हिन्दी पत्रकारिता में महिला विचारधारा के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र
भारतेंदु हरिश्चंद्र को केवल 34 साल की आयु मिली, इतने ही समय में उन्होंने गद्य से लेकर कविता, नाटक और पत्रकारिता तक हिंदी का नक्शा बदलकर रख दिया। जिसके लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का पितामह भी कहा जाता है। वह एक उत्कृष्ट कवि, सशक्त व्यंग्यकार, सफल नाटककार, जागरूक पत्रकार तथा ओजस्वी गद्यकार थे। इसके अलावा वह लेखक, कवि, संपादक, निबंधकार, एवं कुशल वक्ता भी थे।
भारतेंदु हरिश्चंद्र का समूचा रचनाकर्म पथदर्शक के तरह है
भारतेंदु हरिश्चंद्र हरिश्चंद्र का पदार्पण हिंदी पत्रकारिता की एक युगांतकारी घटना थी । उनके आगमन से हिंदी पत्रकारिता को विकसित होने का अवसर प्राप्त हुआ। उनके असाधारण योगदान को देखते हुए हिंदी पत्रकारिता के 1867 से लेकर 1900 तक के कालखंड को भारतेंदु युग के नाम से जाना जाता है।भारतेंदु बाबू ने, रीतिकाल की विकृत सामन्ती संस्कृति की पोषक वृत्तियों को छोड़कर स्वस्थ परम्परा की भूमि अपनाई और नवीनता के बीज बोए। यह सामंतवाद के अंत और औद्योगिक क्रांति के बाद पूंजीवाद के जन्म का समय भी था।
उन्नीसवीं सदी के हिन्दी समाज का लोकवृत्त भारतेन्दु के इर्द गिर्द ही गढ़ा जा रहा था। उस युग में सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक बदलावों का वाहन बनने वाली कई महत्त्वपूर्ण संस्थाओं की स्थापना भारतेन्दु ने की थी।
उनके युग के सभी महत्त्वपूर्ण रचनाकार और पत्रकार हरिश्चंद्र मंडल में शामिल थे। बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, श्रीनिवासदास, काशिनाथ आदि लेखकों का व्यूह रचाया हो, जिसने ‘कवि-वचन-सुधा’ से लेकर ‘सारसुधा निधि’ तक पचीसों अखबारों और पत्रों से हिन्दी में नयी हलचल मचा दी।
हिन्दी नवजागरण की महत्त्वपूर्ण विद्वान वसुधा डालमिया ने भारतेन्दु हरिश्चंद्र को ‘सांस्कृतिक और सामाजिक अथारिटी’ की संज्ञा देते हुए लिखा है-
‘‘भारतेन्दु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिन्दी साहित्य में अग्रणी स्थान प्राप्त है।
उन्होंने मात्रा और गुणवत्ता की दृष्टि से इतना लिखा और इतनी दिशाओं में काम किया कि उनका समूचा रचनाकर्म पथदर्शक बन गया।
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हिन्दी पत्रकारिता में लैंगिक विचारधारा के जनक
अपने दौर के इतने केंद्रीय महत्व के व्यक्तित्व -‘भारतेन्दु’ ने स्त्रियों की स्थिति पर जो चिन्तन-लेखन किया था, उसका उनके समय में अत्याधिक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा होगा और इसने समाज के चलन को निर्धारित करने में महती भूमिका निभाई होगी।
अतः भारतेन्दु के स्त्री-संबंधी विचार न केवल उस दौर की स्त्री की नियति को जानने के लिए ज़रूरी है, बल्कि उस वक़्त नई पितृ संरचना की जो बुनियाद डाली गई थी, उसकी मीनार आज के समाज में बुलंद हो रही है। अतः इससे आज की स्त्रियों की दशा को भी समझने में मदद मिलेगी।
भारतेन्दु अपनी साहित्यिक सेवा, सामाजिक परिवर्तन और राजनीति में अपनी दखल के कारण अपने युग के निर्माता बन चुके थे। अतः भारतेन्दु के स्त्री विषयक विचार का अध्ययन न केवल उस युग के अन्य हिन्दी बौद्धिकों के विचार से अवगत होने के लिए आवश्यक है, वरन उस युग की प्रमुख सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक प्रवृत्तियों के अध्ययन के लिए भी अनिवार्य है।
‘बालाबोधिनी’ पत्रिका में प्रकाशित सामग्री को महिलाओं को सद्गृहिणी और पतिव्रता बनाने की परियोजना कहा जा सकता है। परंतु, महिलाओं के लिए पत्रकारिता के जगत में यह पहला प्रयोग था इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
1870 का दशक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रकाशन संबंधी गतिविधियों के उत्कर्ष का समय था और वह उत्तर-पश्चिम प्रान्त के केंद्रीय लोकनायक के रूप में स्थापित हो चुके थे। उनके द्वारा प्रकाशित की जा रही दो पत्रिकाएं – कविवचन सुधा और हरिश्चंद्र मैगज़ीन अपने वक़्त में अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुकी थीं। इन पत्रिकाओं में वह समाज-सुधार के मसलों पर समय-समय पर बहसें आयोजित किया करते थे। लेकिन इन सबसे अलग उन्होंने एक महिला-पत्रिका ‘बालाबोधिनी’ का प्रकाशन 1874 में शुरू किया। यह दस पृष्ठों की पत्रिका थी।
इसका प्रवेशांक जनवरी 1974 में प्रकाशित हुआ था। यह कुल मिलाकर तीन साल और कुछ महीने तक प्रकाशित हो सकी। इसके बारे में यह तो ज्ञात नहीं कि इसकी कितनी प्रतियाँ प्रकाशित होती थीं, लेकिन इसकी सौ प्रतियाँ सरकार की तरफ से खरीदी जाती थीं। सरकार का संरक्षण समाप्त होने के साथ ही फ़रवरी 1878 के बाद इसे ‘कविवचन सुधा’ में समाहित कर दिया गया। इसमें भारतेन्दु के अलावा अन्य लेखकों की भी रचनाएँ प्रकाशित होती थीं।
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असमय निधन के कारण भारतेंदु,हिंदी का पहला उपन्यास नहीं लिख सके
भारतेंदु एक श्रेष्ठ पत्रकार थे. उन्होंने बालाबोधिनी, कविवचन सुधा और हरिश्चंद्र मैगजीन (बाद में हरिश्चंद्र पत्रिका) जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन और संपादन कर साहित्य से अलग विषयों और समस्याओं पर लिखा। इन पत्रिकाओं के जरिए उन्होंने न केवल नई किस्म की भाषा का विकास किया बल्कि आधुनिक भारत की समस्याओं पर भी खुलकर चिंतन किया।
वह इन पत्रिकाओं के जरिए अक्सर देशप्रेम विकसित करने की कोशिश किया करते थे. हरिश्चंद्र बाबू ने इन पत्रिकाओं के लिए ढेरों निबंध, आलोचना और रिपोर्ताज लिखे। इन विधाओं की स्थापना भारतेंदु और इनके साथियों के प्रयासों से ही हुई। अपनी पत्रिकाओं में विविध विषयों पर लिखे अपने लेखों से उन्होंने अन्य लेखकों को भी प्रेरित किया।
उनके साथी बालकृष्ण भट्ट और प्रताप नारायण मिश्र की लेखनी पर भारतेंदु का स्पष्ट प्रभाव दिखता था। उन्होंने दिखाया कि कैसे साहित्य से इतर विधाओं में भी आम-जीवन से जुड़े विषयों पर लिखा जा सकता है। इन वजहों से उनकी पत्रिका लोगों में हिंदी के प्रति अभिरुचि विकसित करने में कामयाब हुई।
हरिश्चंद्र बाबू का व्यक्तित्व और कृतित्व बहुआयामी था। उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य की लगभग सभी विधाओं में योगदान दिया विशेषकर गद्य साहित्य में।
आधुनिक हिंदी साहित्य के सभी विधाओं के बीज इनकी रचनाओं में मिल जाते हैं। इन्होंने अपने को किसी एक विधा तक सीमित नहीं रखा था। वह ‘कुछ आपबीती, कुछ जगबीती’ नामक उपन्यास भी लिख रहे थे, लेकिन असमय निधन से वह यह काम पूरा न कर सके।
उनका यह सपना बाद में उनके साथी श्रीनिवास दास ने हिंदी का पहला उपन्यास ‘परीक्षा गुरु’ लिखकर पूरा किया। ऐसी अद्वितीय प्रतिभा दुर्भाग्य से अपने जीवन के चौथे ही दशक में छह जनवरी, 1885 को दुनिया से कूच कर गई।
संदर्भ
शंभुनाथ, हिंदी नवजारण, भारतेन्दु और उसके बाद, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, 2022
वंसुधा डालमिया, हिंदू परंपराओं का राष्ट्रीयकरण, भारतेंदु हरिश्चंद्र और उन्नीसवीं सदी का बनारस,राजकमल प्रकाशन, 2016
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में