बैलगाड़ी से ब्राह्मणों एवं नायरों के अंहकार को कुचलने वाले- अय्यंकालि
अय्यंकालि उन जाति-विरोधी योद्धाओं में से थे, जिन्होंने ब्राह्मणवादियों और उनकी सत्ता से समानता का हक़ हासिल करने के लिए एक जुझारू लड़ाई लड़ी और कामयाब हुए।
अय्यंकालि ने सुधारों के लिए प्रार्थनाएँ और अर्जियाँ नहीं दीं, बल्कि सड़क पर उतर कर ब्राह्मणवादियों की सत्ता को खुली चुनौती दी और उन्हें परास्त भी किया। उन्होंने सिद्ध किया कि दमित और उत्पीडि़त आबादी न सिर्फ लड़ सकती है, बल्कि जीत भी सकती है।
कौन थे अय्यंकालि?
अय्यंकालि का जन्म 28 अगस्त 1863 को ब्रिटिश भारत के दक्षिण में त्रावणकोर की रियासत में तिरुवनन्तपुरम ज़िले के वेंगनूर में हुआ था। उनका जन्म केरल की सर्वाधिक दमित व उत्पीडि़त दलित जातियों में से एक पुलयार जाति में हुआ था।
त्रावणकोर में पुलयार लोगों को ब्राह्मणवादी पदानुक्रम में सबसे नीचे का स्थान दिया गया था। उन्हें नायर जाति के ज़मींदारों से लेकर ब्राह्मणों तक के अपमानजनक और बर्बर किस्म के दमन और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता था।
इस स्थिति ने अय्यंकालि के दिल में बग़ावत की आग को जलाया। शुरुआत में वे अपने अन्य पुलयार दोस्तों के साथ मिलकर काम के बाद ऐसे गीतों और नृत्यों का सर्जन करने लगे जो कि इस स्थिति के खिलाफ आवाज़ उठाते थे। इसके कारण कई युवा दलित उनसे जुड़ने लगे।
अय्यंकालि शुरू से ही समझते थे कि उच्च जातियों द्वारा दलितों के दमन और उनके खिलाफ की जाने वाली हिंसा के प्रश्न पर अंग्रेज़ सरकार कुछ नहीं करने वाली है। इसलिए इस दमन और हिंसा का जवाब उन्होंने खुद सड़कों पर देने का रास्ता अपनाया। उनके इर्द-गिर्द एकत्र युवाओं का एक समूह अस्तित्व में आने लगा और यह समूह हर हमले का जवाब ब्राह्मणवादियों को सड़कों पर देने लगा।
यह हिंसा वास्तव में आत्मरक्षा के लिए की जाने वाली हिंसा थी। लेकिन इस प्रकार के जवाबी हमलों ने ब्राह्मणवादी शक्तियों को सकते में ला दिया। अय्यंकालि के इस रास्ते के चलते दलित आम मेहनतकश आबादी उन्हें चाहने लगी और उन्हें कई प्रकार की उपाधियाँ देने लगी जैसे कि उर्पिल्लई और मूथपिल्ला।
अय्यंकालि धार्मिक-सुधारक स्वामिकल और नारायण गुरु से प्रभावित थे
अय्यंकालि कई प्रकार के धार्मिक सुधारकों से प्रभावित हुए जिनमें अय्यावु स्वामिकल और नारायण गुरु प्रमुख थे। ये दोनों ही हिन्दू धर्म के भीतर जातिगत भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे। मानवतावाद इनके धार्मिक दर्शन का आधार था।
यही कारण था कि नारायण गुरु ने अपनी एक रचना में हिन्दू देवताओं के अलावा ईसा और मुहम्मद को भी ईश्वर के रूप में स्वीकार किया और कहा कि ये सभी एक ही मानवतावादी विचार का समर्थन करते हैं और ये विचार जाति प्रथा के खिलाफ हैं।
अय्यंकालि दार्शनिक तौर पर धार्मिक सुधार आन्दोलन से आगे नहीं गये। इस रूप में वे एक सामाजिक व राजनीतिक क्रान्तिकारी तो थे, लेकिन वैज्ञानिक भौतिकवादी दृष्टिकोण तक नहीं पहुँच पाए थे। इसका एक कारण यह था कि अय्यंकालि निरक्षर थे और उनके पास विज्ञान का कोई शिक्षण नहीं था।
लेकिन इसके बावजूद सबसे अहम बात यह है कि अय्यंकालि अपने संघर्ष के तौर-तरीकों में एक वैज्ञानिक और भौतिकवादी थे। वे किसी भी दमित व उत्पीड़ित आबादी के संघर्ष में बल की भूमिका को समझते थे। वे समझते थे कि लुटेरे और दमनकारी शासकों का सलाह व सुझाव देने से दिल नहीं बदला जा सकता है क्योंकि उनका शासन ही मेहनतकश व दलित जनता की लूट और दमन पर टिका है।
उन्हें संगठित होकर अपनी ताक़त के बल पर झुकाया जा सकता है। वे किसी ईश्वरीय शक्ति के भरोसे नहीं बैठे रहे, बल्कि उन्होंने दमन व उत्पीड़न के खिलाफ खुद सड़कों पर उतर कर संघर्ष किया। वे ब्रिटिश सरकार के भी भरोसे नहीं बैठे रहे, बल्कि संगठित जन के बल प्रयोग से ब्राह्मणवादी शक्तियों को झुकने पर मजबूर कर दिया।
जाति-अन्त के आन्दोलन को सही रूप में आगे ले जाने के लिए अय्यंकलि के आन्दोलन की विरासत बेहद अहम है।
ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती देने के लिए अय्यंकालि ने क्या किया था?
अय्यंकालि ने खुले तौर पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती देते हुए 1893 में एक ऐसा आन्दोलन शुरू किया, जिसने केरल के समाज की तस्वीर को बदल डाला।
अय्यंकालि ने एक बैलगाड़ी ख़रीदी (जिसकी आज्ञा उस समय दलितों को नहीं थी) , ऐसे कपड़े पहने जिनका अधिकार केवल उच्च जातियों को था और एक सार्वजनिक सड़क के बीचों-बीच हाथ में एक हथियार लिए निकल पड़े।
उस समय पुलयारों व अन्य दलितों को यह अधिकार नहीं हासिल था कि वे सार्वजनिक सड़कों पर चल सकें। उन्हें सड़कों के किनारे मिट्टी व कीचड़ में चलना पड़ता था। जब अय्यंकालि ने यह विद्रोह की कार्यवाही की तो, ब्राह्मणों व अन्य उच्च जाति के लोगों में गुस्से की लहर दौड़ गयी। लेकिन अय्यंकालि के हाथों में हथियार देखकर किसी को भी उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं हुई।
अय्यंकालि की इस कार्यवाही से पूरे त्रावणकोर रियासत के दलितों में एक लहर फैल गयी। जगह-जगह दलितों ने इसी प्रकार की बग़ावती कार्यवाही को अंजाम देना शुरू किया। इसकी वजह से कई जगहों पर दलितों व उच्च जातियों की सामन्ती शक्तियों की बीच सड़कों पर हिंस्र टकराव हुए। इनको चेलियार दंगों के नाम से जाना जाता है।
दोनों ही पक्षों के लोग हताहत हुए। लेकिन इन विद्रोहों के कारण सन् 1900 तक यह स्थिति पैदा हो गयी कि केरल में दलित अधिकांश सार्वजनिक सड़कों पर चलने का अधिकार हासिल कर चुके थे। यह अय्यंकालि का पहला बड़ा क्रान्तिकारी संघर्ष और विजय थी।
दलित बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिले का अधिकार के लिए संघर्ष
कुछ पुलयारों को ईसाई मिशनरी स्कूलों में शिक्षा का सीमित अधिकार प्राप्त हुआ था। लेकिन शिक्षा पाने के लिए उन्हें ईसाई धर्म को अपनाना होता था।
अय्यंकालि का मानना था कि सभी सार्वजनिक स्कूलों में दलितों को बराबरी से शिक्षा का अधिकार होना चाहिए। ब्रिटिश सरकार ने कहने के लिए 1907 में दलित बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिले का अधिकार दिया, लेकिन स्थानीय अधिकारी आराम से यह अधिकार छीन लेते थे। ऐसा नहीं था कि ब्रिटिश सरकार को यह पता नहीं था।
लेकिन उसने कभी भी ऐसे ब्राह्मणवादियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की क्योंकि भारत में ब्रिटिश सत्ता के सबसे प्रमुख समर्थन आधार ब्राह्मणवादी सामन्ती शक्तियाँ ही थीं।
अय्यंकालि ने 1907 में ही साधु जन प्रपालना परिषद् (गरीबों की सुरक्षा हेतु संगठन) बनाया था। पहले तो अय्यंकालि ने पुलयारों द्वारा संचालित स्कूलों को स्थापित करने के लिए आन्दोलन किया। लेकिन इसके बाद उनका आन्दोलन सरकार और ब्राह्मणवादी सामन्तों के विरुद्ध बन गया।
इसका कारण यह था कि उन्होंने एक दलित बच्ची का दाखिला एक सरकारी स्कूल में करवाने का प्रयास किया लेकिन इसके जवाब में ब्राह्मणवादियों ने दलितों पर हिंस्र हमले किये और ऊरुट्टमबलम में एक स्कूल को जला दिया। इसके जवाब में अय्यंकालि ने सभी खेतिहर मज़दूरों की एक हड़ताल संगठित की। इनमें से अधिकांश दलित थे।
यह आधुनिक भारत में खेतिहर मज़दूरों की पहली हड़ताल थी। इस हड़ताल को अय्यंकलि ने तब तक जारी रखा जब तक कि सभी दलित बच्चों को सरकारी स्कूलों में बिना रोक-टोक दाखिले का अधिकार नहीं मिल गया।
इस दौरान जब भी दलितों पर उच्च जाति के सामन्तों ने हमले किये तो अय्यांकालि के संगठन के नेतृत्व में दलितों ने भी जवाबी हमले किये। इस वजह से उच्च जाति सामन्तों को अब हमला करने से पहले सौ बार सोचना पड़ता था और उनके हमले नगण्य हो गये। इस आन्दोलन ने जनता की क्रान्तिकारी पहलकदमी को खोला और उन्हें स्वयं संगठित होकर सत्ता के विरुद्ध आन्दोलन का रास्ता दिखलाया। यह उस समय बहुत बड़ी बात थी।
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स्त्रियों के लिए ऊपरी शरीर को ढंकने के अधिकार के लिए आन्दोलन
अय्यंकालि ने पुलयार जाति की स्त्रियों के लिए ऊपरी शरीर को ढंकने के अधिकार के लिए आन्दोलन में केन्द्रीय भूमिका निभाई।
नादरों को यह अधिकार अपने आन्दोलन के कारण पहले ही मिल चुका था, लेकिन पुलयारों को यह अधिकार 1915 में जाकर हासिल हुआ। इस आन्दोलन में भी अय्यंकालि ने किसी प्रबुद्ध प्रशासक को अर्जियाँ देने या बुद्धिजीवियों के द्वारा सरकार को प्रार्थनाएँ और सलाहें पेश करने पर नहीं बल्कि जनता की संगठित पहलकदमी पर भरोसा किया।
इन सभी आन्दोलनों के ज़रिये अय्यंकालि ने दिखलाया कि समाज में दलितों को वास्तविक अधिकार रैडिकल जनसंघर्षों के बूते मिले। उनका पहला ज़ोर ही हमेशा जनता को रैडिकल संघर्षों के लिए संगठित करने के लिए होता था, जो कि सरकार के विरुद्ध होते थे।
वे सरकार को प्रार्थना पत्र लिखने में कम भरोसा करते थे और मानते थे कि चीज़ें सरकार को लिखे गये आवेदन पत्रों से नहीं बदलतीं, क्योंकि सरकार दलितों व ग़रीबों के पक्ष में नहीं होती बल्कि शासक वर्ग की नुमाइन्दगी करती है। वे जानते थे कि इस सरकार के खिलाफ जुझारू जनसंघर्षों के बूते ही चीज़ों को बदला जा सकता है।
अय्यंकालि की विरासत हमें दिखलाती है कि सत्ता के खिलाफ आमूलगामी संघर्ष और जाति अन्त की लड़ाई में समूची मेहनतकश जनता को साथ लेकर ही हम जाति व्यवस्था के खिलाफ कारगर तरीके से लड़ सकते हैं।
संदर्भ
विनीत कुमार सिन्हा, महात्मा अय्यंकालि, संपादन-युवराज कुमार, भारत के दलित चिंतक, सेज प्रकाशन, 208-228
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में