अंग्रेज़ों और ज़मींदारों के विरूद्ध शमशेर ग़ाज़ी का विद्रोह
त्रिपुरा के शमशेर ग़ाज़ी का विद्रोह किसानों का संगठित विद्रोह था जिसका चरित्र सन्यासी विद्रोह से बिल्कुल अलग था। किसानों का यह विद्रोह एक तरफ सामन्तशाही के खिलाफ था और दूसरी तरफ फिंरंगी लुटेरों के खिलाफ, जिन्होंने देश के पूर्वाचल में अपने पैर जमा लिये थे।
इन विद्रोह का केन्द्र त्रिपुरा जिले का रोशनाबाद परगना था जो अब बांग्लादेश में है। त्रिपुरा की सीमा के पास स्थित शमशेरनगर आज भी इस विद्रोह के सुयोग्य नेता की याद दिलाता है।
ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बंगाल,बिहार और ओड़िसा की दीवानी संभालते ही रोशनाबाद परगने का लगान बढ़ा दिया। जिससे किसानों का दोहरा शोषण शुरू हुआ। एक तरफ ज़मींदार और सामन्त चूसते और दूसरी तरफ ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके असफर। इसका परिणाम यह हुआ कि बहुत से किसान घर-द्वार छोड़कर जंगल भाग गये, बहुतों ने स्त्री-पुत्र-पुत्री को धनियों के हाथ बेच दिया और खुद अपने को बेचकर अभागे दासों की संख्या बढ़ायी।
बचपन में शमशेर ग़ाज़ी के पिता ने शक्तिशाली ज़मींदार को बेच दिया
शमशेर ग़ाज़ी के पिता के साथ भी यहीं हुआ। वे एक गरीब किसान थे। परिवार के भरण-पोषण में असमर्थ होकर उन्होंने अल्पायु पुत्र शमशेर को त्रिपुरा राज्य के अधीन दक्खिनसिक के शक्तिशाली जमींदार नासिर मुहम्मद के हाथ बेच दिया। शमशेर जब बड़े हुए, उनकी असाधारण शारीरिक शक्ति और तीक्ष्ण बुद्धि ने जमीदार को प्रभावित किया। उसने उन्हें कूतघाट के तहसीलदार का काम सौंपा।
शमशेर बचपन से ही देखते आ रहे थे कि किसानों पर ज़मींदारों और अंगरेज शासकों का अत्याचार किस तरह चलता है। वे किसानों की दुर्दशा से अच्छी तरह परिचित थे। उन्होंने किसानों को अत्याचार और शोषण के कारण अपने घर-द्वार बेचते और जंगल में भागकर शरण लेते देखा था।
उन्होंने अपनी आंखों से किसानों के बाल-बच्चों को बिकते और गुलाम होते देखा था। वे खुद भी भुक्तभोगी थे। कूतघाट आकर उन्होंने किसानों की दुर्दशा और भी देखी। उन्होंने अनुभव किया कि इससे मुक्ति के लिए किसानों को खुद ही प्रयास करना होगा और यह प्रयास बिना संगठित शक्ति के नहीं किया जा सकता। इसलिए उन्होंने साहसी और बलवान नौजवानों का दल धीरे-धीरे गठित किया।
शमशेर ग़ाज़ी ने संगठित किया किसानों को
इसके बाद शमशेर, एक दिन ज़मींदार के यहाँ पहुंचे और मांग कि वह अपनी लड़की का विवाह उनके साथ कर दे। ज़मींदार की लड़की एक जरखदीन गुलाम के साथ! यह सुनते ही ज़मींदार आग बबूला हो उठा। उसने शमशेर को उचित दण्ड देने की व्यवस्था की। मुसीबत देखकर शमशेर वहां से भाग निकले।
उन्होंने सशस्त्र विद्रोह की तैयारी की। शमशेर के विद्रोह की कहानी आग के तरह फैल गई। हजारों गरीब किसान, हिन्दू और मुसलमान उनकी फौज में भरती हो गये। घने जंगल के अंदर शमशेर ने उन्हें विभिन्न अस्त्रों का प्रयोग करना सिखाया। इस सेना को साथ लेकर उन्होंने ज़मींदार नासिर मुहम्मद पर चढ़ाई की। ज़मींदार और उसके पुत्रों ने मुकाबला किया और मारे गये। शमशेर ने ज़मींदार की लड़की के साथ विवाह किया।[i]
त्रिपुरा के राजा को विद्रोह का समाचार मिला। उसने अपने मंत्री को सेना के साथ विद्रोह का दमन करने भेजा। विद्रोहियों ने राजा की सेना को बुरी तरह पराजित किया। इस हार के बाद मंत्री ने शमशेर को त्रिपुता के राज्य के अधीन दक्खिनसिक परगने का ज़मींदार मान लिया।[ii]
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लेकिन त्रिपुरा राज्य के अधीन रहकर शहशेर वह न कर सकते थे, जो किसानों और गुलामों के लिए करना चाहते थे। इसलिए शीघ्र ही उन्होंने त्रिपुरा राज्य का राजस्व देना बंद कर दिया और अपने को रोशनाबाद चकले का स्वाधीन राजा घोषित कर दिया। इस अंचल के हिन्दू-मुसलमान उनके झंडे के नीचे इकठ्ठा हुए, शमशेर को अपना राजा अपना नेता मान लिया।
स्वाधीनता की रक्षा के लिए विद्रोही किसानों को सेना में भरती किया
शमशेर जानते थे कि स्वाधीनता की रक्षा करना सहज न होगा। इसलिए उन्होंने फौरन सेना और अस्त्र-शस्त्र इकट्ठा करना शुरू कर दिया। इसी बीच त्रिपुरा के राजा मणिक्य की मृत्यु हो गयी।
उत्तराधिकार के लिए राज परिवार में झगड़ा होने लगा। शमशेर को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला। विद्रोही किसानों से छांट-छांटकर उन्होंने हजारों जवान अपनी सेना में भरती किये। उन्हें सभी प्राप्त अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग की शिक्षा दी।
त्रिपुरा के युवराज कृष्ण माणिक्य ने इस विद्रोह का दमन करने के लिए कई बार सेना भेजी, किन्तु बार-बार हारकर वह वापस आयी। शमशेर ने आखिर रक्षात्मक युद्ध के कौशल को छोड़कर आक्रमणात्कम कौशक का सहारा लिया। उन्होंने उस वक्त त्रिपुरा राज्य की राजधानी उदयपुर पर आक्रमण किया।
भयंकर युद्ध में त्रिपुरा की सेना पराजित हुई। कृष्ण माणिक्य बची सेना और परिवार को लेकर राजधानी छोड़कर भागें तथा अगरतल्ला में शरण ली, जो त्रिपुरा की वर्तमान राजधानी है। विद्रोहियों ने उदयपुर पर अधिकार किया, उसे लूट लिया।
अगरतल्ला में आश्रय ग्रहण कर कृष्ण माणिल्य ने फिर विद्रोहियों का दमन करने की कोशिश की। बार-बार असफलता ही हाथ लगने पर उन्होंने पहाड़ के कूकियों की सहायता ली। परंतु, फिर भी उन्हें सफलता नहीं मिली। उस समय के हालात को देख-समझकर कूकियों ने भी शमशेर को अपना राजा मान लिया और कृष्ण माणिल्य का साथ नहीं दिया।[iii]
नई राजस्व व्यवस्था कायम की
स्वाधीनता के घोषणा के बाद शमशेर ग़ाज़ी ने राज्य के सभी ग़रीबों को, यहाँ तक कि ग़ुलामों को भी बिना मूल्य भूमि दी। उन्होंने ऐसी राजस्व व्यवस्था प्रचलित की जिसमें ग़रीबों को कोई भी टैक्स नहीं देना पड़ता था।[iv]
समतल क्षेत्र के प्रत्येक परगने के लिये शमशेर ने एक शासक नियुक्त किया। इनमें हिन्दू-मुसलमान दोनों थे। धर्मपुर के निवासी गंगागोविन्द उनके दीवान और खण्डल निवासी हरिहर उनके नायब दीवान थे। इन पर राजस्व का भार था।[v]
शमशेर ने प्रजा की भलाई के लिए बहुत से काम किये। बहुत से गांवों में तालाब खुदवाये। उन सार्वजनिक कार्यों के लिए राजस्व काफी न था। इसलिए वे त्रिपुरा, नोआखली और चटगांव के अंगरेज अधिकृत अंचल पर धावा करते और वहां के ज़मींदारों का खज़ाना लूट लाते। शमशेर की जीवनी के रचयिता शेख मनोहर ने लिखा है:
शमशेर एक कृपण ज़मींदार के घर डकैती कर एक लाख रुपया ले आये थे, क्योंकि उक्त ज़मींदार दान-खैरात कुछ न करता। इसलिए उनके घर डकैती की गयी।[vi]
इसकी पुष्टि करते हुए नोआखाली ज़िला गजेटियर में लिखा गया है:
शमशेर समय-समय पर धनी व्यक्तियों का घर लूटकर उस धन को ग़रीबों में बांट दिया करते थे।[vii]
शमशेर ने जब विद्रोह किया था, उस वक़्त चारों तरफ अराजकता फैली हुई थी। इस अराजकता से नाजायज़ फायदा उठाकर व्यापारी आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ सकते थे। इसे रोकने के लिए शमशेर ने व्यवस्था की। उन्होंने हर वस्तु दर की तालिका प्रत्येक बाजार में लटकवा दी। जो इस दर से ज्यादा कीमत लेना चाहता, उसे कड़ा दंड दिया जाता।
नवाब मीरकासिम के साथ युद्ध में शमशेर शहीद हुए
शमशेर के विद्रोह का दमन करने में असर्मथ होकर युवराज कृष्ण माणिक्य ने बंगाले के नवाब मीरजाफर के पुत्र मीरकासिम की शरण ली और सहायता की प्रार्थना की। नवाब ने कृष्ण माणिक्य को त्रिपुरा का राजा स्वीकार किया और ईस्ट इंडिया कंपनी मदद से खड़ी गयी बड़ी सेना को विद्रोह का दमन करने भेजा।
तोपों –बन्दूकों से लैस सुशिक्षित और विशाल सेना का मुकाबला शमशेर की सेना के लिए मुश्किल था। वे बहादुरी से लड़े जरूर, पर पराजित हुए। उनको कैद कर मुर्शिदाबाद लाया गया और 1768 के अंत में नवाब के हुक्म से उन्हें तोप के मुंह से बांधकर उड़ा दिया गया।[viii]
संदर्भ
[i] कैलाशचंद्र सिंह, त्रिपुरा का इतिहास(बंगला) पेज 457
[ii] कैलाशचंद्र सिंह, वही, 122, डिस्ट्रिक गजेटियर पेज नं 23
[iii] कैलाशचंद्र सिंह, वही, 122, डिस्ट्रिक गजेटियर पेज नं 23
[iv]कैलाशचंद्र सिंह, वही, 123, डिस्ट्रिक गजेटियर पेज नं 23
[v] कैलाशचंद्र सिंह, वही, 126, डिस्ट्रिक गजेटियर पेज नं 23
[vi] शेख मनोहर, शमशेर गाजीर जीवनचरित्र पे ज नं 31,
[vii] कैलाशचंद्र सिंह, वही, 122, डिस्ट्रिक गजेटियर पेज नं 23
[viii] शेख मनोहर, शमशेर गाजीर जीवनचरित्र पे ज नं 51
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