काकोरी कांड के शहीद-रामप्रसाद बिस्मिल
रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने क्रांतिकारी दल के समक्ष आर्थिक संकट के समस्या के निपटने के लिए अपने साथियों के साथ डकैत का रूप धारण करने ट्रेन लूटने का फैसला किया, यह घटना काकोरी केस के नाम से प्रसिद्ध हुई। रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा, डां विश्वमित्र उपाध्याय से काकोरी की घटना, गिरफ्तारी के अंश-
रामप्रसाद बिस्मिल ने किया था कांकोरी कांड का नेतृत्व
उस समय से बस एक ही धुन सवार थी। तुरंत स्थान पर जाकर टाइम-टेबुल देखकर अनुमान किया कि सहारनपुर से गाड़ी चलती है, लखनऊ तक अवश्य दस हज़ार रुपये रोज की आमदनी होती होगी। सब बातें ठीक करके कार्यकर्ताओं का संग्रह किया।
दस नवयुवकों को लेकर विचार किया कि किसी छोटे स्टेशन पर जब गाड़ी खड़ी हो, स्टेशन के तारघर पर अधिकार कर लें, और गाड़ी का संदूक उतारकर तोड़ डालें, जो कुछ मिले उसे लेकर चल दें, परंतु इस कार्य में मनुष्यों की अधिक संख्या की आवश्यकता थी। इस कारण यहीं निश्चय किया कि गाड़ी की जंजीर खींचकर चलती गाड़ी को खड़ा करके लूटा जाए।
संभव है कि तीसरे दर्जे की जंजीर खींचने से गाड़ी खड़ी न हो, क्योंकि तीसरे दर्जे में अक्सर प्रबंध ठीक नहीं रहता है। इस कारण से दूसरे दर्जे की जंजीर खींचने का प्रबंध किया। सब लोग उसी ट्रेन में सवार थे। गांड़ी खड़ी होने पर सब उतरकर गार्ड के डिब्बे के पास पहुंच गए। लोहे का संदूक उतारकर छेनियों से काटना चाहा, छेनियों ने काम न किया, तब कुल्हाड़ा चला।
कांकोरी के लूट में ट्रेन ने मुसाफिरों ने किया था शांतिपूर्ण सहयोग
मुसाफिरों से कह दिया कि सब गाड़ी में चढ़ जाओं। गाड़ी का गार्ड गाड़ी में चढ़ना चाहता था, पर उसे जमीन पर लेट जाने की आज्ञा दी, ताकि बिना गार्ड के गाड़ी न जा सके। दो आदमियों को नियुक्त किया कि वे लाइन की पगड़ंडी को छोड़कर घार में खड़े होकर गाड़ी से हटे हुए गोली चलाते रहें।
एक सज्जन गार्ड के डिब्बे से उतरे। उनके पास भी माउजर पिस्तौल था। विचारा कि ऐसा शुभ जाने कब हाथ आए। माउजर पिस्तौल काहे को चलाने को मिलेगा? उमंग हो आई सीधा करने दागने लगे। मैंने जो देखा तो डांटा, क्योंकि गोली चलाने की उनकी डूयूटी ही नहीं थी। यदि कोई मुसाफिर कोतूहल-वश बाहर निकले तो उसके गोली जरूर लग जाए।
हुआ भी यह, जो व्यक्ति रेल से उतरकर अपनी स्त्री के पास जा रहा था, मेरा ख्याल है कि उन्हीं महाशय की गोली उसको लग गई, क्योंकि जिस समय यह महाशय संदूक नीचे डालकर गार्ड के डिब्बे से उतरे थे, केवल दो-तीन फायर हुर थे।
उसी समय स्त्री ने कोलाहल किया होगा और उसका पति उसके पास जा रहा था, जो उक्त महाशय की उमंग का शिकार हो गया। मैंने यथाशक्तिपूर्ण प्रबंध किया था कि जब तक कोई बंदूक लेकर सामना करने न आए, या मुकाबते में गोली न चले तब तक किसी आदमी पर फायर न हो पाए।
मैं नर-हत्या करने डकैती को भीषण रूप देना नहीं चाहता था। फिर भी मेरा कहा न मानकर अपना काम छोड़ गोली चला देने का यह परिणाम हुआ। गोली चलाने की ड्यूटी जिनको मैंने दी थी वे बड़े दक्ष तथा अनुभवी मनुष्य थे, उनसे भूल होना असंभव था। उन लोगों को मैंने देखा कि वे अपने स्थान से पांच मिनट बाद पांच फायर करते थे। यहीं मेरा आदेश था।
संदूक तोड़कर तीन गठरियों में थैलियाँ बांधी। सबने कई बार कहा –देख लो कोई सामान रह तो नहीं गया। इसपर भी एक महाशय चद्दर डाल आए। रास्ते में थैलियों में से रुपया निकालकर गठरी बांधी और उसी समय लखनऊ शहर में आ पहुँचे।
किसी ने पूछा भी नहीं, कौन हो, कहाँ से आए हो? इस प्रकार दस आदमियों ने एक गाड़ी को रोककर लूट लिया। उस गाड़ी में चौदह मनुष्य ऐसे थे,जिनके पास बंदूक या रायफले थी। दो अंग्रेज सशस्त्र फौजी जवान भी थे, पर सब शांत रहे।
ड्राइवर महाशय तथा एक इंजीनियर महाशय दोनों का बुरा हल था। वे दोनों अंग्रेज थे। ड्राइवर महाशय इंजने में लेटे रहे। इंजीनियर महाशय पाखाने में जा छिपे। हमन कहा दिथा कि मुसाफिरों से कुछ न कहेंगे सिर्फ सरकार का माल लूटेंगे। इस कारण मुसाफिर भी शांतिपूर्वक बैठे रहे।
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कांकोरी कांड के वज़ह से मच गई थी हड़कंप
केवल दस युवकों ने इतना बड़ा आतंक फैला दिया। साधारणत: इस बात पर बहुत से लोग विश्वास करने में भी संकोच करेंगे कि दस नवयुवकों ने गाड़ी खड़ी करके लूट ली। जो भी हो वास्तव में बात यही थी। इन दस कार्यकर्ताओं में अधिकतर ऐसे थे जो आयु में लगभग बाईस वर्ष के होंगे और जो शरीर से बड़े पुष्ट भी न थे।
इस सफलता को देखकर मेरा साहस बहुत बढ़ गया। मेरे जो विचार था, वह अक्षरक्ष: सत्य सिद्ध हुआ। पुलिस वालों की वीरता का मुझे अंदाजा था। इस घटना से भविष्य के कार्य की बहुत बड़ी आशा बंध गई। नवयुवकों का भी उत्साह बढ़ गया।
जितना कर्जा था निपटा दिया। अस्त्रों की खरीद के लिए लगभग एक हज़ार रुपये भेज दिए। प्रत्येक केंद्र के कार्यकर्ताओं को यथास्थान भेजकर दूसरे प्रांतों में भी कार्य विस्तार करने का निर्णय करके कुछ प्रबंध किया। एक युवक दल ने बम बनाने का प्रबंध किया, मुझसे भी सहायता चाही, मैने आर्थिक सहायता देकर अपना एक सदस्य भेजने का वचन दिय।
कुछ त्रुटियाँ हुई और संपूर्ण दल अस्त-व्यस्त हो गया
मैं इस विषय में कुछ भी न जान सका कि दूसरे देश के क्रांतिकारियों ने प्रारंभिक अवस्था में हम लोंगों के भांति प्रयत्न किया या नहीं। यदि पर्याप्त अनुभव होता तो इतनी साधारण भूलें न करते। त्रुटियों के होते हुए भी कुछ भी न बिगड़ता और न कुछ भेद खुलता, न इस अवस्था को पहुंचते, क्योंकि मैंने जो संगठन किया था उसमें किसी ओर से मुझे कमजोरी न दिखाई देती थी।
कोई भी किस प्रकार की त्रुटि न समझ सकता था। इसी कारण आंख बंद किए बैठे रहे। किन्तु आस्तीन में सांप छिपा हुआ था, ऐसा गहरा मुंह मारा कि चारों खाने चित्त कर दिया।
जिन्हें हम हार समझे थे गला अपना सजाने को,
वही अब नाग बन बैठे हमारे काट खाने को।
नवयुवकों में आपस की होड़ के कारण बहुत विवाद तथा कलह भी हो जाती थी, जो भयंकर रूप धारण कर लेती। मेरे पास जब मामला आता तो मैं प्रेमपूर्वक समिति की दशा को देखकर, सबको शांत कर देता। कभी नेतृत्व को लेकर वाद-विवाद चल जाता।
एक केंद्र के निरीक्षक से वहाँ के कार्यकर्त्ता अत्यंत असंतुष्ट थे। क्योंकि निरीक्षक से अनुभवहीनता के कारण कुछ भूलें हो गई थीं। यह अवस्था देख मुझे बड़ा खेद और आश्चर्य हुआ, क्योंकि नेतागिरी का भूत सबसे भयानक होता है।
जिस समय से यह भूत खोपड़ी पर सवार होता है, उसी समय से सब काम चौपट हो जाता है। केवल एक-दूसरे के दोष देखने में समय व्यतीत होता है और वैमनस्य बढ़ने से बड़े भयंकर परिणाम होते हैं। इस प्रकार के समाचार सुनकर मैंने सबको एकत्रित किया और खूब फटकरा।
सब अपनी त्रुटि समझकर पछताए और प्रीतिपूर्वक आपस में मिलकर कार्य करने लगे। पर ऐसी अवस्था हो गई थी कि दलबंदी की नौबत आ गई ही। इस प्रकार से तो दलबंदी हो ही गई थी। पर मुझ पर सब की श्रद्धा थी और मेरी याय को सब मान लेते थे। सब कुछ होने पर भी मुझे किसी ओर से किसी प्रकार का संदेह न था। किंतु परमात्मा को ऐसा ही स्वीकाअर था, जो इस अवस्था का दर्शन करना पड़ा।
रामप्रसाद बिस्मिल और साथियो की गिरफ़्तारी
काकौरी डकैती होने के बाद से ही पुलिस बहुत सचेत हुई। कई मित्रों ने मुझे कहा भी कि सतर्क रहो। रात्रि के समय ग्यारह बजे के लगभग एक मित्र के यहाँ से अपने घर पर गया। रास्ते में खुफिया पुलिस के सिपाहियों से भेंट हुई। कुछ विशेष रूप से उस समय भी वे मेरी देखभाल कर रहे थे।
मैंने कोई चिंता न की और घर पर जाकर सो गया। प्रात:काल चार बजने पर जगा, शौचादि से निवृत्त होने पर बाहर द्वार पर बंदूक के कुंदों का शब्द सुनाई दिया। मैं समझ गया कि पुलिस आ गई है। मैं तुरंत द्वार खोलकर बाहर गया। एक पुलिस अफसर ने बढ़कर हाथ पकड़ लिया। मैं गिरफ़्तार हो गया।
मैं केवल एक अंगोछा पहने हुए था। पुलिस वाले को अधिक भय न था। पूछा कि घर में कोई अस्त्र हो, तो दे दीजिए। मैंने कहा कोई आपत्तिजनक वस्तु घर में नहीं। उन्होंने बड़ी सज्जनता की । मेरे हथकड़ी आदि न डाली। मकान की तलाशी लेते समय एक पत्र मिल गया, जो मेरी जेब में था कुछ होनहार कि तीन-चात पत्र मैंने लिखे थे। डाकखाने में डालने को भेजे, तब तक डाक निकल चुकी थी।
मैंने वे इस ख्याल से अपने पास ही रख लिए कि डाक के डब्बे में डाल दूंगा। उन्हीं में एक पत्र आपत्तिजनक था, जो पुलिस के हाथ लग गया। गिरफ़्तार होकर पुलिस कोतवाली पहुँचा। वहाँ पर खुफिया पुलिस के एक अफसर से भेंट हुई उस समय उन्होंने कुछ बारें कीं, जिन्हें मैं या एक व्यक्ति जानता था। कोई तीसरा व्यक्ति इस प्रकार से ब्यौरेवार नहीं जान सकता था। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।
क्रांतिकारी दल की निष्ठा न मिट जाए इसलिए बिस्मिल ने समर्पण का विचार छोड़ दिया
एक बार विचार हुआ कि सरकार से समझौता कर लिया जाए। किंतु यह सोचकर कि क्रांतिकारी दल की निष्ठा न मिट जाए, यह विचार छोड़ दिया।
मैंने जेल से भागने के अनेक प्रयत्न किए, किंतु बाहर से कोई सहायता न मिल सकी। यदि तो हृदय पर आघात जैसा था कि किस देश में मैने इतना बड़ा क्रांतिकारी आंदोलन तथा षड्यंत्रकारी दल खड़ा किया था, वहाँ से मुझे प्राण-रक्षा के लिए एक रिवाल्वर तक न मिल सका। एक नवयुवक भी सहायता को न आ सका।
अंत में फांसी पा रहा हूँ फांसी पाने का मुझे कोई शौकभी नहीं, क्योंकि मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि परमात्मा को यहीं मंज़ूर था।
मैं नवयुवकों से फिर भी नम्र निवेदन करता हूँ कि जब तक भारतवासियों की अधिक संख्या सुशिक्षित न हो जए, जब तक उन्हें कर्तव्य का ज्ञान न हो जाए, तब तक वे भूलकर भी किसी प्रकार के क्रांतिकारी संगठन में भाग न ले। यदि देश सेवा की इच्छा हो तो खुले आंदोलनों द्वारा यथाशक्ति कार्य करें, अन्यथा उनका बलिदान उपयोगी न होगा।
देशवासियों से यहीं अंतिम विनय है कि जो कुछ करें, सब मिलकर करें और सब देश की भलाई के लिए करें। इसी से सबका भला होगा।
संदर्भ
रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा, डां विश्वमित्र उपाध्याय,राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, जनवरी 1994
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में