जब होली के दिन बब्बर अकालियों को फाँसी पर चढ़ाया गया- भगत सिंह
घर से भागकर भगतसिंह कानपुर चले गये। वहाँ वे गणेशशंकर विद्यार्थी के साप्ताहिक ‘प्रताप’ के सम्पादकीय विभाग में काम करने लगे। कानपुर में ही क्रान्तिकारी पार्टी से उनके गहरे सम्बन्ध बने। शिव वर्मा, जयदेव कपूर, बटुकेश्वर दत्त, विजयकुमार सिन्हा व क्रान्तिकारी पार्टी के अन्य साथियों के साथ राजनीतिक बहसें और अध्ययन चलता रहा।
पंजाब में बब्बर अकाली आन्दोलन चल रहा था। उस आन्दोलन के छह कार्यकर्ताओं की फाँसी पर ‘एक पंजाबी युवक’ के नाम से 15 मार्च, 1926 के ‘प्रताप’ में यह लेख हिन्दी में छपा था। उस आन्दोलन की जानकारी तो लेख से मिलती ही है, साढ़े अठारह वर्षीय भगतसिंह की मानसिक परिपक्वता भी इस लेख से झलकती है।
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जब होली के दिन एक भीषण कांड हुआ
होली के दिन – 27 फरवरी, 1926 के दिन, जब हम लोग खेल-कूद में व्यस्त हो रहे थे, उसी समय इस विशाल प्रदेश के एक कोने में एक भीषण कांड किया जा रहा था । सुनोगे तो सिहर उठोगे ! काँप उठोगे !!
लाहौर सेंट्रल जेल में ठीक उसी दिन छह बब्बर अकाली वीर फाँसी पर लटका दिए गए। श्री किशन सिंह जी गड़गज्ज, श्री सन्ता सिंह जी, श्री दिलीप सिंह जी, श्री नन्द सिंह जी, श्री करम सिंह जी व श्री धरम सिंह जी लगभग दो वर्ष से अपने इसी अभियोग में जो उपेक्षा, जो लापरवाही दिखा रहे थे, उसी से जाना जा सकता था कि वे इस दिन की प्रतीक्षा कितने चाव से करते थे। महीनों बाद जज महोदय ने फैसला सुनाया। पाँच को फाँसी, बहुतों को काला पानी अथवा देश निकाला और लम्बी-लम्बी कैदें। अभियुक्त वीर गरज उठे। उन्होंने आकाश को अपने जयघोषों से गुंजायमान कर दिया। अपील हुई। पांच की जगह छह मृत्युदंड के भागी बने। उस दिन समाचार पढ़ा कि दया के लिए अपील भेजी गई है, पंजाब सचिव ने घोषणा की कि अभी फाँसी नहीं दी जाएगी। प्रतीक्षा थी,
परन्तु एकाएक क्या देखते हैं कि होली के दिन शोकग्रस्त लोगों का एक छोटा समूह उन वीरों के मृत शवों को श्मशान में लिए जा रहा है। चुपचाप उनकी अन्त्येष्टि-क्रिया समाप्त हो गई।
नगर में वही धूम थी। आने-जाने वालों पर उसी प्रकार रंग डाला जा रहा था। कैसी भीषण उपेक्षा थी ! यदि वे पथभ्रष्ट थे तो होने दो, उन्मत्त थे तो होने दो। वे निर्भीक देशभक्त तो थे । उन्होंने जो कुछ किया था, इस अभागे देश के ही लिए तो किया था । वे अन्याय न सहन कर सके, देश की पतित अवस्था को न देख सके, निर्बलों पर ढाए जाने वाले अत्याचार उनके लिए असह्य हो उठे, आम जनता का शोषण वह बर्दाश्त न कर सके, उन्होंने ललकारा और वे कूद पड़े कर्मक्षेत्र में वे सजीव थे, वे सदृश थे। कर्मक्षेत्र की भीषणते ! धन्य है तू !!
मृत्यु के पश्चात् मित्र शत्रु सब समान हो जाते हैं, यह आदर्श है पुरुषों का। अगर उन्होंने कोई घृणित कार्य किया भी हो, तो स्वदेश के चरणों में जिस साहस और तत्परता से उन्होंने अपने प्राण चढ़ा दिए, उसे देखते हुए तो उनकी पूजा की जानी चाहिए। श्री गार्ड महोदय विपक्षी दल के होने पर भी जतिन मुखर्जी, बंगाल के वीर क्रांतिकारी, की मृत्यु पर शोक प्रकट करते हुए उनकी वीरता, देशप्रेम और कर्मशीलता की मुक्त कंठ से प्रशंसा कर सकते हैं, परन्तु हम, कायर नरपशु, एक क्षण के लिए भी आनन्द-विलास छोड़ वीरों की मृत्यु पर आह तक भरने का साहस नहीं करते।
कितनी निराशाजनक बात है ! उन गरीबों का जो अपराध, नौकरशाही की दृष्टि में था, उसका उन्होंने पर्याप्त दंड, क्रूर नौकरशाही की भी दृष्टि में पा लिया। इस भीषण दुखान्त नाटक का एक और पर्व समाप्त हो गया। अभी यवनिका पतन नहीं हुआ है। नाटक अभी कुछ दिन और भीषण दृश्य दिखाएगा। कथा लम्बी है, सुनने के लिए जरा दूर तक पीछे मुड़ना होगा।
क्रांतिकारीयों में मास्साब के नाम से मशहूर, पं॰ गेंदालाल दीक्षित
असहयोग आन्दोलन के बाद गुरु का बाग आंदोलन शुरू हुआ
असहयोग आन्दोलन पूरे यौवन पर था। पंजाब किसी से पीछे नहीं रहा। पंजाब में सिख भी उठे, बड़ी गहरी नींद से उठे और उठे खूब जोरों के साथ अकाली आंदोलन शुरू हुआ। बलिदानों की लड़ी लग गई। मास्टर मोता सिंह, खालसा मिडिल स्कूल, माहलपुर, जिला होशियारपुर के भूतपूर्व मास्टर महोदय ने एक व्याख्यान दिया। उनका वारंट निकला। परन्तु सम्राट का आतिथ्य उन्हें स्वीकार न था। यों ही जेलों में चले जाने के वे विरोधी थे। उनके व्याख्यान फिर भी होते रहे। कोट फतुही नामक ग्राम में भारी दीवान हुआ, पुलिस ने चारों ओर से घेरा डाला, फिर भी मास्टर मोता सिंह ने व्याख्यान दिया। अन्त में प्रधान की आज्ञा से सभी दर्शक उठ गए। मास्टरजी न जाने किधर पहुँचे । बहुत दिनों तक इसी तरह यह आँख मिचौली का खेल होता रहा। सरकार बौखला उठी । अन्त में एक हमजोली ने धोखा दिया और डेढ़ वर्ष बाद एक दिन मास्टर साहब पकड़ लिए गए। यह पहला दृश्य था उस भयानक नाटक का ।
गुरु का बाग आंदोलन शुरू हुआ। निहत्थे वीरों पर जिस समय भाड़े के टट्टू टूट पड़ते, उन्हें मार-मारकर अधमरा-सा कर देते, देखने-सुनने वालों में से कौन होगा जो द्रवित न हो उठा हो ! चारों ओर गिरफ्तारियों की धूम थी। सरदार किशन सिंह गड़गज्ज के नाम भी वारंट निकला। मगर वे भी तो उसी दल के थे। उन्होंने भी गिरफ्तार होना स्वीकार नहीं किया। पुलिस हाथ धोकर पीछे पड़ गई, पर फिर भी वे बचते ही रहे। उनका संगठित किया हुआ अपना एक क्रान्तिकारी दल था । निहत्थों पर किए जाने वाले अत्याचार को वे सहन न कर सके। इस शांतिपूर्ण आन्दोलन के साथ-साथ उन्होंने शस्त्रों का प्रयोग भी जरूरी समझा ।
एक ओर कुत्ते, शिकारी कुत्ते, उनको खोज निकालने के लिए सूंघते फिरते थे, दूसरी ओर निश्चित हुआ कि खुशामदियों (झोलीचुक्कों) का सुधार किया जाए। सरदार किशन सिंह जी कहते थे, अपनी रक्षा के लिए हमें सशस्त्र जरूर रहना चाहिए, पर अभी कोई और कदम न उठाना चाहिए। परन्तु बहुमत दूसरी ओर था। अन्त में फैसला हुआ कि तीन व्यक्ति अपने नाम घोषित कर दें और सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लें तथा झोलीचुक्कों का सुधार शुरू कर दें। श्री कर्म सिंह, श्री धन्ना सिंह तथा श्री उदय सिंह जी आगे बढ़े। यह उचित था अथवा अनुचित इसे एक ओर हटाकर ज़रा उस समय की कल्पना तो कीजिए, जब इन नवीन वीरों ने शपथ ली थी-
‘हम देश-सेवा में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देंगे, हम प्रतिज्ञा करते हैं कि लड़ते-लड़ते मर जाएँगे, मगर जेल जाना मंजूर न करेंगे।‘
जिन्होंने अपने परिवार का मोह त्याग दिया था वे लोग जब ऐसी शपथ ले रहे थे, उस समय कैसा सुन्दर, मनोरम पवित्रता से परिपूर्ण दृश्य रहा होगा! आत्म-त्याग की पराकाष्ठा कहाँ है? साहस और निर्भीकता की सीमा किस ओर है? आदर्श परायणता की चरमता का निवास किधर है?
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पंजाब में बलिदानों की लड़ी लग गई
श्याम चुरासी, होशियारपुर ब्रांच रेलवे लाइन के एक स्टेशन के निकट सबसे पहले एक सूबेदार पर हाथ साफ़ किया गया। उसके बाद इन तीनों व्यक्तियों ने अपने नाम भी घोषित कर दिये। सरकार ने पूरी ताक़त लगाकर इन्हें पकड़ने की कोशिश की, मगर सफलता न मिली। रुड़की कलाँ में सरदार किशन सिंह गड़गज्ज घिर गये। उनके साथ एक और युवक भी था जो वहीं घायल होकर पकड़ा गया। परन्तु किशन सिंह वहाँ से भी अपने शस्त्रों की सहायता से बच निकले।
रास्ते में उन्हें एक साधु मिला। उसने उन्हें बताया कि उसके पास एक ऐसी बूटी है कि जिसकी सहायता से मनचाहा काम आसानी से किया जा सकता है। भ्रम में फँसकर एक दिन वे अपने शस्त्र रखकर इसी साधु के पास गये। कुछ दवाई रगड़ने को देकर साधु बूटी लेने गया और पुलिस को ले आया। सरदार साहब पकड़ लिये गये। वह साधु सी.आई.डी. विभाग का सब-इंस्पेक्टर था। बब्बर अकाली वीरों ने अपना काम ख़ूब ज़ोरों के साथ शुरू कर दिया। कितने ही सरकार के सहायक मार डाले गये।
दोआब – व्यास और सतलुज के बीच में, जालन्धर और होशियारपुर का ज़िला पहले ही भारत के राजनीतिक मानचित्र में प्रसिद्ध है। 1915 के शहीदों में भी अधिकतर इन्हीं ज़िलों के लोग थे। अब फिर वहीं पर धूम मची। पुलिस विभाग ने सारी शक्ति ख़र्च कर दी, परन्तु कुछ न बन पड़ा। जालन्धर से कुछ दूर एक बिल्कुल छोटी-सी नदी है। उसके किनारे एक गाँव में ‘चौंतासाहब’ नामक गुरुद्वारा है। उसमें श्री कर्म सिंह जी, श्री धन्ना सिंह जी, श्री उदय सिंह जी तथा श्री अनूप सिंह जी दो-एक और व्यक्तियों के साथ बैठे थे, चाय बनाने की तैयारियाँ हो रही थीं।
बैठे-बैठे श्री धन्ना सिंह ने कहा, ‘बाबा कर्म सिंह जी! हमें यहाँ से अभी इसी वक़्त चल देना चाहिए। मुझे किसी बुरी घटना होने का.सा आभास हो रहा है।’
75 वर्ष के बूढ़े कर्म सिंह ने इस बात पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। पर श्री धन्ना सिंह अपने साथ 18 वर्षीय दिलीप सिंह को लेकर चले ही गये।
बैठे-बैठे बाबा कर्म सिंह ने श्री अनूप सिंह की ओर बड़े ग़ौर से देखकर कहा – ‘अनूप सिंह, तुम अच्छे आदमी हो,’ मगर इसके बाद उन्होंने ख़ुद भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया। बातें अभी हो रही थीं कि सचमुच ही पुलिस आ धमकी। सारे बम श्री अनूप सिंह के क़ब्ज़े में थे।
ये सब लोग उठकर गाँवों में छिप गये। पुलिस ने लाख सिर मारा, पर विफल रही। अन्त में पुलिस की ओर से एक घोषणा की गयी। बागियों को निकालो, वरना गाँव में आग लगा दी जायेगी। पर गाँव वाले विचलित नहीं हुए।
अवस्था को देखकर वे सब ख़ुद ही बाहर निकल पड़े। सारे बम अनूप सिंह ले भागा और जाकर आत्मसमर्पण कर दिया। शेष चार व्यक्ति वहीं पर घिरे हुए खड़े थे।
पुलिस के अंग्रेज़ कप्तान ने कहा, ‘कर्म सिंह! हथियार छोड़ दो, तुम्हें माफ़ कर दिया जायेगा।’
वीर ने ललकारकर जवाब दिया – ‘हम अपने देश के लिए सच्चे क्रान्तिकारी की तरह लड़ते-लड़ते शहीद हो जायेंगे, पर हथियार नहीं डाल सकते।’
उन्होंने अपने तीनों साथियों को ललकारा। वे सिंह की तरह गरज उठे। लड़ाई छिड़ गयी। ख़ूब दनादन गोलियाँ चलीं।
गोली-बारूद समाप्त होने पर वे वीर पानी में कूद पड़े और घण्टों गोलियों की वर्षा होते रहने पर ये चारों वीर स्वर्गधाम सिधार गये।
श्री कर्म सिंह की आयु 75 वर्ष की थी। वह कनाडा में रह चुके थे। उनका आचरण पवित्र और चरित्र आदर्श था। सरकार ने समझा, बब्बर अकाली ख़त्म हो गये, परन्तु वे उन्नति कर रहे थे। 18 वर्षीय दिलीप सिंह एक अत्यन्त सुन्दर, सुदृढ़, हृष्ट-पुष्ट, पर अशिक्षित नवयुवक थे, और उनका डाकुओं का साथ हो गया था। धन्ना सिंह जी की शिक्षा ने उन्हें डाकुओं से एक सच्चा क्रान्तिकारी बना दिया। उधर सरदार बन्ता सिंह और वरियाम सिंह आदि कई प्रसिद्ध डाकू डाकेज़नी छोड़कर इनमें आ मिले।
इन सबमें मृत्यु का डर नहीं था। ये अपने पिछले कुकर्मों को धो डालना चाहते थे। इनकी संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही थी। एक दिन मानहाना नामक गाँव में धन्ना सिंह बैठे थे, पुलिस बुला ली गयी। नशे में चूर धन्ना सिंह बैठे ही पकड़ लिये गये। उनका भरा हुआ पिस्तौल छीनकर हाथों में हथकड़ी लगा दी गयी और उन्हें बाहर लाया गया। बारह साधारण सिपाही और दो अंग्रेज़ ऑफ़िसर उनको घेरकर खड़े हो गये। ठीक उसी समय धमाके की आवाज़ हुई। धन्ना सिंह जी ने बम चला दिया था। इससे वे स्वयं भी मरे और साथ ही एक अंग्रेज़ ऑफ़िसर और दस सिपाही। बाक़ी के लोग बुरी तरह घायल हुए।
इसी तरह मुण्डेर नामक गाँव में बैठे हुए बन्ता सिंह, ज्वाला सिंह आदि कई लोग घिर गये। ये सब छत पर बैठे हुए थे। गोली चली, कुछ देर तक अच्छी झड़प होती रही, पर पुलिस ने पम्प से मिट्टी का तेल छिड़ककर घर में आग लगा दी। फिर भी वरियाम सिंह बच निकले, परन्तु बन्ता सिंह वहीं मारे गये।
अगर इससे पहले की एक-दो अन्य घटनाओं का वर्णन कर दिया जाये तो अनुचित न होगा। बन्ता सिंह बड़े साहसी पुरुष थे। एक बार, शायद जालन्धर छावनी जाकर रिसाले में पहरे पर खड़े हुए सिपाही की घोड़ी तथा रायफ़ल वे छीन लाये थे। इन दिनों, जबकि पुलिस के दस्ते के दस्ते इनकी तलाश में मारे-मारे फिरते थे, कहीं जंगल में किसी दस्ते से इनकी भेंट हो गयी।
सरदार बन्ता सिंह ने फ़ौरन चुनौती दी – ‘अगर हिम्मत हो तो दो-दो हाथ कर लो,’ परन्तु उस ओर तो थे पैसे के ग़ुलाम और इस ओर आत्मोत्सर्ग के इच्छुक। तुलना कैसे हो सकती है। सिपाहियों का दस्ता चुपचाप चला गया।
इन लोगों को पकड़ने के लिए ख़ासतौर से पुलिस नियुक्त की गयी थी। और उसकी थी यह दशा! ख़ैर, गिरफ्तारियों की भरमार थी। गाँव-गाँव में पुलिस की ताजीरी चौकियाँ बिठायी जाने लगीं। धीरे-धीरे बब्बर अकालियों का ज़ोर कम होने लगा। अब तक तो मानो इन्हीं का राज्य था। जहाँ जाते, कुछ लोग हर्ष और चाव से, कुछ भय और त्रास से इनकी ख़ूब आवभगत करते। सरकार के सहायक एकदम पस्त हुए बैठे थे। सूर्योदय के पहले सूर्योदय के बाद घर से निकलने का साहस ही उन्हें न होता था। ये उन दिनों के ‘हीरो’ समझे जाते थे। वे वीर थे और उनकी पूजा वीर-पूजा समझी जाती थी। परन्तु धीरे-धीरे उनका ज़ोर ख़त्म हो गया। सैकड़ों पकड़े गये, मुक़दमे शुरू हुए।
वरियाम सिंह अकेले बचे थे। जालन्धर, होशियारपुर में पुलिस का अधिक ज़ोर देखकर वे दूर लायलपुर में जा रहे थे। वहाँ पर एक दिन बिल्कुल घिर गये, मगर ख़ूब शान के साथ लड़ते हुए बच निकले, लेकिन बहुत थक गये थे। कोई साथी भी न था। दशा बड़ी विचित्र थी। एक दिन ढेसिया नामक गाँव में अपने मामा के पास गये। शस्त्र बाहर रखे थे। शाम को भोजन करने के बाद अपने शस्त्रों के पास जा रहे थे कि पुलिस आ पहुँची। फिर घिर गये।
अंग्रेज़ नायक ने उन्हें पीछे से जा पकड़ा। उन्होंने कृपाण से ही उसे बुरी तरह घायल कर दिया। फिर वे नीचे गिर गये। हथकड़ी पहनाने की सारी चेष्टाएँ विफल हुईं। दो वर्ष के पूर्ण दमन के पश्चात अकाली जत्थे का अन्त हुआ। उधर मुक़दमा चलने लगा, जिसका परिणाम ऊपर लिखा जा चुका है। अभी उस दिन इन लोगों ने शीघ्र फाँसी पर चढ़ाये जाने की इच्छा प्रकट की थी। उनकी वह इच्छा पूरी हो गयी। वे शान्त हो गये।
संदर्भ
जगमोहन सिंह, चमनलाल, भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़, राजकमल प्रकाशन, 1996
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में