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जब गांधी और सुभाष ने सुलझाई मज़दूरों की समस्या

 

टाटा स्टील और जमशेदपुर शहर भारत के कई नेताओं और स्वतंत्रता सेनानियों की यात्राओं का एक नियमित पड़ाव रहा है। लोग जब भारत को अंग्रेजों  से स्वतन्त्रता दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे थे तो टाटा भारत को नया औद्योगिक भविष्य देने का अथक प्रयास में जुटे हुए थे। कई नेता टिस्को से बड़ी निकटता से जुड़े हुए थे और कुछ तो संयन्त्र में कोई बड़ी समस्या खड़ी होने पर उसे सुलझाने की भी कोशिश करते थे। इस मामले में सुभाषचंद्र बोस और महात्मा गांधी की भूमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय थी। उन्होंने इस दौरान पैदा होनेवाली कई श्रामिक समस्याओं को हल करने में काफ़ी मदद की।

 

 

टाटा परिवार के साथ गांधीजी के सम्बन्ध

टाटा परिवार के साथ गांधीजी के सम्बन्धों की शुरुआत 1909 में हुई थी, जब रतन जमशेदजी टाटा  ने उन्हें 25 हज़ार के पाँच चेकों की शृंखला का पहला चेक भेजा था। टाटा परिवार और टाटा स्टील के साथ गांधीजी का जुड़ाव आर्थिक मदद तक ही सीमित नहीं था। गांधीजी ने जमशेदपुर का दौरा 1925 के दौरान किया था। उन दिनों टाटा स्टील में यूनियन और प्रबन्धकों के बीच कुछ मतभेद पैदा हो गए थे और उम्मीद थी कि गांधीजी इन्हें दूर कर सकेंगे। गांधीजी समस्या का समाधान करने में सफल भी रहे।

 

जमशेदपुर में गांधीजी का बड़े स्नेह और उत्साह के साथ स्वागत किया गया। उन्होंने स्त्रियों द्वारा चरखा कातने का प्रदर्शन देखा और शाम के मैदान में आयोजित एक जनसभा में 20,000 से अधिक लोगों की भीड़ को सम्बोधित किया। उन्होंने  इस्पात संयन्त्र का दौरा करने पर प्रसन्नता व्यक्त की और कहा-

आप लोग जानते हैं, मैं खुद भी एक मज़दूर हूँ। मैं अपने-आपको झाड़ूवाला, बुनकर, कताईवाला, किसान और जाने क्या-क्या कहकर गर्व महसूस करता हूँ और मैं इस बात को लेकर शर्मिन्दा महसूस नहीं करता हूँ कि इनमें से कुछ काम मैं अच्छी तरह नहीं जानता। अपने-आपको मज़दूर जमात के साथ जोड़कर मुझे बहुत खुशी महसूस होती है क्योंकि मज़दूरी के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते, मज़दूरी के साथ मेरी पहचान  और पूंजी के साथ मेरी मित्रता में कोई परेशानी पैदा नहीं होती।

 

उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष के दौरान  सर रतन टाटा की उदारता को याद किया और कहा- मैं इस महान भारतीय फर्म की समृद्धि की कामना करता हूँ । क्या मैं उम्मीद करूँ कि इस महान घराने और इसके संरक्षण में काम करनेवाले श्रमिकों के बीच अत्यन्त मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रहेंगे?

उनका दूसरा दौरा 1934 में हुआ। इस बार वह रांची से उड़ीसा जाते हुए वहाँ रुके थे।

 

जमशेदपुर के नागरिकों ने उन्हें 5000 रुपये भेंट किए थे।  हरिजनों से जुड़े गांधीजी के काम के लिए। इस बार मीराबेन उनके साथ थीं। स्वागत समिति के अध्यक्ष ठक्कर बापा ने गांधीजी को बताया कि एक बच्ची उनसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक थी, लेकिन अचानक ही उनकी तबीयत खराब हो गई और अब वह टाटा मेन अस्पताल में भर्ती थी।

 

गांधीजी सिर्फ 10 घंटों के लिए जमशेदपुर आए थे, लेकिन वह अस्पताल जाकर उस बच्ची से मिले। उसके साथ कुछ समय बिताने के बाद गांधीजी ने विदा लेनी चाही तो उस बच्ची ने उन्हें जाने देने से मना कर दिया।गांधीजी ने उसे प्यार से समझाया कि उनका जाना क्यों ज़रूरी है और फिर उसकी अनुमति लेने के बाद ही वह उसे अपना आशीर्वाद देते हुए वहाँ से विदा हुए।


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रूसी क्रांति के बाद, टिस्को में ट्रेड यूनियन आन्दोलन

 

टिस्को के सामने आनेवाली यह आखिरी श्रमिक समस्या नहीं थी। रूसी क्रांति के बाद 1920 का दशक श्रमिक आन्दोलन और वर्ग संघर्ष का दशक था और भारत का सबसे प्रमुख औद्यौगिक संयन्त्र टिस्को भी उसके प्रभाव से बच नहीं पाया था। विदेशों से आए इस्पात विशेषज्ञ शिष्ट स्वभाव के नहीं थे और श्रमिकों के साथ रुखे ढंग से पेश आते थे।

 

1911 में अपनी शुरुआत के बाद 1920 तक संयन्त्र बिना किसी व्यवधान के चलता रहा था हालांकि विदेशी अधिकारी, उन दिनो के चलन को देखते हुए, श्रमिकों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे। श्रमिक इन बार से नाराज भी थे और कुद्ध भी।

 

पहले विश्वयुद्ध के दौरान श्रमिकों के वेतन में 10 प्रतिशत की वृद्धि कर दी गई थी। युद्ध खत्म होने के बाद श्रमिक इस बात को लेकर आशंकित थे कि यह वृद्धि किसी भी दिन वापस ली जा सकती है। प्रबन्धकों का इस तरह का कोई इरादा नहीं था। लेकिन वह यह बात श्रमिकों को समझाने में सफल नहीं हो सके।

 

1920 में भारत में श्रमिक सम्बन्धों ने अचानक एक नया मोड़ ले लिया। रूस में  कम्युनिस्ट क्रान्ति की सफलता का प्रभाव भारत पर भी पड़ा और यहाँ भी श्रमिक असन्तोष की हवा बहन लगी थी। विदेशों से प्रभावित और भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कम्युनिस्ट साहित्य श्रमिकों के घरों में पहुँचने लगा था। ट्रेड यूनियन आन्दोलन ज़ोर पकड़ रहा था।

 

कर्मचारियों के हितों का ध्यान रखने में टिस्को दूसरों से हमेशा आगे रही थी। परंतु, 1920 में कम्पनी को फ्लैश स्ट्राइक का झटका पड़ा जिससे प्रबन्धकों को अचम्भे में डाल दिया। 1922 में एक बार फिर कम्पनी को हड़ताल की मार झेलनी पड़ी। तीसरी बार हड़ताल दो वर्ष बाद उस समय हुई जब पैसों की कमी के कारण कम्पनी बंद होने के कगार पर खड़ी हुई थी। कम्पनी ने यूनियन के जनरल सेक्रेटरी जी.सेठी को बर्खास्त कर दिया था।

सी.एफ. एंड्रयूज थे, पहले यूनियन अध्यक्ष

 

महात्मा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद और सी.एफ. एंड्रयूज जमशेदपुर आर और उन्होंने टाटा परिवार को यूनियन को मान्यता देने और जी.सेठी को नौकरी पर वापस रखने की सलाह दी। सेठी को वापस रख लिया गया और इस शर्त के साथ यूनियन को मान्यता देने की बात भी मान ली गई कि यह सवैधानिक ढंग से काम करेगी, बल्कि कम्पनी एक कदम और आगे जाते हुए कर्मचारियों के वेतन में से प्रतिमाह चार आने सदस्यता शुल्क के रूप में जमशेदपुर श्रमिक संघ के लिए भी राजी हो गई।

 

सी.एफ. एंड्रयूज इस यूनियन के पहले अध्यक्ष चुने गए। सी.एफ. एंड्रयूज ने यूनियन की भलाई के लिए हर सम्भव प्रयास किया, लेकिन स्वाधीनता आन्दोलन और अन्य गतिविधियों में अपनी भूमिका के कारण उन्हें लम्बे समय के लिए जमशेदपुर से दूर रहना पड़ता था।

 

अगले कुछ वर्षों में  मानेक होमी नामक एक व्यक्ति, जो यूनियन की कार्यकारी समिति का सदस्य तक नहीं था, यूनियन पर हावी होने लगा। वह आदिवासियों की भाषा बोलता था और श्रमिकों के बीच काफी लोकप्रिय था। फरवरी से मई 1928 के बीच अलग-अलग कारखानों में श्रमिकों ने कई बार काम बंद किया। उनकी कोई भी मांग नहीं थी। वह सिर्फ इतना चाहते थे कि प्रबन्धक मानेक होमी से बात करे।

 


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जब सुभाषचंद्र बोस ने सुलझाई यूनियन की समस्या

 

आखिर 1 जून 1928 को कम्पनी ने तालाबंदी की घोषणा कर दी। इस अवसर पर सुभाषचंद बोस ने जमशेदपुर लेबर यूनियन की अध्यक्षता की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और बीच-बचाव करके कोई समझौता करवाने की कोशिश की। इस बीच कम्पनी मानेक होमी की जमशेदपुर लेबर फेडरेशन की भी मान्यता दे चुकी थी।

 

प्रबन्धकों ने सितम्बर 1928 में सुभाषचंद्र बोस के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, लेकिन मानेक होमी शुरू से आखरी तक इसका विरोध करते रहे। यह बोस और प्रबन्धकों के लिए ही एक कठिन समय था। बोस ने इस सम्बन्ध में प्रबन्धकों को कुछ पत्र भी लिखे और एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके मानेक होमी की भर्त्सना भी कि, जिन्हें वह शुरु से श्रमिकों का मित्र मानते रहे थे।

उन्होंने लिखा कि

श्रमिकों को बाँटकर श्री होमी न तो श्रम का भला कर रहे हैं और न पूंजी का। अगर एक व्यक्ति की सनक और तिकड़मबाजी को एक सार्वजनिक उदेश्य को क्षति पहुँचाने दी जाती है, तो यह भारत के लिए बहुत अनिष्टकारी दिन होगा। जमशेदपुर के श्रम को बचाने की ज़रूरत  है और श्रम को बचाने के लिए भारतीय इस्ताप उद्योग को दिवालिएपन से बचाने की ज़रूरत  है।

 

जाने-माने मज़दूर नेता श्री जमनादास मेहता ने भी बीच-बचाव करने की कोशिश की और मानेक होमी के बारे में उसी निष्कर्ष पर पहुँचे  जिस पर उनसे पहले सुभाषचंद्र बोस ने लिखा था, होमी अब भी सक्रिय है। समझौते के बाद उन्होंने यह शोर मचाना शुरू कर दिया है कि हमें कम्पनी ने बहुत भारी रिश्वत दी है।

 

इस पत्र में सुभाषचंद्र बोस ने एक श्रमिक ने जुड़े प्रसंग का जिक्र किया है, जिसे होमी के आदमियों ने पहले प्रलोभन दिया फिर धमकी दी और मारा-पीटा। बोस ने लिखा, दुर्भाग्यवश हम इस तरह के हथकंडे  नहीं अपना सकते क्योंकि जहाँ होमी अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अनैतिक दांव-पेचों का सहारा ले सकते हैं वहीं हम जनता को शिक्षित करने में विश्वास करते हैं। इसलिए हमारे लिए ईमानदारी ही सर्वोत्तम नीति है।

 

कम्पनी के जनरल मैनेजर एल.ए एल्कजेंडर के नाम अपने एक अन्य पत्र में सुभाषचंद्र बोस ने लिखा था:

मेरी दिलचस्पी सिर्फ इस बात में है कि श्रमिक संघ को दुष्ट और अनैतिक दलालों से बचाया जाए और कम्पनी को अपने-आपको पुनर्व्यवस्थित करके श्रमिकों की शिकायत को दूर करने का अवसर दिया जाए।

सरकारी अधिकारियों ने मानेक होमी को यूनियन का पैसा हड़पने का दोषी पाया। इस अपराध के लिए उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी और कुछ समय के लिए उनकी ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर रोक लग गई। जेल से लौटाने के बाद उन्होंने अपना पुराना दबदबा फिर से हासिल करने की कोशिश की, लेकिन 1945  के बाद वे धीरे-धीरे मंच से अदृश्य होते चले गए।

 

इस बीच सुभाषचंद्र बोस ने, जो 1928 के अध्यक्ष बने थे बहुत उल्लेखनीय काम किया और कम्पनी में ज्यादा से ज्यादा भारतीयों की नियुक्ति पर ज़ोर दिया। उनके इस उल्लेखनीय योगदान को टाटा परिवार ने भी स्वीकार किया।

 

इस तरह महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस ने मिलकर टाटा परिवार के साथ देश में नई औद्योगिक संस्कृति का सूत्रपात किया।


संदर्भ

आर.एम.लाला, भूमिका रतन एन.टाटा, अनुवाद- युगांक धीर, टाटा स्टील का रोमांस, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009

 

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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