मेरी माँ ने मुझे प्रेमचंद का भक्त बनाया-गजानन माधव मुक्तिबोध
वर्धा से प्रकाशित राष्ट्रभारती में कुछ संस्मरणात्मक टिप्पणी छपी थी। जिसे बाद में दस्तावेज अंक में संकलित किया गया था कि हम जाने सकें कि भारत के अन्य भाषा-भाषी क्षेत्रों के पाठ्य समुदाय के बीच प्रेमचंद की लोकप्रियता का प्रसार किन कारणों से हुआ था।
इस टिप्पणी से प्रेमचंद की विरासत के प्रति तथा उनके जनपक्षधर लेखन के प्रति मुक्तिबोध का स्वयं का रुख क्या था-यह भी साफ-साफ झलकता है।
उनकी यह स्पष्ट मान्यता है कि उनकी माँ ने भावना और सम्भावना के आधार पर प्रेमचंद के पात्रों के मर्म का वर्णन-विवेचन करके उनकी संवेदना में एक बीजा बोया जो सामाजिक-आर्थिक क्रांति की आकुलता के साथ अंकुरित हुआ।
एक छाया-चित्र है। प्रेमचंद और प्रसाद दोनों खड़े हैं। प्रसाद गम्भीर और प्रेमचंद के होठों पर अस्फुट हास्य। विभिन्न विचित्र प्रकृति के दो धुरन्धर हिन्दी कलाकारों के उस चित्र पर नज़र ठहरने का एक और कारण भी है।
प्रेमचंद के जूता कैनवैस का है और वह अंगुलियों के ओर से फटा हुआ है। जूते की क़ैद से बाहर निकलकर अंगुलियाँ बड़े मजे से बाहर हवा खा रही है। उन्हें तो इस बात की ख़ुशी है कि वे प्रसाद के साथ खड़े हैं और फोटो निकलवा रहे हैं।
माँ जब प्रेमचंद की कृति पढ़ती, उसके आंखों से बार-बार आंसू छलछलाते
इस फोटो का मेरे जीवन में काफ़ी महत्त्व रहा है। मैंने उसे अपनी माँ को दिखाया था। प्रेमचंद की सूरत देख मेरी माँ बहुत प्रसन्न मालूम हुई। वह प्रेमचंद को एक कहानीकार के रूप में बहुत चाहती थी।
उनकी दृष्टि से, यानी उसके जीवन में महत्त्व रखने वाले, सिर्फ़ दो ही कादम्बरीकार (उपन्यास लेखक) हुए हैं-एक हरिनारायण आप्टे, दसरे प्रेमचंद। आप्टे की सर्वोच्च कृति, उनके लेख, पण लक्षान्त कोण घेतो है, जिसमें भारतीय परिवार में स्त्री के उत्पीड़न की करुण कथा कहीं गई है।
वह क्रान्तिकारी करुणा हैं। उस करुणा ने महाराष्ट्रीयन परिवारों कि समाज-सुधार की ओर अग्रसर कर दिया। मेरी माँ जब प्रेमचंद की कृति पढ़ती, उसके आंखों से बार-बार आंसू छल-छलाते से मालूम होते और तब-उन दिनों में साहित्य का एक जड़मति विद्यार्थी मात्र मैट्रिक का एक छोकड़ा था-प्रेमचंद की कहानियों का दर्द-भरा मर्म माँ मुझे बताने बैठती।
माँ ने प्रेमचंद का नमक का दारोगा पिताजी में खोजकर निकाला
प्रेमचंद के पात्रों को देख, तदनुसार चरित्र माँ हमारे पहचानवालों में से खोजकर निकालती। इतना मुझे मालूम है कि माँ ने प्रेमचंद का नमक का दारोगा पिताजी में खोजकर निकाला था। प्रेमचंद पढ़ते वक़्त माँ को ख़ूब हंसी भी आती और तब वह मेरे मूड की परवाह किए बगैर मुझे प्रेमचंद कथा प्रसूत उसके हास्य का मर्म बताने की सफल-असफल चेष्टा करती।
प्रेमचंद के प्रति मेरी श्रद्धा व ममता को अमर करने का श्रेय मेरी माँ को है। मैं अपनी भावना में प्रेमचंद को माँ से अलग नहीं कर सकता। मेरी माँ सामाजिक उत्पीड़ने के विरुद्ध क्षोभ और विद्रोह से भरी हुई थी। यद्यपि वह आचरण में परम्परावादी थी, किन्तु धन और वैभवजन्य संस्कृति के आधार पर ऊंच-नीच के भेद का तिरस्कार करती थी।
वह स्वयं उत्पीड़ित थी और भावना द्वारा, स्वयं की जीवन-अनुभूति के द्वारा, माँ स्वयं प्रेमचंद के पात्रों में अपनी गणना कर लिया करती थी।
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माँ मेरी गुरु थी अवश्य, किन्तु मैं उसका योग्य शिष्य न था
मेरी माँ अब बूढ़ी हो गई है। उसने वस्तुत: भावना और सम्भावना के आधार पर मुझे प्रेमचंद पढ़ाया।
इस बात को वह नहीं जानती है कि प्रेमचंद के पात्रों के मर्म का वर्णन-विश्लेषण करके वह अपने पुत्र के हृदय में किस बात की बीज बो रही हैं। पिताजी देवता हैं, माँ मेरी गुरु है। सामाजिक दम्भ, स्वांग, ऊंच-नीच की भावना, अन्याय और उत्पीड़न से कभी भी समझौता न करते हुए घृणा करना उसी ने मुझे सिखाया।
आज जब मैं इस बात को सोचता हूँ तो लगता है कि यदि मैं, माँ और प्रेमचंद की केवल वेदना ही ग्रहण न कर, उनके चारत्रिक गुण भी सीख लेता, उसकी दृढ़ता, आत्म-संयम और अटलता को प्राप्त करता, आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति नष्ट कर देता और उन्हीं के मनोरंजन की विशेषताओं को आत्मसात करता, तो शायद, शायद मैं अधिक योग्य पात्र बन होता।
माँ मेरी गुरु थी अवश्य, किन्तु मैं उसका योग्य शिष्य न था। अगर होता तो कदाचित अधिक श्रेष्ठ साहित्यिक होता, केवल प्रयोगवादी कवि बनकर न रह जाता।
संदर्भ
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में