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बाल गंगाधर तिलक का राष्ट्रवाद क्या था

राष्ट्रवाद के बहसों में एक साथ कई प्रश्न एक-दूसरे से टकराते है और वैचारिक बहस को पब्लिक स्फीयर में बिखेर देते है। मसलन क्या है राष्ट्रवाद और क्या नहीं है राष्ट्रवाद? अच्छा राष्ट्रवाद कौन-सा है और इसको बुरा क्यों समझा जाता है? सरकार के पक्ष के विपरीत राय रखना क्यों राष्ट्रवाद विरोधी है और सरकार के पक्ष में अपनी राय रखना क्यों राष्ट्रवाद का पुरोधा हो जाना है?

इतिहासकार एस. इरफ़ान हबीब भारतीय राष्ट्रवाद एक अनिवार्य पाठ किताब, राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है में, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से भारत में राष्ट्रवाद के उदय, विकास और इसके विभिन्न रूपों और चरणों की पड़ताल स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रमुख नेताओं और चिन्तकों के लेख और भाषण-अंश काफ़ी तलाश के बाद एकत्रित किए हैं जो स्पष्ट करते हैं कि आज़ादी के संघर्ष में देश को रास्ता दिखाने वाले और आज़ादी के बाद भी राष्ट्र की दशा-दिशा पर ईमानदार निगाह रखने वाले इन नेताओं की नज़र में राष्ट्रवाद क्या था। यह किताब हमें बताती है कि आज की परिस्थितियों में हम राष्ट्रवाद को कैसे समझें और कैसे उसे आगे बढ़ायें ताकि एक सर्वसमावेशी, स्वतंत्र और मानवीय राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया बिना किसी अवरोध के जारी रह सके। –

 

धर्म केन्द्रित राष्ट्रवाद

उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध  राष्ट्रवाद की व्याख्या हेतु धर्म और संस्कृति के महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उद्भव का गवाह है। धार्मिक और ऐतिहासिक चरित्रों का इस्तेमाल राजनीतिक गोलबंदी के लिए किया गया। इस प्रकार के राष्ट्रवाद के कारण भारतीयों का एक बड़ा तबका उपेक्षित महसूस कर रहा था।

यह राष्ट्रवाद कुछ पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियों से भी निकटता से जुड़ा हुआ था, जहाँ भारत की परिकल्पना में धर्म ने केंद्रीय स्थान हासिल कर लिया था। यह हिंदू धार्मिक प्रतीकों के साथ-साथ इतिहास के पाठ में भी परिलक्षित हुआ। मुस्लिमों के बीच भी ऐसे ही रुझान थे, जो इस्लामी राष्ट्रवाद के रूप में आरम्भ हुए, लेकिन जिनका अंत द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के आधार पर राष्ट्र के विभाजन के रूप में हुआ।

 

 सबसे प्रतिष्ठित राष्ट्रवादियों में से एक बाल गंगाधर तिलक  जिनकी प्रसिद्ध उक्ति है – स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर रहूँगा. उन्होंने दक्कन कॉलेज से पढ़ाई की जहाँ मराठी, संस्कृत और अंग्रेजी का एक मज़बूत आधार बना.

अपने मित्र गोपाल गणेश अगरकर के साथ तिलक ने 1884 में दक्कन एजुकेशन सोसायटी बनाई लेकिन राजनीति में और अधिक प्रत्यक्ष भागीदारी के लिए जल्दी ही इसे छोड़ दिया.  वह महिलाओं की शिक्षा के सम्बन्ध में अगरकर के अधिक प्रगतिशील विचारों से असहमत थे और महिलाओं को मुख्यतः गृहणी के रूप में ही देखते थे.

 

तिलक का आरम्भिक मुख्य कार्य वेदों की प्राचीनता को स्थापित करना और यह सिद्ध करना था कि जब बाक़ी दुनिया, ख़ासतौर पर योरोपीय अभी बर्बर ही थे, भारतीय सभ्य हो चुके थे. उनके राजनैतिक-सामाजिक जीवन के आरम्भिक दौर का अधिकतर हिस्सा हिन्दूवाद और यहाँ तक कि जातिवादी व्यवहारों के आक्रामक बचाव में सुधारवादियों के ख़िलाफ़ बहस-मुबाहिसे में गुज़रा.

 

राष्ट्रवाद के अगले महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं लाला लाजपत राय. अपने आरम्भिक जीवन में ही वह ब्रह्म समाज के प्रभाव में आ गए लेकिन वहाँ बहुत समय तक नहीं रुके. गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में उनकी दो उत्साही आर्यसमाजियों पण्डित गुरु दत्त विद्यार्थी और लाला हंसराज से दोस्ती हो गई जिन्होंने बाद में उनके जीवन को काफी निर्णायक रूप से प्रभावित किया.

लाजपत राय ने अपने रूपान्तरण के बारे लिखा है, ‘उस साल (1882) के आरम्भ में   स्वर्गीय पण्डित से मेरी दोस्ती निकटता में बदल गई. एक परिणाम यह था कि मेरा दृष्टिकोण राष्ट्रवादी होने लगा. उस आत्मा में, जिसे बचपन में इस्लाम सिखाया गया था और जिसके बालिग़ होने की शुरुआत ब्रह्म समाज में शरण ढूँढने में हुई थी,

अब गुरुदत्त और हंसराज की संगत में प्राचीन हिन्दू संस्कृति के प्रति प्रेम विकसित होने लगा.’ लाजपत राय द्वारा राष्ट्रवाद का सूत्रीकरण उनके जीवन के काफी आरम्भिक दौर में हुए इस परिवर्तन के रंग में रंगा था.

 

बिपिन चन्द्र पाल लाल-बाल-पाल की इस तिकड़ी के तीसरे सदस्य थे. वह एक आक्रामक राष्ट्रवाद के प्रणेता थे और क्रांतिकारी समूहों से जुड़े थे. पाल पूर्ण स्वराज्य तथा स्वदेशी के साथ-साथ विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के समर्थक थे.

 

हिन्दू राष्ट्रवाद की उनकी व्याख्या अधिक दार्शनिक थी जो इस खंड में शामिल किये गए दो उद्धरणों से स्पष्ट रूप से सामने आती है. अरबिंदो ने उन्हें ‘राष्ट्रवाद के सबसे शक्तिशाली पैगम्बरों’ में से एक कहा था.

अरबिंदो घोष ख़ुद भी इस काल के एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे और उन्होंने राष्ट्रवाद तथा धर्म की भूमिका पर विस्तार से लिखा और कहा.  उनके पिता पूरी तरह से अंग्रेज़ीदां चिकित्सक थे जिन्होंने अरबिंदो और उनके दो भाइयों को मिशनरी स्कूलों में पढ़ने भेजा. बाद में अरबिंदो उच्च शिक्षा के लिए लन्दन गए. वह बडौदा के महाराजा के प्रशासन में काम करने के लिए 1893 में भारत लौटे लेकिन जल्द ही राजनीति में रुचि लेने लगे.

उन्होंने कोलकाता में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी संघर्ष शुरू करने के लिए गोपनीय सभाएँ स्थापित कीं. 1905 के बाद अरबिंदो घोष ने योग करना आरम्भ कर दिया और आध्यात्मिक हिन्दूवाद में गहरी रुचि लेने लगे.  उनका राष्ट्रवाद आध्यात्मिक हिन्दूवाद की और झुका है जैसा कि इस संकलन में शामिल उनके लेखों से प्रतिबिम्बित होता है.

 

मौलाना हुसैन अहमद मदनी इस बात पर जोर देते हुए किए इस्लाम क्षेत्रीय  राष्ट्रवाद के विचार के साथ सुसंगत है,  राष्ट्रवाद की बहस में मिले-जुले प्रणेता के रूप में शामिल हुए.  मदनी ने 18 वर्ष मदीना में अरबी व्याकरण और अन्य इस्लामी विज्ञान पढ़ाते हुए बिताए.

 

उन्हें आज़ादी की लड़ाई में उनके गुरु मौलाना महमूद हसन ले आए जो राजनीति और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति समर्पित थे. मदनी का मानना था कि राष्ट्रों और राष्ट्रवाद को धर्म या नस्लीयता की नहीं,  एक  वतन की ज़रुरत है. वह मिले-जुले राष्ट्रवाद के प्रति समर्पित रहे और मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्र सिद्धांत के मुखालिफ़ रहे

 

मदनी के मिले-जुले राष्ट्रवाद के विचार को सर मुहम्मद इक़बाल ने प्रश्नांकित किया, जिसके परिणामस्वरूप उन दोनों के बीच एक अविरत बहस शुरू हुई.इक़बाल को पाकिस्तान के विचार के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है. इसलिए पाकिस्तान में उन्हें इस्लामी राष्ट्र के महान राजनैतिक विचारक के रूप में सम्मान मिलता है.

 

हालाँकि भारत में ‘सारे जहाँ से अच्छा’ के साथ इक़बाल मिले-जुले राष्ट्रवाद के सर्वश्रेष्ठ प्रतीक हैं और ऐसे व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं जिसने इस्लाम में क्षेत्रीय राष्ट्रवाद के मूल आधार को प्रश्नांकित किया. इक़बाल ने बड़े प्रभावशाली ढंग से  राष्ट्रवाद के विचार को ही एक पश्चिमी अवधारणा बताया जिसे इस्लाम में कोई स्वीकृति नहीं मिली है.

 

इक़बाल को पढ़ते हुए उनके राजनैतिक दर्शनों की अस्पष्टताओं के प्रति हमें सचेत रहने की आवश्यकता है.


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बाल गंगाधर तिलक एक हिन्दू राष्ट्र की तलाश में 

वैदिक काल में भारत एक आत्मनिर्भर देश था.यह एक महान राष्ट्र के रूप में संगठित था. वह एकता गायब हो गई जिसकी वजह से हमारा अधोपतन हुआ और यह नेताओं का कर्त्तव्य है कि उस एकता को पुनर्जीवित करें. इस स्थान का एक हिन्दू उतना ही हिन्दू है जितना मद्रास या बंबई का. संभव है आप अलग वेश पहनते हो, अलग भाषा बोलते हो,

लेकिन आपको याद रखना चाहिए कि वह आंतरिक भावना जो आप सबको संचालित करती है वह समान है.  गीता, रामायण और महाभारत के अध्ययन ने पूरे देश में समान विचार उत्पन्न करती है. क्या वेदों, गीता और रामायण के प्रति समान सम्बद्धता हमारी साझा विरासत नहीं है?. अगर हम विभिन्न पंथों में जो छोटे-मोटे अंतर हैं उन्हें भूलकर इस पर ज़ोर देंगे तो ईश्वर के सम्पूर्ण आशीर्वाद से हम विभिन्न पंथों को एक शक्तिशाली हिन्दू राष्ट्र में संगठित करने में सक्षम होंगे. यह प्रत्येक हिन्दू की महत्त्वाकांक्षा होनी चाहिए.

 

अगर आप एकता के लिए ऐसे काम करें तो आप पाएंगे कि कुछ वर्षों में ही पूरे देश में सभी लोगों को एक भाव और एक विचार प्रेरित तथा प्रभावित करेगा. यह वह काम है जो हमें करना होगा.  हमारे धर्म की वर्तमान स्थिति वह नहीं है जो कि वांछनीय है.  हम अपने आप को विभाजित महसूस करते हैं और एकता का वह भाव जो प्राचीन काल में हमारी प्रगति के मूल में था जा चुका है.

 

यह निश्चित रूप से एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हमारे बीच इतने खंड और उप-खंड हैं. यह भारत धर्म महामंडल जैसी संस्थाओं का कर्त्तव्य है कि उस खोई हुई तथा भुला दी गई एकता को पुनर्स्थापित करने के लिए काम करें. एकता के अभाव में भारत दुनिया के राष्ट्रों के बीच अपने स्थान का दावा नहीं कर पायेगा.

 

हमारे पास भव्य और अविनाशी प्रतिज्ञा है.  श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि जब भी धर्म का क्षय होता है वह इसकी पुनर्स्थापना करने धरती पर आते हैं. जब एकता के अभाव के कारण यहाँ क्षय होता है, जब अच्छे व्यक्तियों को सताया जाता है तो श्री कृष्ण हमारी रक्षा करने के लिए धरती पर आते हैं.  धरती पर हिन्दू धर्म के अलावा कोई ऐसा धर्म नहीं है जहाँ हमें ऐसी आशा से भरी प्रतिज्ञा मिलती है, एक प्रतिज्ञा कि जितनी बार आवश्यक होगा ईश्वर धरती पर आएँगे.

 

मोहम्मद के बाद किसी पैगम्बर की प्रतिज्ञा नहीं है और ईसामसीह सिर्फ़ एक बार के लिए आते. किसी धर्म के आशा से भरी ऐसी प्रतिज्ञा नहीं है.  यह वह कारण है जिसकी वजह से हिन्दू धर्म कभी ख़त्म नहीं होता. हम कभी नाउम्मीद नहीं होते. नास्तिकों को जो कहना है कहने दीजिये,

 

एक वक़्त आयेगा जब हमारी धार्मिक विचार और हमारे अधिकार सही साबित होंगे. हर व्यक्ति अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ कर रहा है और चूँकि यह संस्था अपना सर्वश्रेष्ठ कार्य कर रही है इसे अपने लक्ष्य तक ले जाने के लिए हर हिन्दू का स्वागत है. अगर हमें ऐसे पुरुष नहीं मिलते जो आगे आएँ तो हमें उम्मीद करनी चाहिए

अगली पीढ़ी में वे ऐसा नहीं करेंगे. हम कभी नाउम्मीद नहीं होते, कोई दूसरा धर्म हमसे प्राचीन नहीं है और श्री कृष्ण के पवित्र वचन के साथ हमारा धर्म सत्य पर आधारित है और सत्य कभी नहीं मरता.


https://thecrediblehistory.com/cultural-history/what-was-nehrus-idea-of-india/


 

पुनरुत्थानवाद और राष्ट्रीयता

 कुछ दिनों पहले टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में ‘हिन्दू राष्ट्रवाद के चरण’ शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ. यह स्पष्ट है कि यह उनमें से एक द्वारा लिखा गया है जिनका दिमाग आक्रामक सामाजिक सुधारों से ओत-प्रोत है और इसलिए यह बताने की कोशिश की गई है कि प्रतिक्रिया और पुनरुत्थानवाद की एक लहर इस देश के लोगों के बीच चल रही है जो धीमी गति से विकसित हो रहे राष्ट्रवाद के विचार को नुक्सान पहुँचा सकती है.

यह भय प्रकट किया गया था कि यदि पुनरुत्थानवाद को अपनी वर्तमान गति से विकसित होने दिया गया तो भारत में विभिन्न उप-राष्ट्रीयताओं के बीच की मौजूदा दरार और गहरी होगी देश की राजनैतिक स्थिति की उन्नति के लिए संयुक्त कार्यवाही का उद्देश्य बाधित होगा.

हम यह स्वीकार करते हैं कि हम ऐसा कुछ नहीं करणा चाहते हैं जो हमारे राजनैतिक आदर्श की सफलता की संभावनाओं को तनिक भी नुक्सान पहुँचाए ; लेकिन ठीक उसी समय  हमें यह भी घोषित करना चाहिए कि पुनरुत्थानवाद हमारे मस्तिष्क पर वैसी निराशाजनक छाया नहीं डालता जिसने, ऐसा लगता है कि टाइम्स के लेखक की दृष्टि को धुंधला कर दिया है.

हम पुनरुत्थानवाद के विरुद्ध जो तर्क दिया गया है उसे पूरी तरह समझते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि पुनरुत्थानवाद को उसके सामाजिक प्रभाव के संदर्भ में ग़लत समझा गया है. पुनरुत्थानवाद और सुधार के बीच तबसे संघर्ष चल रहा है जब हमारी सोशल कांफ्रेंस हुई, लेकिन इस झगड़े का अधिकतर हिस्सा एक रेडिकल ग़लतफ़हमी के कारण से ऊर्जा की बर्बादी को प्रदर्शित करता है.

दुर्भाग्य से, ऐसा प्रतीत होता है कि यह मान लिया गया है कि पुनरुत्थानवाद का उद्देश्य,  यहाँ तक कि हमारे मौजूदा वातावरण में भी एक ऐसे स्वर्ण युग की एकदम हू-ब-हू प्रतिकृति पैदा करना है, जिसे एकदम सटीक तरीके से लोकेट किया जा सके.

लेकिन इस तरह की मान्यता से पुनरुत्थानवाद के सिद्धांत के प्रति किये गए अन्याय की तुलना समाज सुधारकों के प्रति कुछ व्यक्तियों द्वारा किये गए सामान अन्याय के साथ ही की जा सकती है जहाँ उन्हें एक वर्ग के रूप में एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था के प्रति आसक्त दिखाया जाता है जो इतिहास के सभी पड़ावों से पूरी तरह कटी हुई होगी और जिसमें सामाजिक समस्याओं का निदान ठीक वैसे ही किया जा सकेगा जैसे वे किसी प्रयोगशाला के प्रयोग के नमूने हों.

 

बहरहाल, दोनों ही विचार वस्तुतः सही नहीं हैं. अगर यह सही है, जैसा कि स्वर्गीय श्री रानाडे ने कहा कि एक समाज सुधारक के पास लिखने के लिए खाली स्लेट नहीं होती, आपका स्वप्नदर्शी लगता हुआ पुनरुत्थानवादी कभी समाज को अपने सपनों के स्वर्णयुग में ले जाने की कभी उम्मीद नहीं कर सकता. शायद पुनरुत्थान का अर्थ है, हमारे उन धार्मिक रीति-रिवाज़ों और संस्थाओं को पुनर्जीवित करना जो कभी अस्तित्त्व में थे और एक प्रतिबद्धता कि उनके पुनरारम्भ की उपयोगिता को हमारे समक्ष सफलतापूर्वक सिद्ध किया गया है.

 

शायद, एक धार्मिक दृष्टिकोण से इनमें से कुछ परम्पराओं और संस्थाओं की ख़ूबियों पर मतभिन्नता हो सकती है. लेकिन हमारी देशभक्ति की अपील के तहत उन पर हमला करने का प्रयास घृणित है.  पहली बात यह कि किसी भी धर्म की सर्वश्रेष्ठ परंपराएं असहिष्णुता से सम्बद्ध नहीं हैं और किसी भी धर्म के अनुयायियों द्वारा उन्हें पुनर्जीवित करने का प्रयास अन्य धर्मों के अनुयायियों को रुष्ट नहीं कर सकता है.

आर्य समाजी, जिन्होंने बलिदान प्रणाली पर अपने धार्मिक सुधार को आधारित करके पुनरुत्थानवाद में सबसे निर्णायक पहल की है, गलत हो भी सकते हैं और नहीं भी. लेकिन यह तय है कि यह मुसलमानों के लिए नाराज़गी का कारण नहीं हो सकता, जिनका अपनी सर्वश्रेष्ठ  धार्मिक परम्पराओं की पुनर्स्थापना का प्रयास भी राजनीति पर उतना ही अहानिकर प्रभाव डालेगा.

हम शायद हिंदुओं के बीच उपजातियों के  एक संघ की वकालत की भावना को समझ सकते हैं. लेकिन जब न तो हिन्दू और न ही मुसलमान अपने धर्म बदलना चाहते हैं या यहाँ तक कि कोई तीसरा धर्म भी स्वीकार नहीं करना चाहते हैं तो हम यह नहीं समझ पाते कि क्यों उनमें से किसी का भी अपने धर्म की वैयक्तिकता का दावा या उस पर जोर देना दूसरे को कुपित करेगा?

फिर यह आसानी से देखा जा सकता है कि एक विदेशी सरकार के अधीन हमारे साझा कष्टों  और अशक्तताओं के बन्धन इतने मज़बूत हैं कि उन पर हमारे अलग धर्मों के होने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. लेकिन भारत में सभी धर्मों और जातियों का एक सम्मिश्रण उतना ही ग़ैरज़रूरी है जितना कि असम्भव. यह केवल तभी अन्यथा हो सकता है जब राजनैतिक विशेषाधिकार धर्म पर आधारित होते. लेकिन यह तय है कि ब्रिटिश सरकार भारत में मुट्ठीभर ईसाइयों के हाथ में देश का राजनैतिक अधिकार देने की नहीं सोच सकती, और हिन्दूवाद उनके लिए उतना ही पराया है जितना इस्लामवाद.

  धार्मिक मामलों में ब्रिटिश सरकार की तटस्थता स्पष्ट है और यह चिरस्थाई रहेगी. हिन्दू और मुसलमान उनकी अधीनता और अराष्ट्रीयकरण की दृष्टि से एक समान रूप से शासित होते हैं और होते रहेंगे ; और  राजनैतिक  सत्ता  और  प्रगति  की  भूख  को  हमेशा  ख़ुद को  इतना  सर्वसमावेशी   होना  होगा  कि  अपनी  निजी  वैक्यक्तिकता   को  बनाये रखने की  इच्छा रखने वाले  हिन्दुओं  और मुसलमानों के झगड़ों  के लिए उसमें कोई जगह न बचे.

समाज की एक ईकाई द्वारा अपनी वैयक्तिकता का दावा कभी भी समाज की दूसरी ईकाई के असंतोष के लिए तार्किक आधार नहीं हो सकता. लेकिन अगर यह मान भी लिया जाए कि भारत के विभिन्न लोगों में अतार्किक होने की क्षमता है, लेकिन उनके पास अब इसके लिए आवश्यक अवकाश नहीं है. चूँकि  अंग्रेजी शासन के आने के पहले हिन्दू और मुसलमानों ने आपस में झगड़े किये इसलिए वे फिर से ऐसे झगड़े कर सकते हैं अगर  किसी ईश्वरीय कृपा से वे फिर से दो स्वतंत्र राजनैतिक ईकाईयाँ बन जाएँ.  लेकिन तब तक नहीं.

इस बीच, हिन्दुओं और मुसलमानों में जो सबसे अधिक विचारशील लोग हैं इस तथ्य को पूरी तरह  स्वीकारते  हैं  कि  यदि  वे अपने  राजनैतिक आदर्शों  को  हासिल  करना  चाहते   हैं  तो उन्हें पुनर्जीवन का  अनुगमिक नियम अपनाना पड़ेगा, यानी  विशिष्ट से सामान्य  की  ओर चलना.  इसे  हमेशा  दिमाग  में  रखना  होगा  कि दुनिया  में  कहीं  भी  राजनीति  ने  धर्म पर  आधिपत्य  हासिल  नहीं किया  है न  उसे निर्दिष्ट  किया  है.

यह  तथ्य  कि  कई  धार्मिक  राष्ट्रीयताएं एक  राजनैतिक  नेतृत्व  के तहत  लाई  गई  हैं, जैसा  कि  भारत  के मामले  में है, केवल  एक संयोग  है, और यह  केवल  उनके  संकुचित  सोच  की  पराकाष्ठा है  जो  यह  सुझाव देते हैं कि पुनर्जीवन और  अवयवों को  सुधारने   की अनुगमिक  प्रविधि  को  उस  प्रविधि  के  पक्ष  में  त्याग  देना  चाहिए  जिसके  तहत  सम्पूर्ण का  पुनर्जीवन  का  प्रयास  इसके  अवययों  से  पहले  किया  जाना  चाहिए.


https://thecrediblehistory.com/leaders/gandhi/gandhijis-stand-on-racism/


 

विदेशी कौन है?

 … हालत ऐसी हो गई है कि कुछ चीज़ें जो देश के लिए लाभदायक होंगी, नहीं की जा पा रही हैं. शुरुआत में हमने सोचा कि बावजूद इसके कि प्रशासन ‘विदेशी’ था इसे बर्दाश्त किया सकता है. चूँकि अंग्रेजी प्रशासन वस्तुतः ‘विदेशी’ है, और इसे कहना कोई राजद्रोहिता नहीं है, जो चीज़ें विदेशी हैं उन्हें विदेशी कहने में न तो कोई राजद्रोह है न ही अपराध.  विदेशी होने का परिणाम क्या है?

विदेशियों और हममें जो अंतर है वह यह है कि उनके विचार विदेशी हैं, और उनका आम आचरण ऐसा है कि उनके दिमाग उन विशिष्ट व्यक्तियों के लाभ की ओर प्रवृत्त नहीं हैं जिन्हें वे विदेशी समझते हैं. यहाँ अहमदनगर में जो मुस्लिम शासक राज करता है (मैं मुसलमानों को विदेशी नहीं कहता) यहाँ आया और इस देश में रहा और कम से कम यह चाहता है कि स्थानीय उद्योग प्रगति करें.

धर्म अलग हो सकता है. जो भारत में रहना चाहता है उसके बच्चे भी भारत में रहना चाहते हैं.  उन्हें रहने दीजिये. वो विदेशी नहीं हैं जो उन बच्चों, उस आदमी का और भारत के अन्य निवासियों का भला करना चाहते हैं. विदेशी से मेरा अर्थ अलग धर्म नहीं है. वह जो ऐसा काम करता है जो इस देश के लिए लाभदायक है, चाहे हिन्दू हो या मुसलमान या अंग्रेज़, विदेशी नहीं है.

‘विदेशीपन’ का वास्ता सरोकारों से है. विदेशीपन का निश्चित रूप से सफ़ेद या काली चमड़ी से लेना-देना नहीं है. विदेशीपन का धर्म से लेना-देना नहीं है. विदेशीपन का व्यापार या व्यवसाय से लेना-देना नहीं है.   मैं ऐसे व्यक्ति को विदेशी नहीं मानता जो ऐसी व्यवस्था करना चाहता है जिससे वह देश अच्छे दिन देख सके और लाभान्वित हो सके जिसमें उसे रहना है, उसके बच्चों को रहना है और उसकी भविष्य की पीढ़ियों को रहना है.

संभव है कि वह मेरे साथ उसी मंदिर में ईश्वर की पूजा करने न जाए, संभव है उसके साथ मेरा खान-पान या शादी-ब्याह का सम्बन्ध न हो. ये सब छोटे-मोटे सवाल हैं.   लेकिन यदि एक पुरुष भारत के भले के लिए उद्यम कर रहा है और उस दिशा में प्रयास करता है, तो मैं उसे विदेशी नहीं मानता.

यदि किसी ने इस प्रशासन पर विदेशी होने का आरोप लगाया है उसने ऐसा उल्लिखित संदर्भ में किया है. शुरू में मैं सोचता था कि इसमें कुछ ख़ास नहीं है. पेशवा का शासन ख़त्म हो गया और मुस्लिम शासन ख़त्म हो गया.  देश अंग्रेजों के अधिकार में आ गया.

राजा का कर्तव्य वह सब करना है जिससे देश सम्माननीय बन सके, लाभान्वित हो सके, प्रगति कर सके और दूसरे राष्ट्रों के बराबर बन सके. वह राजा जो अपना यह कर्त्तव्य निभाता है, विदेशी नहीं है. उसे विदेशी माना जाएगा जो यह कर्त्तव्य नहीं निभाता बल्कि केवल अपना लाभ, अपनी नस्ल का लाभ और अपने मूल देश का लाभ देखता है…

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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