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बाबू मंगूराम मुगोवालिया, जिनके मुरीद भगत भगत सिंह भी थे

मंगूराम, जिन्होंने पंजाब  में ऐड-धर्म आंदोलन की नींव रखी थी और गदर पार्टी से भी जुड़े हुए थे। उनको लोग मंगूराम मुगोवालिया के नाम से भी जानते है। पंजाब में दलित समुदायों के सवाल को हाशिये से सतह पर लाने और दलित बच्चों को शिक्षित करने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

 

जन्म और शिक्षित होने के लिए मंगूराम का संघर्ष

 

मंगूराम का जन्म 14 जनवरी 1886 को ग्राम मुगोवाल, तहसील गढ़शकर जिला होशियारपुर  में   हुआ था। उनके पिता का नाम हरनाम दास और मात का नाम आरती था। मात्र दस वर्ष के उम्र में ही मंगूराम के सर से माँ आरती का साया उठ गया। इसलिए उनके पिता मंगूराम सहित अपने तीनों बेटों पर सहायता के लिए बहुत अधिक निर्भर रहने लगे।

 

हरनाम दास के पूवर्ज जानवरों के खाल निकालने का पारंपरिक काम करते थे। हरनाम दास ने  खाल निकालने के अपने पारंपरिक काम को छोड़ दिया था और व्यावसायिक आधार पर चमड़े को बेचना शूरू कर दिया था। चमड़े के व्यापार के लिए ब्रिकी आदेशों को पढ़ने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान आवश्यक था जिसके कारण हरनाम दास को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता था।

 

ब्रिकी के आदेशों को पढ़ने के लिए हरनाम दास को एक या दो घंटे के लिए कुछ अन्य जाति के पढ़े-लिखे लोगों से मदद  लेनी पड़ती थी और बदले में उनके लिए कुछ मेहनत मजदूरी करनी पड़ती थी। इसलिए हरनाम दास ने मंगूराम को कुछ प्रारंभिक शिक्षा दिलाने के लिए उत्सुक थे।

 

मंगूराम नियमित स्कूल नहीं जाता था। सात साल के उम्र में उनको गाँव के एक साधू ने उनको पढ़ाया। फिर वह गाँव के स्कूल और बाद में अपने घर से कुछ मिल दूर माहिलापुर के स्कूल में शामिल हो गए। उन्होंने कुछ समय के लिए देहरादून के एक स्कूल में पढ़ाई की।

 

इन सभी स्कूल में मंगूराम ने देखा कि वह एक मात्र चमार छात्र है और उन्हें हमेशा उच्च जाति के छात्रों से अलग बैठकर पढ़ना पड़ता है। उन्होंने कभी खुले दरवाजे से तो कभी खिड़की से ही शिक्षकों की बात सुनी। हाई स्कूल में भी उनको क्लास के अंदर आने की मंजूरी नहीं मिली। वह बैठने के लिए घर से बोरा लेकर जाते थे।

एक बार बरसात के समय खुद को बचाने के लिए जब वह क्लास में घुस गए तो उनको शिक्षक ने बहुत पीटा और क्लास के सभी फर्नीचर को बारिश में बाहर कर दिया ताकि दूषित फर्नीचर शुद्ध हो जाए।

 

मंगूराम एक अच्छे छात्र थे, प्राथमिक विद्यालय में उन्हें क्लास में तीसरा स्थान प्राप्त हुआ। 1905 में उन्होंने स्कूल छोड़ दिया और पिता के साथ पारिवारिक व्यवसाय में शामिल हो गए। इसी दौरान उन्होंने शादी भी की।

 

अमेरिका में गदर पार्टी से जुड़ाव

 

भेदभाव और कठिनाईयों के बावजूद मंगूराम ने अपना हौसला नहीं खोया। मंगूराम 1909 में व्यापार के सिलसिले में अमेरिका गए जहाँ उन्हें कैलिफोर्निया के एक चीनी मिल में रोजगार मिल गया।

 

मंगूराम ने 1913 में राष्ट्रवादी लाला हरदयाल द्वारा स्थापित गदर पार्टी में शामिल हो गए। उन्होंने अमेरिका में गदर पार्टी के नेता श्री सोहन सिंह भकना के नेतृत्व में सैन फ्रासिस में काम किया। मंगूराम सहित पांच सदस्यों वाली पार्टी को लांसएगल्स भेजा गया। जहाँ वे अपनी सभी व्यक्तिगत पहचान एकत्र करने के बाद एक मधस्थ नाव पर चढ़ गए। इस गाथा के बाकि हिस्सों के लिए मंगूराम का नाम निजाम-उद-दीन था जो एक मुस्लिम छद्म नाम था।

 

गदर पार्टी एक पत्रिका गदर-दी गूंज प्रकाशित कर रही थी। उन्होंने समर्थन के लिए जर्मनी के प्रधानमंत्री के साथ समझौता किया था और हथियार करियामारू से भरा एक जहाज भारत भेजना था, जिसे सिंगापुर मंगूराम की मध्यस्थ नाव पर कब्जा कर लिया गया था। उन्हें हथियारों की नाव में साथ शामिल होने के लिए सेक्रोरर द्वीप ले जाया गया लेकिन 13 दिनों के बाद एक सैन्य दल ने खोज लिया।

 

फिर से स्वतंत्र होकर, वे आगे बढ़े, शायद जावा या न्यू कैलेडोनिया की ओर। वहाँ अंग्रेजों के ओर से जापानियों ने उन्हें एक वर्ष के लिए कैद कर लिया।

आखिरकार, अंग्रजों ने उन्हें सौपने का फैसला किया, लेकिन आधी रात को फांसी देने वाली रात के एक रात पहले भाग्य ने उनका साथ दिया और जर्मनों ने उन्हे अंधेरे में भगा दिया और पांच अलग-अलग दिशाओं में चले गए। हरनाम दार और चरण दास बैंकाक औ मंगू राम सहित अन्य लोग मनीला गए। फीर किस्मत ने उनकी योजना बदल दी।

 

एक तूफान आया और उनक जहाज सिगापुर चला गया। जहाँ दो ब्रिटिश जासूस बेला सिंह और भाग सिंह ने उन्हें पकड़ लिया और ब्रिटिश अधिकारियों को सौप दिया। जिन्होंने तुरंत मंगूराम को तोप के सामने रखकर गोली चलाने का आदेश दिया।

 

जर्मनों ने फिर मंगूराम की मदद की और उन्हें मनीला जाने वाले जहाज पर बिठाया गया। जब मंगूराम फिलिपींस पहुंचे तो उन्होंने मनीला टाइम्स में एक समाचार रिपोर्ट पढ़ी जिसमें संकेत दिया गया था कि उन्हें सिंगापुर में अंग्रेजों ने देशद्रोह के लिए फांसी की सजा दे दी।

दरअसल मंगूराम के पकड़ गए सहयोगियों में से एक ने मंगूराम की रक्षा के लिए उनका नाम अपनाया था, जिसको उनकी जगह पर गोली मारकर हत्या कर दी गई। मंगूराम की कथित मौत की खबर पंजाब पहुँची जहाँ उनकी पत्नी ने यह खबर सुनी और तुंरत समुदाय के रीति के अनुसार उनके छोटे भाई से शादी कर ली।

 

1918 में जब युद्ध समाप्त हो गया और गदर पार्टी अंग्रेजों के लिए खतरा नहीं थी। मंगूराम ने मनीला में रहने का फैसला किया। वहाँ उनकी मुलाकात मार्शल फील्ड एंड कंपनी के एक अमेरिकी मिस्टर जांनसन से हुई। जिन्होंने उन्हें अमेरिकी बाज़ार के लिए शर्ट बनाने वाली कढ़ाई फैक्ट्री में काम पर रखा।

यहाँ कारखाने में काम करने समय उनके गदर सम्बंधों का पता चला और 1922 में प्रिंस आंफ वेल्स की मनीला यात्रा के दौरान उन्हें छह महीने केलिए नजरबंद कर दिया गया। फिर, छह साल तक फैक्ट्री में काम करने के बाद उन्होंने भारत लौटने का फैसला किया।


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भारत वापसी का फैसला

 

1925 की शुरुआत में मंगूराम ने समुद्री यात्रा शुरू की। वह इसाई मिशनरी की कंपनी में सीलौन पहुँचे, जिन्होंने जहाज पर उनसे मुलाकात की थी। उसके बाद उन्होंने उपमहाद्वीप से होते हुए मदुरै, मद्रास, बंबई, पूना, सतारा, नागपुर और दिल्ली का दौरा करते हुए पंजाब की यात्रा की।

 

उन्होंने पूरे रास्ते में सामाजिक परिस्थियों को बहुत खराब देखा, विशेषकर दलितों की दुर्दर्शा देखी और उन्हें देखकर निराश हुए।अपनी आत्मकथा में उन्होंन लिखा कि मैं अपने लोगों के साथ इतना बुरा व्यवहार देखा तो निराशा हुई, मदुरै में मीनाक्षी मंदिर के दर्शन के दौरान उन्हों अछूतों को न छूने के लिए कहा गया। बचपन की स्मृतियाँ ताजा हो गई और उनपर जैसे बिजली-सी गिरी।

 

मंगूराम बताते थे कि फ्रासिस्को मॆं गदर पार्टी ने उन्हें मंजूरी दे दी थी और भार में अछूतों के उत्थान के लिए नियुक्त किया था। इस प्रकार एक नये संदर्भ में सैन फ्रैसिस्कों के पुराने क्रांतिकारी ने गदर के भावना को जारी रखा।


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भारत में सामाजिक सुधार के प्रयास

1925 में, मंगूराम ने अपने गाँव में एक पाठशाला खोली और बच्चों को पढ़ाना शुरू किया।

 

वह आर्यसमाज में भी शामिल हुए परंतु आर्यसमाज में उन्होंने देखा उन्होंने छूआछूत के खिलाफ लड़ाई शुरू की थी परंतु ब्रह्माणवाद के सरंचना के भीतर। इससे उनको निराशा हुई और उन्हॊंने हिंदू धर्म से अलग एक संगठन शुरू किया एड-धर्म मंडल।

भगत सिंह अपने लेख अस्पृश्यता के समस्या लेख में जो 1928 में कीर्ति अखबार में छपा था। एंड-धर्म मंडल का उल्लेख करते है और अछूतों द्वारा खुद को प्रमुख धार्मिक संगठन से अलग संगठित होने के प्रयास का स्वागत करते है। भगतसिंह ने दलितों को संगठित होकर समाज के खिलाफ संघर्ष करने को सही बताते है।

 

पूना पैक्ट के समय जब गांधीजी अलग निर्वाचन क्षेत्र के खिलाफ अनशन शूरू किया। मगूंराम बाबा साहेब के पक्ष में खड़े हुए। उन्होंने गांधीजी के विरोध में अनशन भी किया।

 

स्वतंत्रता पूर्व राजनीतिक जीवन में मंगूराम 1946 में यूनियनिस्ट पार्टी के सदस्य के रूप में पंजाब विधानसभा के लिए चुने गए और 1972 में स्वतंत्रता के बाद कांगेस पार्टी से चुने गए। अपने दोनों कार्यकाल के दौरान उन्होंने अछूतों के लिए शैक्षिक और नौकरी के अवसरों के लिए दवाब डाला।

 

22 अप्रैल 1980 को 94 वर्ष के उम्र में उनका निधन हुआ। अपने 65 वर्षों के राजनीतिक जीवन में वह क्रांतिकारी भी रहे और अछूतों के समुदायों के समस्या को सतह पर लाने के लिए समर्पित भी रहे।

 

 


संदर्भ – Mohan Dass Namishray, Dalit Freedom Fighters, Gyan Publishing House, New Delhi, 47-51

Editor, The Credible History

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