कौन थे, 1857 क्रांति के प्रथम आदिवासी शहीद वीर नारायण सिंह
भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन एक ऐसा जन आन्दोलन था जो जैसे-जैसे बढ़ता गया वैसे-वैसे उसकी शक्ति बढ़ती गई थी। यह आन्दोलन प्रदेशों और वर्गों के भेदभाव से ऊपर उठकर पूरे देश की जनता की संयुक्त इच्छा शक्ति की अभिव्यक्ति बन गया था।
1857 के पहले भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध आदिवासियों ने बार-बार विद्रोह किए थे और जिनके फलस्वरूप आदिवासी क्षेत्रों में अंग्रेजों को अपनी सत्ता स्थापित करने में बहुत संघर्ष करना पड़ा। ऐसे विद्रोहों का तो संदर्भ भी आसानी से नहीं मिलता है। यद्यपि पूरे देश भर में 1857 के पहले और उसके बाद हुए स्वतंत्रता आन्दोलन में आदिवासियों का योगदान महत्वपूर्ण था।
1857 का पहला विद्रोह सोनाखाना में
अंग्रेज़ों द्वारा लगान वसूली के लिए की गई नई व्यवस्था, परपंरागत सामाजिक, धार्मिक और राज व्यवस्था को बदलने के प्रयासों, वनप्रबंधन के लिए लागू किए गए नये नियमों और शराब के निर्माण लगाई गई रोको के कारण आदिवादियों की जल, जंगल और जमीन की अपनी अनूठी संस्कृति प्रभावित हो रही थी।
अंग्रेजों द्वारा इन उपायों का सहारा लेकर आदिवासियों की स्वाधीन चेतना को भी आहत किया गया था। इस तरह आदिवासियों ने अपनी संस्कृति और स्वायत्तता की रक्षा में अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम की ऐतिहासिक विरासत हैं।
भारत के इतिहास में 1857 के पहले छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के द्वारा किए गए अधिकांश विद्रोहों का कोई उल्लेख नहीं मिलता किन्तु अंग्रेजों के विरुद्ध आदिवासियों के अथक और क्रांतिकारी संघर्ष का प्रमाण आदिवासी इलाक़ों में आज भी जीवित है।
सोनाखान वीर शहीद नारायण सिंह की जन्मभूमि और कर्मभूमि, जो आज छत्तीसगढ़ में रायपुर ज़िले की तहसील बलौदा बाजार में स्थित जंगलों के बीच एक आदिवासी बहुल गाँव है। यह गाँव साम्राज्यवाद और सामंतवाद के विरुद्ध एक महान संघर्ष की गाथा समेटे हुए है।
छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद जमींदार नारायण सिंह
सन 1857 में रायपुर के सोनाखाना के आदिवासी जमींदार नारायण सिंह ने अद्भुत विद्रोह किया था। उनकी जमींदारी वाले क्षेत्र में 1856 में सूखा पड़ गया था। जंगल के जानवर भी सूखा पड़ने से जंगल छोड़कर भाग गये। पहाड़ी क्षेत्र में कंदमूल भी मिलना दूभर हो गया ।
सोनाखान में नारायणसिंह की बैठक में सब एकत्रित हुए और सब एक आवाज में बोल उठे, कैसे करें? गाँव छोड़कर भाग जाए या दूसरा रास्ता भी है? छत्तीसगढ़ पर अंग्रेजों का क़ब्ज़ा 3 साल पहले से चल रहा था। अंग्रेज कमिश्नर इलियेट और स्मिथ थे। कसडोल के मिश्र परिवार के उपर अंग्रेजों की कृपादृष्टि थी।
सोनाखान की बैठक में तय हुआ कि कसडोल के महाजन मिश्रा परिवार से क़र्ज़ में अनाज मांगा जाए। कुछ ब्याज भी दिया जायेगा, मिश्र परिवार ने अनाज देने से साफ़ इंकार कर दिया।[i]
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अनाज की लूट के विरुद्ध नारायण सिंह का विद्रोह
नारायण सिंह ने आदिवासी साथियों से कहा- नहीं, भूख से कोई आदमी नहीं मरेगा भले ही लड़ाई के मैदान में जूझते प्राण क्यों न चले जायें। तुम लोग लड़ने के लिए तैयार हो या नहीं?[ii]
कुरुपाट में नारायण सिंह का डेरा था। कुरूपाट का पानी पीकर सरदारों ने शपथ ली कि अब हम साहूकारों को सहन नहीं करेंगे। साहूकारों की कोठी के अनाज में आदिवासी किसानों की मेहनत का खून लगा हुआ है। लहू-पसीने की कमाई से पैदा हुआ अनाज महाजन की कोठी में भरा हुआ रहेगा और हम भूख से तड़पते रहेंगे, ये कभी नहीं होगा।[iii]
नारायण सिंह ने अपनी जनता को भूख से मरने से बचाने के लिए एक साहूकार के यहाँ गया धान निकलवा कर बँटवा दिया था। नारायण सिंह ने इसकी सूचना रायपुर तैनात अंग्रेज अधिकारियों को दी थी।
1856 साल की यह घटना एक क्रांतिकारी घटना थी। आर्थिक मांगों पर अनाज के लिए संघर्ष की जो मिसाल छत्तीसगढ़ के दूरस्थ- दुर्गम गांवों में नारायण सिंह ने क़ायम की इतिहास में वैसा उदाहरण दुर्लभ हैं।
और उधर साहूकार ने नारायण सिंह के कृत्य को लूट और डकैती बताते हुए अंग्रेज अधिकारियों से शिकायत की। अंग्रेजों ने सूखे से जनता को बचाने के लिए कोई प्रशासनिक उपाय नहीं किया। किन्तु, जमाखोर साहूकार की शिकायत के आधार पर आत्मसम्मानी नारायण सिंह को गिरफ़्तार कर रायपुर जेल में बंदी बनाकर डाल दिया।
नारायण सिंह रायपुर में तैनात अंग्रेजों की देसी पैदल सेना के सहयोग से जेल से भागने में सफल हुए और सोनखान पहुँच कर उन्होंने आदिवासी युवकों की सेना तैयार की।
1857 का साल सारे देश में सिपाही ग़दर की आग में जल रहा था। रायपुर से वीर नारायण सिंह का दिल भी इस ग़दर में भाग लेने के लिए और अंग्रेज साम्राज्यवाद को देश से भगाने के लिए आन्दोलित हो उठा। नारायण सिंह का साथ इस आन्दोलन में सम्बलपुर के क्रांतिकारी सुरेन्द्र साय को छोड़कर बाकी सभी ज़मीदारों ने अंग्रेजों का साथ दिया।
सुरेन्द्र साय के सहयोग, मार्गदशन और फौजी सहयोग से नारायण सिंह के बेटे गोविन्द सिंह ने गद्दारियों से बदला लिया। अकाल पीड़ितों के मदद में नारायण सिंह से नेतृत्व किया था उस समय से ही मिश्र परिवार से शत्रुता शुरू हो गई थी। गोविन्द सिंह ने मिश्र परिवार की एक गर्भवती महिला और उसके एक पुत्र को छोड़कर सबको ख़त्म कर दिया।
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कुर्रूपाट की लड़ाई
अंग्रेजों ने नारायण सिंह को गिरफ़्तार करने के लिए एक बड़ी सेना सोनाखान भेजी और कुर्रूपाट की लड़ाई हुई।
21 नवंबर अट्ठारह सौ सत्तावन की रात्रि में वह रास्ता भटक गया और सोनाखान में नारायन सिंह के द्वारा रास्ते में ऊंची दीवार खड़ा करने तथा उनकी सेना के तैयार रहने के कारण उसे रायपुर से 70 मील दूर एक गाँव करौंदी में रुकना पड़ा। स्मिथ ने कटगी. बड़गाँव तथा बिलाईगढ़ के ज़मीदारों के साथ-साथ बिलासपुर की सैन्य सहायता ली।
26 नवंबर की रात्रि में नारायन सिंह का एक घुड़सवार करौंद में गिरफ़्तार किया गया। उसने बताया कि नारायण के पास 500 सिपाही तथा 7 तोपें हैं। 30 नवंबर को स्मिथ देवरी पहुंचा। नारायण सिंह के काका ने पारिवारिक कटुता के कारण अंग्रेजों का साथ दिया। नारायण सिंह ने इस बीच सोनाखान खाली कर पहाड़ों पर मोर्चा लेने की तैयारी प्रारंभ कर दी थी।
उन्होंने अपने परिवार जनों और संपत्तियों के साथ अपने पुत्र गोविंद सिंह को सोनाखान से बाहर भेज दिया था। इसके बाद स्मिथ ने खाली पड़े गाँव में आग लगा दी। गाँव जलकर ख़ाक हो गया। गाँव के लोग पहाड़ी पर थे ,जंगल के दूसरी ओर से नारायण सिंह की सेना ने गोली की बौछार शुरू की।
अंग्रेजों की फ़ौज़ गाँव से हट गई। रात्रि में अंग्रेजों ने पहाड़ियों की टोली और वहां पर हलचल देखी। 2 दिसंबर को अगली सुबह 10 बजे कटगी से एक और अंग्रेजों की फ़ौज़ सहायता के लिए पहुँच गई। नारायन सिंह ने सोनाखान से 7 मील की दूरी पर ही तोपों से अंग्रेजी सेना पर आक्रमण की योजना बनाई थी। पर देवरी के जमींदार महाराज द्वारा धोखा दिया गया और उनकी टुकड़ी इधर-उधर बिखर गई।
मुक़ाबला हुआ पर नारायण सिंह की सेना की गोलियाँ ख़त्म हो गई। वे अपनी बची हुई जनता की रक्षा के लिए अपने एक साथी के साथ स्मिथ के पास पहुँच गए। उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और 5 सितंबर अट्ठारह सौ सत्तावन को रायपुर में डिप्टी कमिश्नर इलियट के सुपुर्द कर दिया गया।
और अंत में शहादत
अंग्रेज सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने का आरोप लगाकर उनके ख़िलाफ़ अदालत में मुकदमा चलाया गया और मौत की सजा सुनाई गई। 10 दिसंबर अट्ठारह सौ सत्तावन को जेल के सामने उन्हें फाँसी की सजा दे दी गई। इस स्थान को अब जयस्तंभ चौक कहा जाता है।
आधुनिक शस्त्रों के साथ देहाती शस्त्रों का मुक़ाबला न हो सका। नारायण सिंह ;की गिरफ़्तारी के बाद उनके परिवार के लोग उड़ीसा के पदमपुर की तरफ निकल गए। नारायण सिंह को फाँसी देने के विरोध में रायपुर में तैनात अंग्रेजों की देशी पैदल सेना ने 18 जनवरी 1858 को विद्रोह कर दिया।
पैदल सेना के मैगनीन लश्कर हनुमान सिंह ने एक अंग्रेज सार्जेट मेजर पर हमला कर दिया। इस हमलें में सार्जेट मेजर की मृत्यु हो गई। यह विद्रोह लंबा नहीं चल सका और अंग्रेजों द्वारा की गई एक बड़ी कारवाई में सेना के 17 लोगों को गिरफ़्तार कर नागरिकों के सामने फाँसी दे दी गई।
स्वतंत्र भारत में सम्मान
उन्हें 10 दिसंबर 1957 को स्वतंत्र भारत में वीर की उपाधि से सम्मानित कर छत्तीसगढ़ में “1857 का प्रथम शहीद” घोषित किया गया।
अंग्रेजों ने वीर नारायण सिंह को एक लुटेरा और डाकू बताया। इतिहास में इस नायक के बारे में कहीं कोई चर्चा देखने को नहीं मिलता है, इस महान विद्रोही को लोग भूल गए थे,
लेकिन 1991 में श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ माईन्स श्रमिक संघ ने वीर नारायण सिंह की वीरता व कुर्बानी का इतिहास जनता के समक्ष प्रस्तुत किया, ताकि शोषित जनता की उनकी राह पर चलने की प्रेरणा मिले।
[i]शंकर गुहा नियोगी, आज की पीढ़ी और वीर नारायण सिंह की वसीयत, शहीद शंकर गुहा नियोगी यादगार समिति लोक साहित्य परिषद, पेज न. 15
[ii]वही पेज न. 19
[iii]वही पेज न 20
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में