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बुद्ध और गांधी मानवता, प्रेम, एवं विश्वबन्धुत्व के प्रतीक है- राहुल सांकृत्यायन

 

हमारे लम्बे इतिहास में हमारे देश में बहुत से महापुरुष हो गए हैं। यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि बुद्ध उन सब में महान थे। उनका व्यक्तित्व सर्वागीण था। उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी। उनका परिवर्तनवाद ( क्षणिकवाद ) – संसार क्षण-क्षण में परिवर्तित होने वाली एक प्रवाहमान धारा के समान है, उनका अनात्मवाद तथा प्रतीत्यसमुत्पाद-एक के विनाश के बाद दूसरे की उत्पत्ति होना इनमें से प्रत्येक उनकी सृजनात्मक विचारधारा का ज्वलन्त उदाहरण है। परन्तु यहां हमें इस बात से विशेष प्रयोजन नहीं कि उन्होंने मानवीय विचारधारा को कौन से सिद्धांत प्रदान किए। राहुल सांकृत्यायन ने अपने एक लेख  में  महात्मा गांधी और भगवान बुद्ध के सृजनात्मक विचारधारा पर विचार किया है…

 

बुद्ध  एक आधारभूत दार्शनिक एवं सामाजिक उपदेश देने वाले यथार्थवादी

 

कुछ लोगों की यह गलत धारणा है कि महात्मा बुद्ध एक व्यक्तिवादी महापुरुष थे जिन्हें व्यक्तिगत निर्वाण की ही चिन्ता रहती थी परन्तु नहीं, उनकी यह धारणा भ्रमपूर्ण है वह व्यक्तिवादी नहीं थे। इसका प्रमाण उनके जीवन की एक घटना से मिल जाएगा।

 

एक बार उनकी विमाता प्रजापति गौतमी ने अपने हाथ का कता और बुना एक कपड़े का टुकड़ा उन्हें भेंट किया, उन्होंने कहा कि यह कपड़ा संघ को दे दो इससे तुम्हारी अधिक शोभा होगी क्योंकि संघ व्यक्ति से महान और उच्च है। उनका बोधिसत्व का सिद्धान्त जिसके अनुसार परहित के लिए आत्मबलिदान करते हुए असंख्य जन्म धारण करना पड़ता है, व्यक्तिवादिता का सिद्धान्त नहीं है।

 

वह प्राणिमात्र की भलाई चाहते हैं-‘सब्बे सत्ता भवन्तु सुखी तत्ता’ परन्तु वे निष्क्रिय स्वप्न द्रष्टा नहीं थे। वह यथार्थवादी थे। अतः जब उन्होंने अपनी शिष्य मण्डली को कर्म क्षेत्र में उतरने का आदेश दिया, बौद्ध धर्म को प्रचार करने की प्रेरणा की तो उन्होंने यह नहीं कहा कि समस्त प्राणियों के हित के लिए प्रयत्नशील रहना, अपितु यह कहा कि बहुत जनों के हित के लिए, बहुत जनों के सुख के लिए (बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय) विचरण करो। वह जानते थे कि बहुत बहुत जनों का हित और सुख कभी-कभी कुछ लोगों के हितों के विरुद्ध होता है। समाज विपरीत हितों में बंटा हुआ है।

 

उनके विचार में आदि मानव सांसारिक वस्तुओं का जो उपभोग करते थे, वही आदर्श था वह लोभ जिसने उस समानता का नाश किया तथा वैयक्तिक सम्पत्ति को जन्म दिया, मौलिक अपराध था जिसके कारण मानवता अब तक दुख भोग रही है और भोगती रहेगी। उनके मतानुसार इस वैयक्तिक सम्पत्ति का लोभ ही चोरी का जन्मदाता है और चोरी से हत्या एवं कलह की उत्पत्ति हुई। इन बुराइयों से बचने के लिए मनुष्य ने राजा को स्वीकार किया। उन्हें मानव समाज के इस रोग की कोई औषध नहीं मिली।

 

उन्होंने अपने ढंग पर अपने भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों में साम्यवाद के प्रचार करने का प्रयत्न किया। परन्तु यह अधिक देर तक टिक न सका। बात यह है कि वैयक्तिक सम्पत्ति के व्यक्तिगत लोभ के समुद्र में जिसकी राज और रिवाज की ओर से छूट हो, साम्यबाद का टापू स्थापित नहीं किया जा सकता अन्तिम उपदेश जो उन्होंने दिया वह यह था कि वैर-वैर से दूर नहीं हो सकता ( न हि वैरेण वैराणि शम्यन्तीह कुतश्चन) इस संक्षिप्त वक्तव्य में हमें बुद्ध के कुछ एक आधारभूत दार्शनिक एवं सामाजिक उपदेश मिल जाते हैं।

 

गांधीजी ने जीवन भर बहुजन हिताय संघर्ष किया

 

अब बुद्ध के पश्चात् गांधीजी के अतिरिक्त कोई ऐसा अन्य महापुरुष नहीं हुआ जो सम्पूर्ण समाज को इतना महान् संदेश दे सकता। उनके दर्शन में बुद्ध की मौलिकता नहीं। यदि दार्शनिक पृष्ठभूमि से अलग करके देखा जाए, तो महात्मा गांधी की सत्य और अहिंसा एक व्यक्ति का वहम मात्र प्रतीत होगा। गांधी जी मानव मात्र के लिए हैं।

 

उन्होंने जीवन भर बहुजन हिताय संघर्ष किया और बहुत जनों का हित ही उन्हें अभीष्ट है। मैं तो यहां तक कहने को तैयार हूं कि इस उद्देश्य की पूर्ति में उन्हें अपने जीवन में बुद्ध से भी अधिक कष्ट सहन करने पड़े। मैं यह नहीं कहता कि यदि बुद्ध भी ऐसी ही परिस्थितियों एवं वातावरण में होते तो वे भी ऐसा पग उठाते हुए हिचकिचाते। उन्होंने यात्री दलों पर घातक आक्रमण करने वाले अंगुलीमाल का जानबूझ कर सामना किया। परन्तु बुद्ध के जीवन में ऐसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं।

 

महात्मा जी को सैकड़ों बार लोगों को बचाने के लिए अपनी जान संकट में डालनी पड़ी जाति भेद को मिटाने एवं सहस्रों मनुष्यों का जीवन बचाने के लिए दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने बोअरों के विरुद्ध अपनी जान की बाजी लगा दी। कलकत्ता, दिल्ली तथा अन्य स्थानों में साम्प्रदायिक सद्भावना स्थापित करने के लिए गांधीजी ने जितने प्रयत्न किए, उन्हें कौन नहीं जानता? वे एक महान् आत्मा हैं, इसमें कौन संदेह कर सकता है?

 

व्यक्ति और सम्पूर्ण समाज से प्रेम करने की दृष्टि से वे दूसरे तथागत है उनकी अवैर भावना (अहिंसा) में अकर्मण्यता को स्थान नहीं है। वह तो दुर्बलता और आलस्य का चिन्ह हैं। उनकी अहिंसा जिसने लाखों भारतीयों को कर्म क्षेत्र का आवाहन कराया नकारात्मक सत्ता नहीं है, बल्कि वह एक निश्चित एवं सुदृढ़ शक्ति है। इस रूप में भी वे कर्म के शिक्षक हैं।

 

गांधीजी समाजवाद की बात भी करते हैं

यद्यपि गांधीजी परमात्मा और अपरिवर्तनशील जगत को मानने वाले दर्शन में विश्वास करते हैं, परन्तु अपने कार्यों में वे जड़ नहीं हैं। बहुजन हिताय का विचार उनकी नस नस में बसा हुआ है जो अनजाने ही उन्हें अपने व्यक्तित्व में परिवर्तन करने को धीरे-धीरे विवश करता रहता है। यह दुख की बात है कि उन्होंने बुद्ध के गतिपूर्ण दर्शन को अपना लक्ष्य मान कर ग्रहण नहीं किया।

 

बहुत दिनों से गांधीजी का एक नया रूप प्रकट हो रहा है, वे भारतीय जनता की राजनीतिक स्वतंत्रता से ही संतुष्ट नहीं दीखते, वे उनकी आर्थिक स्वाधीनता के विषय में भी सोचने लगे हैं। उसी से वास्तविक सामाजिक क्रान्ति आएगी। बुद्ध के समान वे कुछ लोगों द्वारा अपने समाज पर प्रभुत्व और विषमता के शाप को अनुभव करने लगे हैं। वे खुले शब्दों में देशी राजाओं की निरंकुशता की भर्त्सना करते हैं।

 

इससे हमारी महान समस्याओं के विषय में उनके रुख का पता चल जाता है। गांधीजी समाजवाद की बात भी करते हैं, परन्तु ज्यादा जोर वे सत्य और अहिंसा पर ही देते हैं। कोई समाजवादी सत्य का शत्रु नहीं और न ही कोई समाजवादी हिंसा के लिए हिंसा चाहता है वास्तव में समाजवादी या साम्यवादी हिंसा को आत्मरक्षा के साधन के रूप में स्वीकार करते हैं और वह भी कब, जब समस्याओं के शान्तिपूर्वक समाधान के साधन बंद हो जाते हैं और आततायी हिंसक के रूप में खुला आक्रमण कर देते हैं।

 

निकट भविष्य में पूंजीपतियों और निरंकुश वर्ग के असहनीय विशेषाधिकारों को समाप्त करने के लिए महान् संघर्ष छिड़ने वाला है। मुझे पूर्ण विश्वास और आशा है कि वे अपनी अहिंसा की सक्रिय शक्ति के कारण वर्गगत आततायियों से कहीं अधिक बलवान हैं।

वह लहू की एक बूंद बहाए बिना जमींदारी की जर्जरित, निकम्मी प्रणाली का अन्त करके समाज में से सदा सर्वदा के लिए वर्गजन्य अत्याचार का अंत कर देंगे हमारे पास समय बहुत कम है। हम उनकी दीर्घायु की कामना करते हैं। परन्तु गांधीजी के जीवन की सीमा तो है ही क्या महात्माजी इस विषय में शीघ्र ही निश्चय कर लेंगे और उस महान क्रान्ति का जो अहिंसात्मक होगी नेतृत्व करके आर्थिक वर्ग भेद को समाप्त करके जनता को देश का वास्तविक स्वामी बनाएंगे।

 

उनके नेतृत्व ने भारत को राजनीतिक रूप से स्वाधीन कराया है। इतिहास और मानवता उनके इस नेतृत्व को सदा स्मरण रखेगी। यदि इस वृद्धावस्था में अपने परिपक्व अनुभव को लिए गांधीजी भारतीय जनता को आर्थिक बन्धनों एवं वर्ग-जन्य अत्याचार से मुक्त करने में सफल हो गए तो वे ऐसा कार्य सम्पन्न कर जाएंगे जिसे अपनी सद्भावना के रहते बुद्ध भी नहीं कर पाए। यदि ऐसा हो गया तो मानव आनन्द की प्राप्ति में महात्मा गांधी भगवान बुद्ध से भी आगे बढ़ जाएंगे और इतिहास उनको इसी रूप में स्मरण करेगा।

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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