‘वंदे मातरम्’ के नारे के साथ फाँसी के फंदे पर झूल जाने वाले हेमू कालाणी
भारतमाता को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने हेतु हँसते हुए फाँसी के फंदे को चूमनेवाले अखंड भारत के भूखंड सिंध के वीर सेनानी बलिदानी हेमू कालाणी की गाथा बहुत ही प्रेरणादायक हैं।
यह भारतवासियों की परतंत्रता के दिनों की गाथा है। तब ब्रिटिश शासन का दमनचक्र स्वाधीनता से जीने का अधिकार निर्ममता से छीन रहा था। उनके कठोर, निर्दयी व्यवहार से भारतमाता की संतानें भयानक रूप से दुःखी थीं। ऐसे में भगत सिंह व अन्य राष्ट्रीय नेताओं की प्रेरणा से देशवासियों के हृदय में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की अग्नि धधक उठी । भारतभूमि के कोने-कोने से युवा देशभक्त हँसते-हँसते स्वतंत्रता प्राप्ति यज्ञ में प्राणों की आहुति दे रहे थे। जनमानस के हृदय में उत्पन्न राष्ट्रीय चेतना की तरंग से भारतभूमि का सुदूर पश्चिमी भूखंड सिंध भी प्रभावित था। ऐसे में जिस युवक के राष्ट्र-प्रेम ने सर्वोच्च अभिव्यक्ति प्राप्त की थी, वह थे- सिंधी वीर सेनानी हेमू कालाणी ।
हेमू कालाणी कौन थे ?
हेमू का पूरा नाम हेमनदास कलानी था और वह एक ठेकेदार पेसुमल कलानी और जेठी बाई के पुत्र थे। उनके परिवार वाले उन्हें प्यार से ‘हेमू’ कहकर बुलाते थे।
21 जनवरी, 1943 को ‘वंदे मातरम्‘ का उद्घोष करते हुए स्वतंत्रता सेनानी हेमू कालाणी फाँसी के फंदे की ओर बढ़ते हुए कह रहे थे— “मुझे गर्व है कि मैं भारतभूमि से ब्रिटिश साम्राज्य समाप्त करने हेतु अपने तुच्छ जीवन को भारतमाता के चरणों में भेंट कर रहा हूँ।” फाँसी के तख्ते पर चढ़ते हुए हेमू ने बुलंद आवाज में कहा – ‘इनकलाब जिंदाबाद’, ‘वंदे मातरम्’, ‘भारतमाता की जय’ और फंदे से झूल गए।
हेमू 23 मार्च, 1923 को सिंध प्रांत के सखर जिले में जन्मे थे । हेमू को बाल्यकाल से ही माँ ने देशभक्ति की भावना से भर दिया था। सिंध के कराची शहर में वर्ष 1930 में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन की सरगर्मियों ने हेमू के किशोर मन को प्रभावित किया।
इस अधिवेशन में महात्मा गांधी, सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस, पं. जवाहरलाल नेहरू, आचार्य जे. बी. कृपलानी, डॉ. चोइथराम गिडवानी आदि उपस्थित थे। सिंध में उनकी उपस्थिति मात्र से हेमू के हृदय में देशभक्ति का पुष्प खिल चुका था। इस पुष्प को पुष्पित करने का कार्य सरदार भगत सिंह की फाँसी ने किया।
आठ वर्ष के उम्र से भगत सिंह का अनुकरण करते थे बालक हेमू
एक तरफ 23 मार्च, 1931 सरदार भगत सिंह की फाँसी का दिन था, तो दूसरी तरफ बालक हेमू का आठवाँ जन्मदिन । मात्र आठ वर्ष का बालक मिठाई अथवा खिलौनों की ओर आकर्षित नहीं था। वह तो भगत सिंह का अनुकरण करते हुए रस्सी का फंदा बनाकर शहीद होने का अभ्यास कर रहा था। उसी समय माँ ने हेमू से पूछा, ‘बेटा, यह क्या कर रहे हो?’ हेमू ने राष्ट्रभक्ति भाव से उत्तर दिया, ‘माँ! मैं भी फाँसी पर चढूँगा।’ हेमू की माँ ने इसे लड़कपन समझा था, किंतु माता-पिता ने यह कहाँ सोचा था कि उनका हेमू एक दिन वास्तव में भारत माँ को स्वतंत्र कराने के लिए फाँसी के फंदे को चूमेगा और बलिदान हो जाएगा!
हेमू ‘स्वराज सेना मंडल’ के सिपाही बनकर सिंध के युवाओं के हृदय में देश-प्रेम की भावना जगाकर उन्हें देश पर मर मिटने के लिए तैयार करने लगे। वे युवा साथियों के साथ गलियों-मोहल्लों में प्रभात फेरियाँ करते, आजादी के गीत गाते और अंग्रेज सरकार के विरुद्ध प्रतिबंधित साहित्य वितरित करते । महात्मा गांधी ने सिंध प्रांत की कुल सात यात्राएँ की थीं। हेमू पर उनकी यात्राओं व नारों का भी प्रभाव पड़ा।
हेमू की राय थी कि ब्रिटिशों को भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर निकालने के लिए साधारण प्रदर्शन और विरोध प्रदर्शन पर्याप्त नहीं होंगे। उनका मानना था कि यदि उनके दल को वास्तव में अंग्रेजों से हमेशा के लिए छुटकारा पाना है तो उन्हें और अधिक नाटकीय और चरम कदम उठाने की जरूरत है।
‘करो या मरो’ तथा ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ के नारों ने हेमू की भारत -भक्ति की धार को और तेज कर दिया था। वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े हेमू ने अंग्रेज आततायियों को सबक सिखाने हेतु रेल की पटरियों से फिश प्लेटें निकालकर ट्रेन के डिब्बों को पलटने की बड़ी योजना बना डाली थी।
इसी क्रम में क्वेटा के स्वतंत्रता सेनानियों को कुचलने के लिए कराची से गोरों की पलटन लेकर जानेवाली विशेष रेलगाड़ी, जिसमें बड़ी मात्रा में बारूद व हथियार थे, को उड़ा देने की योजना के अनुसार हेमू व उनके साथी रात में एकत्र हुए। वह सभी रात के सन्नाटे में पटरियों से फिश प्लेटें निकालने लगे।
आवाज सुनकर गश्त लगाते अंग्रेज सिपाही उन देशभक्तों पर टूट पड़े। हेमू के साथी सिपाहियों को देखते ही वहाँ से भाग गए, किंतु वीर हेमू अडिग रहे, खड़े रहे, डटे रहे। इसके बाद सिपाहियों द्वारा हेमू को भयानक शारीरिक यातनाएँ दी गई, ताकि वे साथियों के नाम बता दें, लेकिन हेमू ने जुबान नहीं खोली।
उन पर राजद्रोह का अभियोग लगाकर सैनिक न्यायालय में मुकदमा चलाया गया तथा 10 वर्ष की कठोर सजा सुनाई गई।
जब हेमू की सजा को बढ़ाकर ‘सजा-ए-मौत’ में बदल दिया गया
सखर के सैनिक न्यायालय ने इस निर्णय की प्रतिलिपि सिंध के हैदराबाद मुख्यालय के प्रमुख कर्नल रिचर्डसन के पास भेजी। प्रतिलिपि पढ़कर वह क्रोध से आग-बबूला हो गया और युवा हेमू की सजा को बढ़ाकर ‘सजा-ए-मौत’ में बदल दिया।
क्रूर अधिकारी के निर्णय से पूरा भारत चकित रह गया। इसके विरोध में अपील की गई, किंतु निर्दयी शासन जिद पर अड़ा रहा और 21 जनवरी, 1943 को प्रातः काल भारत देश की स्वतंत्रता के परवाने हेमू कालाणी को सखर के केंद्रीय कारागार के फाँसी स्थल पर ले जाया गया।
वहाँ जाने से पूर्व हेमू ने माँ से गर्व के साथ कहा, ‘माँ! मैं प्रसन्न हूँ, मेरी अभिलाषा पूरी हो रही है।’
हेमू ने जल्लाद से फाँसी का फंदा लेकर कहा, ‘इसे मैं स्वयं अपने गले में डालूँगा।’ हेमू ने फाँसी का फंदा गले में डालकर बुलंद आवाज में भारतमाता को नमन किया। इस प्रकार वे भारतीय इतिहास में सदा के लिए अपना नाम अमर कर गए।
संदर्भ
डा सुधीर आज़ाद, श्री सत्य प्रकाशन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में