FeaturedForgotten HeroFreedom MovementJawaharlal NehruLeadersLiteratureRabindranath TagoreSubhash Chandra Bose

जब सुभाष ने निर्वासन में और जवाहरलाल ने जेल में लिखी किताबें

 

सुभाष और जवाहरलाल दोनों में से एक को निर्वासन और दूसरे को जेल में रहना पड़ा था;  वर्ष 1934 के मध्य में दोनों ने ही किताबें लिखी थीं।  दोनों के लिए लेखन की बाध्यताएँ भिन्न-भिन्न थीं। दोनों  ने दो भिन्न-भिन्न तरह की पुस्तकों को आकार दिया। सुभाष ने जून 1934 में लिखना शुरू किया और वह पुस्तक अगले साल जनवरी में प्रकाशित भी हो गई।  जवाहरलाल ने भी जून 1934 में किताब का लेखन शुरू किया और जो उनकी आत्मकथा थी,  फरवरी 1935 के मध्य तक उन्होने इसे पूरी भी कर दी थी।

 

 

जवाहरलाल की पुस्तक भारत के घटनाक्रमों पर विचार के साथ एक जीवनी‘ थी

 

जवाहरलाल की पुस्तक  एक जीवनी थी। इसकी प्रमुख आवाज में एक निजता थी; मगर चूँकि इसके लेखक की एक प्रमुख राजनीतिक भूमिका थी, इसलिए राजनीति उनके जीवन की अनावृत्त कहानी का एक हिस्सा है। जब समय की पुकार हुई, तब उनकी निजता के साथ राजनीति अप्रयासपूर्वक उनकी दूसरी आवाज बनी। उनकी निजता की प्रधानता इस पुस्तक के शीर्षक  भारत के हालिया घटनाक्रमों पर विचार के साथ एक जीवनी‘  में भी नजर आती है। यह जवाहरलाल की लिखी एक बेहतरीन पुस्तक है।

 

जवाहरलाल की यह जीवनी आगस्टीन, रूसो या फिर गांधी की जीवनी की भाँति अपराध- स्वीकारात्मक पुस्तक नहीं हैं तथा यह विषयासक्त और निजी रहस्योद्घाटन से भी दूर है। किसी भी जीवनी के बारे में यह माना जाता है कि इसके पाठक लेखक के जीवन में रुचि लेंगे और यह लिपिबद्ध करने लायक भी होगी। जवाहरलाल ने इस पुस्तक में स्वयं को महत्त्व नहीं दिया है। यह पुस्तक उनके जीवन में आनेवाले ऐतिहासिक घटनाक्रमों से गुँथे जीवन के बारे में बताती है। इसमें उनके ऐतिहासिक पल उनकी निजता से अधिक मुखर हैं। जवाहरलाल ने अपने पाठकों को इसे इतिहास के रूप में लेने से सावधान किया है। यह उनके अपने मानसिक विकास के मार्ग के तलाश की कोशिश थी । हाल की घटनाओं के प्रस्तुतीकरण का उनका यह प्रयास कठोर तथ्यों के अध्ययन के लिए पृष्ठभूमि प्रदान करता है।

 

इस पुस्तक की कल्पना और इसका लेखन जेल में ही हुआ था। जवाहरलाल ने सोचा था कि जेल के एकाकी जीवन का एक बेहतर उपयोग पुस्तक लेखन ही होगा। वह  भारत में घटी हाल की घटनाओं और इससे उनकी स्वयं की संलिप्तता के बारे में लिखना चाहते थे। उन्होंने इस पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है कि इसकी शुरुआत उन्होंने स्वयं से प्रश्नकर्ता के रूप में की थी और उनका यह भाव इसकी संपूर्णता तक बना रहा। इस पुस्तक में निश्चितता पर विशेष बल नहीं दिया गया है, बल्कि संदेह और अस्पष्टता बनी हुई है। उन्होंने इसकी स्पष्टता के बजाय इसके अँधेरेपन को अधिक महत्त्व दिया।

 

जवाहरलाल स्वयं की परख आत्मालोचना होकर करते है

 

जवाहरलाल के  टिप्पणियों में अर्थभेद भी था और इनमें आत्मालोचना तथा स्वयं की परख होने के साथ किसी तरह का पछतावा नहीं था। यदि वह अपने किसी कार्य को न्यायोचित ठहराते हैं, तब वह दुनिया की बजाय स्वयं को ही विवेचित करते हैं। अपने जीवन पर पीछे मुड़कर देखते हुए वह स्वीकार करते हैं कि यदि उन्हें अपने वर्तमान अनुभवों और जानकारियों के साथ अपने पुराने जीवन में जाना पड़े, तब वह अपने निजी जीवन में बहुत से परिवर्तन करना चाहेंगे, अपने पिछले किए कार्यों में सुधार भी करने का प्रयास करेंगे; परंतु सार्वजनिक मामलों में लिये मेरे निर्णय वैसे ही बने रहेंगे। वाकई मैं उन्हें परिवर्तित नहीं करूँगा, क्योंकि वह मुझसे ज्यादा प्रबल हैं और मेरे नियंत्रण के हैं। ”

 

जवाहरलाल को  इतिहास की उस ताकत का पता था, जिसने उनके सार्वजनिक जीवन के कार्यों को बल प्रदान किया था और संभवतः यह उनका विवेक ही उन पर हावी था, जिसने उन्हें भविष्य की बड़ी कल्पना-दृष्टि को नहीं देखने दिया था। अपनी अंतर्दृष्टि पर उन्होंने टिप्पणी करते हुए लिखा- “भविष्य के बारे में लिखे जाने से पहले इसे जीना ही पड़ेगा।उन्होंने भविष्य के बारे में पहले से कुछ भी नहीं लिखा ।

 

जवाहरलाल ने अपनी जिन वैयक्तिक कमियों को दोबारा अवसर मिलने सुधारने की बात कही थी, वह उनके लालन-पालन में जड़ें जमा चुकी थीं। उन्होंने अपने लालन-पालन के इस विरोधाभास पर भी ध्यान दिया था –

 

” मैं पूर्व और पश्चिम का विचित्र सा मिला-जुला रूप बन गया हूँ और सभी जगह उपयुक्त नहीं बन पाता हूँ शायद मेरे विचार और जीवन के प्रति दृष्टिकोण पूर्व के बजाय पश्चिम के अधिक समीप हैं; परंतु भारत मेरे साथ वैसे ही चिपका है, जैसे यह अपने बाकी बच्चों के साथ चिपका रहता है।… और जहाँ तक मेरी विरासत एवं वर्तमान पहचान का सवाल है, मैं इससे मुक्त भी नहीं हो सकता हूँ। ये दोनों ही मेरे हिस्से हैं और वे दोनों मुझमें पूर्व एवं पश्चिम बने रहने में सहायक हैं तथा वे दोनों मेरी सार्वजनिक क्रियाशीलता में ही नहीं, बल्कि निजी जीवन में भी आध्यात्मिक एकाकीपन को पैदा करते हैं। मैं एक अपरिचित और पश्चिम में विदेशी हूँ तथा मैं इसका हो नहीं सकता; पर अपने देश में भी मैं कभी-कभी निर्वासित महसूस करता हूँ।”

 

“जवाहरलाल द्वारा अपने स्वयं के ईमानदारीपूर्वक किए गए अवलोकन के अतिरिक्त उन्होंने अनजाने में ही बहुत से भारतीयों के मानसिक भ्रम और बेचैनी के भी बारे में लिख दिया था  जो अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के उत्पाद थे और जो इसी शिक्षा के कारण यूरोपीय रुचि व समझ के साथ चले-बढ़े थे।

 

जवाहरलाल का पश्चिमी दृष्टिकोण जिस क्षेत्र को समझने में सबसे बड़ा बाधक था, वह क्षेत्र था धर्म। वे स्वयं को एक आधुनिक और तार्किक व्यक्ति के रूप में देखते थे, जिनके लिए धर्म बहुत कम मायने रखता था; क्योंकि इसमें अंधविश्वास, प्रतिक्रिया, मतभेद और धर्माधिता, शोषण और स्वार्थी लोगों की सुरक्षा थी। फिर भी, वह समझते थे कि धर्म बहुत सी पीडित आत्माओं को शांति प्रदान करता है। उन्हें इससे तकलीफ होती थी कि धर्म के प्रति उनके लगाव के न होने की मानसिकता की वजह से भारत के बड़े वर्ग से वे स्वयं को दूर समझते थे।

 

उन्होंने स्वयं से पूछा, “मैं बहुत अकेला और गृह-विहीन महसूस करता हूँ; परंतु भारत, जिसे मैंने प्यार किया और उसके लिए परिश्रम किया, मुझे एक अजीब सी घबरा देनेवाली भूमि महसूस होती थी। क्या यह मेरा दोष था कि मैं अपने देशवासियों की पद्धति और आत्मा में प्रवेश नहीं कर सका था?” धर्म का मुद्दा ही उन्हें अपरिहार्य रूप से गांधी की तरफ ले गया था। आगामी अध्यायों में इस विषय पर चर्चा करने का अवसर प्राप्त होगा।

 


https://thecrediblehistory.com/featured/usha-mehta-who-made-radio-a-weapon-of-freedom/

 


जवाहरलाल के किताब पर रवींद्रनाथ टैगोर  की टिप्पणी

 

इसमें संदेह नहीं है कि जो लोग जवाहरलाल के विचारों से सहमत थे, उनके लिए भी यह पुस्तक महत्त्वपूर्ण थी। जो लोग लेखक के विचारों से असहमत हों, ‘टाइम्सने उन्हें भी इस पुस्तक को पढ़ने का परामर्श दिया है। इकोनॉमिस्टके अनुसार, बिना इस पुस्तक को पढ़े पिछले पंद्रह वर्षों में भारत की कोई भी समझ विकसित होना संभव नहीं थी। जवाहरलाल के गांधी-विरोधी दृष्टिकोण के संदर्भ में पश्चिमी पाठकों का मानना है कि वे लोग इसमें से कुछ समझ सकते हैं और इस पर तर्क भी कर सकते हैं। इसे एक ऐसी गंभीर आवाज के रूप में देखा गया था। जो आगे बढ़नेवाले भारत की समस्याओं और आकांक्षाओं को दरशा सकती थी, किंतु इस पुस्तक के बारे में रवींद्रनाथ टैगोर की टिप्पणी थी,

 

मैंने अभी-अभी तुम्हारी यह महान् पुस्तक पढ़कर समाप्त की हैं और मुझे तुम्हारी उपलब्धि पर गर्व हैं तथा मैं बहुत प्रभावित भी हूँ। इसका विवरण मानवता के प्रवाह के साथ चलता है तथा वास्तविकता की गुत्थियों को सुलझाता है हुआ एक ऐसे व्यक्ति की तरफ ले जाता है, जो अपने कर्तव्यों से बड़ा और अपने आसपास से अधिक सच्चा है।”

 

इस पत्र के जवाब में जवाहरलाल ने टैगोर को गुरुदेवके नाम से संबोधित करते हुए लिखा- ” आपने जो कुछ भी लिखा, उसने मेरे हृदय को छू लिया और इससे मुझे ताकत और प्रसन्नता भी मिली। आपके आशीर्वाद की सहायता से मैं अपने विरोध की दुनिया का सामना कर सकूँगा। अब मेरा बोझ हलका होगा और मार्ग सरल होगा।

 

इस पुस्तक की बिक्री बहुत बड़ी संख्या में हुई और कुछ ही हफ्तों में इसकी कई बार छपाई भी हुई।

 

 

सुभाष बाबू ने निर्वासन  के समय दि इंडियन स्ट्रगल‘ लिखी

 

दि इंडियन स्ट्रगलभारत के समकालीन इतिहास पर लिखी पुस्तक है। इस पुस्तक में लेखक के अनुभवों और साक्ष्यों तथा घटनाओं का क्रमानुसार विवरण है। इसके विवरण के साथ लेखक की टिप्पणी भी है। सुभाष ने स्वयं के और विवरणकर्ता के बीच एक दूरी बना रखी थी।

 

पूरी पुस्तक में उन्होंने स्वयं को यह लेखकके रूप में ही संबोधित किया है । इस पुस्तक में सुभाष ने घटनाओं के इतिहास और उनपर टिप्पणी भी करने की कोशिश की है। इस पुस्तक का प्रयास  इतिहास के एक प्रमुख दबाव के रूप में प्रस्तुत किया गया है। चूँकि वह विएना में थे, इसलिए इसकी मूल प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है कि उन्हें पर्याप्त पुस्तकों एवं संबंधित सामग्रियों का अभाव था ।

 

वास्तव में, यह पुस्तक स्मृति का असाधारण कार्य है; किंतु स्मृति की निर्भरता इस पुस्तक को ऐतिहासिक लेखन से विमुख नहीं करती है। यह सिर्फ इतिहास पर ही नहीं, बल्कि तथ्यों पर भी आधारित है। इसका लेखन अपनी विचारधारा से तत्कालीन भारत को आवश्यकतानुसार एक विशेष दिशा देने का प्रयास करता है। सुभाष के एक नजदीकी मित्र और सहयोगी ए. सी. एन. नांबियार ने संभवतः न्यायोचित ढंग से सुभाष की विवेचना भारत की स्वतंत्रता के लिए एक विचारवाले व्यक्ति के रूप में की थी। यही वह विचार है, जिससे इस पुस्तक को प्रोत्साहन मिलता है।

 

दि इंडियन स्ट्रगलमें सुभाष ने स्पष्ट किया है कि वह किसके लिए जिए और किसके लिए मरना चाहेंगे और यही उनके जीवन की कसौटी थी। इस पुस्तक की शुरुआत भारतीय इतिहास के प्रमुख रुझानों से लेकर वर्ष 1920 तक के समय तक है। इस पुस्तक में प्राचीन समय के ऐतिहासिक विकास को भी विवेचित किया गया है। शुरुआती अध्याय में तीन विषय इसकी विवेचना को स्पष्ट करते हैं। इसके अनुसार, भारत में प्राचीनकाल से ही प्रशासन का लोकतांत्रिक रूप रहा है तथा इसमें व्यापक स्तर पर राजनीतिक तथा अन्य मामलों में स्वतंत्रता थी।

 

ब्रिटिश इतिहासकारों ने इन पहलुओं की अनदेखी की है; परंतु यह पूर्णरूपेण मौजूद थे। सुभाष ने यहाँ भारतीय इतिहासकारों की खोज के आधार प्रस्तुत किए हैं। इस प्रकार सुभाष ने राष्ट्रवादी इतिहासकारों की ही भाँति तर्क दिया है कि भारत को लोकतंत्र और स्वतंत्रता की अवधारणा के लिए पश्चिम की तरफ देखने की जरूरत नहीं है। इसे तलाशने के लिए भारत के अतीत में ही जाना पड़ेगा।

 

 

इसके दूसरे विषय, जो भारत के राष्ट्रवादी लेखन के रूप में था, में सुभाष के शब्दों में, ‘संपूर्ण भारतीय इतिहास में सभी विदेशी तत्त्व समाहित किए जाते रहे हैं, परंतु ब्रिटेन वाले इसके पहले और एकमात्र अपवाद हैं। ” इसकी तीसरी विषय-वस्तु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय था, जो भारत में एक ऐसे महत्त्वपूर्ण संगठन के रूप में हुआ, जिसने यहाँ के सभी समुदायों और सारे देश का प्रतिनिधित्व किया।

 

 

सुभाष ने महात्मा गांधी का नाम कांग्रेस के निर्विरोध नेता के रूप में लिया था। हालांकि कांग्रेस में एक ताकतवर वामपंथ भी था। सुभाष के अनुसार, गांधी ने पूँजी और श्रम, भूमिपति और किसान तथा जाति के लिए मध्य मार्ग को अपनाया था जबकि वामपंथ ने सामाजिक व आर्थिक विषयों पर अधिक सुधारवादी तथा समझौता विहीन नीतियों को अपनाया था। सुभाष ने अपनी पहचान कांग्रेस के इसी वामपंथ के साथ कराई थी।

 


यह वेबसाईट आपके ही सहयोग से चलती है। इतिहास बदलने के खिलाफ़ संघर्ष में

वेबसाइट को SUBSCRIBE करके

भागीदार बनें।


 

सुभाष बोस गांधी जी को एक सुधारवादी  मानते थे

 

दि इंडियन स्ट्रगलमें इन्हीं विषयों पर वर्ष 1920 से 1930 की समकालीन घटनाओं को पेश किया है। इस पुस्तक में ब्रिटिश शासन के प्रति असहयोगपूर्ण दृष्टिकोण दिखाया गया था- इसे किसी भी कीमत पर हटा देना चाहिए था जब सक्रिय विरोध सशस्त्र क्रांति में तब्दील होगा, तभी यह हटेगा।

 

 सुभाष की दृष्टि में, गांधी इस देश की सेवा में निरंतर लगे रहेंगे; परंतु भारत की मुक्ति उनके नेतृत्व में नहीं होगी। उनके अनुसार, गांधी मौलिक रूप से एक क्रांतिकारी न नई यह होकर सुधारवादी थे। गांधी ने भारत को एक सक्रिय सत्याग्रह या अहिंसक असहयोग की एक पद्धति दी थी; परंतु उन्होंने देश को सामाजिक पुनर्रचना का नया कार्यक्रम नहीं दिया था।

 

नया कार्यक्रम संयोजन से उत्पन्न होगा और यह संयोजन भारत की नागरिकता को सुदृढता प्रदान करेगा। सुभाष ने यकीन के साथ लिखा कि यूरोप और अमेरिका के सभी आधुनिक सामाजिक व राजनीतिक आंदोलनों और प्रयोगों का भारत के विकास पर आवश्यक प्रभाव पड़ेगा। इस संयोजन का कार्यक्रम कांग्रेस से एक नई पार्टी के रूप में जन्म लेगा; परंतु इसमें एक नई विचारधारा तथा कार्य योजना होगी और यह पार्टी सिर्फ स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए संघर्ष नहीं करेगी, बल्कि युद्ध के बाद की संपूर्ण पुनर्रचना पर अपना प्रभाव डालेगी।

 

सुभाष की यह पुस्तक इतिहास के अतिरिक्त एक राजनीतिक और सैद्धांतिक रूप भी प्रस्तुत करती है। इसकी ऐतिहासिक विवेचना राजनीतिक और सैद्धांतिक घोषणाओं से समृद्ध हुई है। सुभाष की इस विवेचना में नैतिक परामर्श भी निहित है और इसके शीर्षक में स्ट्रगलशब्द यही दर्शाता है। यह भारतीय संघर्ष एक निरंतर प्रक्रिया है।

 

यह पुस्तक वैश्विक पहचान के लिए प्रकाशित हुई थी। ब्रिटिश भारत सरकार ने भारत के सचिव की सहमति से इसे भारत में प्रतिबंधित करा दिया था। भारत सरकार के सचिव सैमुअल होअरे ने हाउस ऑफ कॉमंस में इस पुस्तक को आतंकवाद को बढ़ावा देने की सामग्रीकहकर भारत में प्रतिबंधित करा दिया था।

 

1′ द संडे टाइम्स‘, जो टाइम्समैगजीन का ही अंग था, ने इस पुस्तक के प्रतिबंधित होने पर लिखा था कि यह विचारों को जाग्रत करनेवाली महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इसके दृष्टिकोण को ब्रिटिश मानसिकता के लिए समझना थोड़ा कठिन है, परंतु यह भारतीय पक्ष की विवेचना करती है तथा इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है।

 

डेली हेरॉल्डने इस पर लिखा कि यह पुस्तक किसी कट्टरवाद पर नहीं है, बल्कि इसके लेखक एक गंभीर विचारक तथा क्रियाशील मानसिकतावाले व्यक्ति हैं और वे अभी सिर्फ चालीस वर्ष के हैं तथा किसी भी देश के राजनीतिक जीवन की संपत्ति बनेंगे। रोमाँ रोलाँ ने सुभाष की इस पुस्तक को  एक बेहतर इतिहासकार के द्वारा लिखी पुस्तक के रूप में देखा है और इसे सुबोध तथा उन्नत बौद्धिक दर्जे के काबिल बनाया है। सुभाष ने यह पुस्तक कठिन परिस्थितियों, जैसे निर्वासन, अस्वस्थता और ग्रंथ- सूचियों के अभाव में लिखी थी।

 

इस प्रकार सन् 1936 में जवाहरलाल और सुभाष दोनों ही प्रमुख पुस्तकों के लेखक बने । हालाँकि ये दोनों ही पुस्तकें भिन्न थीं। एक पुस्तक तीक्ष्ण, आग्रही और राजनीतिक थी तथा दूसरी विचारशील, आत्मविश्लेषण युक्त एवं राजनीतिक मौलिकता में कम निश्चयात्मक थी। इन दोनों ही व्यक्तियों के प्रेम और दुःख की छाप इनके व्यक्तित्व पर नजर आती है। इसने सुभाष को अधिक मजबूत और आत्मविश्वासी बनाया, जबकि जवाहरलाल अपनी कमियों के बारे में अधिक अवगत हुए थे।

 


संदर्भ

रुद्रांक्षु मुखर्जी, नेहरू बनाम सुभाष, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली 2017

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

Related Articles

Back to top button