जब गांधीजी ने अपनी अन्तिम कश्मीर यात्रा की
गांधी 1 अगस्त 1947 को पहली और आख़िरी बार कश्मीर गए । असल में शेख़ अब्दुल्ला की रिहाई में हो रही देरी और कश्मीर की अनिश्चितता को देखकर जवाहरलाल नेहरू ख़ुद कश्मीर जाना चाहते थे ।
लेकिन हालात की नाज़ुकी देखते हुए माउंटबेटन नहीं चाहते थे कि वह कश्मीर जाएँ और कोई नया तनाव पैदा हो । महाराजा भी नेहरू की यात्रा को लेकर सशंकित थे । ऐसे में माउंटबेटन के आग्रह पर महात्मा गांधी ने कश्मीर जाने का निर्णय लिया ।[i]
गांधी श्रीनगर पहुँचे तो जनता ने उनके स्वागत में शहर को ऐसे सजाया कि जैसे दीपावली हो । इस यात्रा में वह लाला किशोरीलाल के घर रुके ।[ii] शेख़ अब्दुल्ला की पत्नी अकबर जहाँ भी महात्मा गांधी की प्रार्थना सभा में शामिल हुईं ।[iii]
गांधीजी और महाराजा में क्या बातचीत हुई?
गांधी और महाराजा में क्या बातचीत हुई? यह ठीक-ठीक तो कोई नहीं जानता लेकिन इतना तय है कि उन्होंने राजा से जनता की इच्छा का सम्मान करने और शेख़ अब्दुल्ला को रिहा करने की माँग की । जम्मू में हिन्दू प्रतिनिधि मंडल से उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि केवल जनता के हाथ में यह तय करने की शक्ति होनी चाहिए कि वह किसके साथ जुड़ना चाहती है।
कश्मीर से रावलपिंडी रिफ्यूजी कैम्प के लिए निकलते हुए उन्होंने प्रेस से कहा कि कश्मीर का मुद्दा भारत, पाकिस्तान, महाराजा और कश्मीर की जनता को मिलकर शान्ति से सुलझाना चाहिए लेकिन यह कश्मीरी जनता के सबसे बड़े नेता शेख़ अब्दुल्ला को रिहा किये बिना संभव नहीं है ।[iv]
हालाँकि गांधी ने इसे एक अराजनीतिक यात्रा बताया लेकिन उस माहौल में यह संभव नहीं था कि इसके कोई राजनीतिक प्रभाव नहीं होते ।
गांधी अच्छी तरह जानते थे कि जहाँ महाराजा हरि सिंह लगातार टाल-मटोल कर रहे थे और भारत या पाकिस्तान से मिलने की जगह आज़ाद डोगरिस्तान का सपना देख रहे थे वहीँ शेख़ अब्दुल्ला भारत से विलय की अपनी इच्छा साफ़ कर चुके थे।
हालात यह थे कि उस दौर में वहाँ सक्रिय रहे बलराज पुरी बताते हैं कि जम्मू तक में भारत समर्थकों को महाराजा जेल में डाल रहे थे। उनके मंत्री रामचंद्र काक पाकिस्तान से सौदेबाज़ी कर रहे थे और शेख़ अब्दुल्लाह को जेल में डाल दिया गया। गांधी शेख़ अब्दुल्ला के सहारे कश्मीरी जनता के भारत के समर्थन की कोशिशें तो कर ही रहे थे साथ में हरि सिंह से भी उन्होंने इस बारे में बात की थी।
टाइम्स ने 25 अक्टूबर को लिखा –
ऐसे संकेत मिले हैं कि इन दिनों कश्मीर के हिन्दू महाराजा हरि सिंह तीन महीने पहले यहाँ आये गांधी और अन्य नेताओं से काफी प्रभावित हैं ।[v]
जब गांधीजी के यात्रा के कारण रामचंद्र काक बर्ख़ास्त हुए
गांधी यात्रा का पहला प्रभाव यह हुआ कि जनता के बीच बेहद बदनाम रामचंद्र काक को प्रधानमंत्री पद से बर्ख़ास्त कर दिया गया। लगभग सभी लेखकों ने इस तथ्य का ज़िक्र किया है कि गांधी ने रामचंद्र काक की तीख़ी आलोचना की थी ।
इसके बाद पहले जनक सिंह को और फिर सीमा निर्धारण के समय भारत के प्रतिनिधि रहे पूर्वी पंजाब के उच्च न्यायालय के न्यायधीश मेहरचंद महाजन को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया, यह आम मान्यता है कि महाजन के नाम का सुझाव भारत सरकार का था ।
यही नहीं, इस दौर में भारत के साथ संपर्क बेहतर बनाने के लिए सड़क, टेलीग्राफ़ तथा रेल मार्गों को बेहतर बनाने के लिए काम किया गया । सितम्बर 1947 के अंत में जम्मू और कश्मीर की राज्य सेनाओं के प्रमुख स्काट के सेवानिवृत्त होने पर पटेल ने तत्कालीन रक्षा मंत्री बलदेव सिंह को यह अनुशंसा की कि उसकी जगह लेने के लिए भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट कर्नल कश्मीर सिंह कटोच को भेजा जाए ।
स्पष्ट तौर पर यह नियुक्ति भारत के अपने हित में भी थी और इसका स्वीकार महाराजा की ओर से भारत की ओर बढ़ा हुआ क़दम था । इन क़दमों ने शेख़ अब्दुल्ला से मित्रता के कारण कांग्रेस को अपना शत्रु समझने वाले महाराजा के लिए यह स्पष्ट संकेत दिया कि शेख़ को कश्मीर की राजनीति में उचित स्थान देकर भारत के साथ विलय की दशा में उनके हितों का भी पूरा ध्यान रखा जाएगा ।[vi]
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वहाँ से लौटकर उन्होंने अपने नोट में लिखा था –
बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद को यह पूरा भरोसा था कि अगर शेख़ अब्दुल्ला और उनके साथियों को रिहा कर दिया जाए, प्रतिबन्ध हटा दिए जाएँ और वर्तमान प्रधानमन्त्री को बर्खास्त कर दिया जाए तो लोगों के स्वतंत्र मतदान का नतीज़ा भारत से विलय के पक्ष में होगा। संभवतः वह आम जनभावना व्यक्त कर रहे थे।[vii]
गांधी की यात्रा का महत्त्व इस तथ्य की वज़ह से भी बढ़ जाता है कि इसी दौरान जिन्ना भी लगातार कश्मीर आने की कोशिश कर रहे थे । उन्होंने महाराजा को कई संदेशे भिजवाये जिनमें स्वास्थ्य लाभ के कारण से श्रीनगर आने की बात थी ।
लेकिन महाराजा ने बहुत विनम्रता से यह कहते हुए मना कर दिया कि वह अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि एक महत्त्वपूर्ण पड़ोसी देश के राज्य प्रमुख के स्वागत के लिए आवश्यक व्यवस्थाएँ कर सकें ।[viii]
साभार
अशोक कुमार पांडेय, उसने गांधी को क्या मारा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021, पेज- 229-232
संदर्भ
[i] देखें, पेज 438, कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी, खंड 96 ( गाँधी आश्रम सेवाग्राम द्वारा प्रकाशित)
[ii] देखें, वही, पेज 189
[iii]देखें, पेज़ 84-85, फ्लेम्स ऑफ़ चिनार, शेख़ अब्दुल्ला (अनुवाद – खुशवंत सिंह), पेंगुइन- दिल्ली- 1993
[iv]देखें, पेज़ 145, फ्रीडम स्ट्रगल इन कश्मीर, ऍफ़ एम हसनैन, रीमा पब्लिशिंग हाउस, 1988, दिल्ली
[v]देखें, पेज़ 43, टू नेशंस एंड कश्मीर, लॉर्ड वुडबर्ड, रॉबर्ट हेल लिमिटेड, लन्दन – 1956
[vi]देखें, पेज़ 69-70, पाकिस्तान ऑकुपाइड कश्मीर : द अनटोल्ड स्टोरी, (सं) वीरेन्द्र गुप्ता और आलोक बंसल, इंस्टीच्यूट फॉर डिफेन्स स्टडीज़ एंड एनालिसिस, मानस प्रकाशन, दिल्ली – 2016
[vii] देखें, पेज 194, कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी, खंड 96 ( गाँधी आश्रम सेवाग्राम द्वारा प्रकाशित)
[viii]देखें, वही, पेज़ 71
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में