर मुण्डों को विद्रोह के लिए तैयार किया जाने लगा। विद्रोह की तैयारी के लिए वे महारानी विक्टोरिया का पुतला बनाकर उसपर तीरन्दाजी का अभ्यास करते।[vii]

 

बिरसा ने ज़मींदारों तथा अंगरेज सरकार के खिलाफ विद्रोह  का बिगुल फूंका

 

1899 के अन्त में बिरसा फिर खुलकर चलने फिरने लगे। वे और उनके अनुयायी चारों तरह घूम-घूम कर लोगों को ज़मींदारों तथा अंगरेज सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के लिए तैयार करने लगे। उनके प्रचार का आम जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ा। वह ज़मींदारों  और अंगरेजों में लोहा लेने के लिए उतावली हो गयी।

1899 के क्रिसमस के दिन उन्होंने आक्रमण शुरू किया। उनका पहला लक्ष्य ईसाई बने मुण्डों को आतंकित करना और अंगरेजों के खिलाफ खड़ा करना था।

खुन्ती, तमार, बसिया और रांची के स्थानों में कितने ही स्थानों में उन्होंने हमले किए गए। उनका यह लक्ष्य धीरे-धीरे पूरा होने लगा। इसके बाद उन्होंने घोषणा की कि उनके वास्तविक शत्रु साहब लोग और अंगरेज सरकार है। इसलिए जो मुण्डे है, चाहे वे ईसाई हों या अन्य, किसी पर हमला न किया जायगा।[viii]

 

जनवरी 1900 को सारे मुण्डा अंचल में विद्रोह फैल गया।  बिरसा अनुयायियों ने खन्ती थाने पर हमला किया, उसकी इमारत का एक हिस्सा जला दिया, एक कान्सटेबल को मार डाला और कुछ स्थानीय बनियों के फूस के घरों में आग लगा दी।[ix]

 


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और अंत बिरसा मुण्डा का

कमिश्नर फारबेस और डिपुटी कमिश्नर स्ट्रीटफील्ड डोरण्ड स्थित पैदल सेना के जवान खुन्ती गये। जहाँ डुमरी पहाड़ी में बिरसापंथियों से मुठभेड़ हुई। उनके आत्मसमर्पण के हुक्म को बिरसापंथियों ने घृणा से साथ ठुकरा दिया। इस पर उन्होंने पहा़डी पर हमला किया और दस मुण्डों को मार दिया और कुछ घायल हुए। [x] इस घटना से इस विद्रोह की रीढ़ टूट गई। बिरसा की दैवी शक्ति में कितने ही मुण्डों का विश्वास जाता रहा।

 

अंगरेज सरकार के हुक्म से फौज की दो टुकड़ियाँ रांची के विद्रोह अंचलों का और एक टुकड़ी सिंहभूम के विद्रोही अंचल में गश्त लगाने लगी। 25 जनवरी तक फौजी कार्रवाई समाप्त हो गयी और सेना की सहायता की पुलिस को जरूरत न रह गयी। सिर्फ कुछ चौकियों पर पहरा देने के लिए फौज रखी गयी।

 

3 फरवरी 1900 को खुद बिरसा सिंहभूम में गिरफ़्तार कर लिए गये और रांची जेल में रखे गये। उन पर और उनके खास 482 साथियों पर मुक़दमा चलाया गया। मुक़दमा चलने के दौरान ही इसी जेल में 1 जून 1900  को हैजे से बिरसा की मृत्यु हो गयी। 3 बिरसापंथियों को मृत्यु दंड दिय गया, 44 को कालापानी और 49 को कड़ी सज़ा मिली।

 

इस मुक़दमे के एक औरत को भी दो साल की कड़ी सज़ा दी गई थी। उसका नाम मनकी था और वह क्या मुण्डा की पत्नी थी। उस पर आरोप था कि उसने डिपुटी कमिश्नर पर आक्रमण में सक्रिय हिस्सा लिया था।

 

देश के समाचार पत्रों ने उस वक़्त बिरसापंथियों के पक्ष में अपनी आवाज बुलन्द की थी। उस वक़्त के प्रमुख राष्ट्रीय नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कलकत्ते के प्रमुख पत्र ‘बंगाली’ में बिरसापंथियों के समर्थन में लिखा था।


संदर्भ

 

[i] बिहार डिस्ट्रक्ट गजेटियर्स, रांची, पेज 70 और 1958, पृ 100-101

[ii] बिहार डिस्ट्रक्ट गजेटियर्स, रांची, पेज 70 और 1958, पृ 100

[iii] बिहार डिस्ट्रक्ट गजेटियर्स, रांची, पेज 70; सिंहभूमि पृ 66

[iv] बिहार डिस्ट्रक्ट गजेटियर्स, रांची, पेज 70

[v] वही पेज 80

[vi] वही पेज 81

[vii] वही पेज 81

[viii] वही पेज 81

[ix]वही पेज  81

[x] वही पेज  81

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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