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आत्मबल और सिद्धांतों से बना था गांधीजी का व्यक्तित्व

महात्मा गांधी का व्यक्तित्व न केवल उनकी सादगी और विनम्रता से परिभाषित था, बल्कि उनके आत्मबल और अटूट सिद्धांतों से भी। उनका जीवन एक ऐसा उदाहरण था, जहाँ बाहरी ताकत या वैभव की जगह आत्म-नियंत्रण, सत्य, और अहिंसा के सिद्धांतों का पालन प्रमुख था। गांधीजी ने यह साबित किया कि किसी भी समाज का नेतृत्व केवल शारीरिक ताकत से नहीं, बल्कि नैतिक साहस और सच्चाई के प्रति प्रतिबद्धता से किया जा सकता है। उनके आदर्शों का आधार हमेशा उनके आत्मबल पर रहा, जिससे वे व्यक्तिगत और सामूहिक संघर्षों में डटे रहे।

क्या गाँधीजी बहुत ताकतवर या पहलवान थे? नहीं। उनका वज़न 113 पाउंड था। वह ऊँचे तगड़े नहीं थे। छोटे कद के नाजुक, चश्मा लगाने वाले, नकली दाँत लगाकर खाने वाले दुबले-पतले आदमी थे।

क्या वह शरीर से नहीं तो दिमाग से बहुत तेज थे? क्या वह बहुत पढ़े-लिखे थे? क्या उनकी बहुत-सी डिग्रियाँ थीं? क्या अच्छा भाषण देनेवाले आदमी थे? नहीं, वह मैट्रिक से आगे हिन्दुस्तान में नहीं पढ़े। न उन्होंने बी. ए., एम. ए. या और कोई डिग्री पाई। इंग्लैंड में जाकर, चार साल रहकर उन्होंने “बैरिस्टर” की डिग्री पाई। बाईस बरस की उम्र में वे लौट आए। वे अटक – अटक कर बोलते थे। और वह भी सीधा-सादा । उनकी भाषा में कोई उतार-चढ़ाव, नाटकीयता नहीं थी ।

क्या वह बहुत अच्छे कपड़े पहनते थे? नहीं। जैसे स्वामी विवेकानंद का साफा या लोकमान्य तिलक की लाल पगड़ी या सुभाषचंद्र बोस की फौजी पोशाक जैसा उनका कोई विशेष पहनावा नहीं था। शुरू में वह काठियावाड़ी पगड़ी पहनते थे। बाद में सफेद टोपी पहनने लगे जो बाद में गाँधी टोपी कहलाई। इंग्लैंड में जो हैट-सूट-टाई पहनता था, उसने कुर्ता पहनना भी छोड़ दिया। एक धोती, एक चादर-हाथ की कती बनी, यही उनकी पोशाक थी। मामूली किसान की तरह बापू रहते थे। एक-एक कर के बाहरी ताम-झाम उन्होंने छोड़ दिया। लोग उन्हें “महात्मा” कहने लगे।

क्या उनके पास बहुत पैसा था? यह ठीक है कि उनके पिता एक रियासत के दीवान थे। उनका पुश्तैनी बड़ा मकान था, जो आज भी राजकोट में है। वह राष्ट्रीय स्मारक बन गया है। पर उन्होंने अपने माँ-बाप से न बड़ी धन-दौलत, न जायदाद, न बैंक अकाउंट पाया। न अपनी मोटरकार थी, न कोई लंबा-चौड़ा सुख चैन का सामान था। वह धीरे-धीरे अपनी कमाई भी छोड़ते गए। चार बेटों के लिए वे कुछ नहीं छोड़ गए, सिवा अपने नाम के। जो कुछ वह जनता से चंदे के रूप में माँगकर जमा करते थे, वह धन उन्होंने जनता को वापिस दे दिया। वह मानते थे कि पैसे वाला पैसे को “दरिद्रनारायण” के लिए खर्च करे। वह सिर्फ उस पैसे का “ट्रस्टी” है। यानी सिर्फ अच्छे काम में, समाज की सेवा में उसे लगाने वाला, पूँजी का “चौकीदार”, “पूँजी पति” नहीं ।


पटना विद्रोह का प्रसिद्ध 1855 का लोटा आन्दोलन


ऐसे महात्मा गांधी को हम किस एक जगह का कैसे कहें? जन्म अक्टूबर 1869 में गुजरात के सौराष्ट्र में, पढ़ाई हुई लन्दन में, वकालत करने गए दक्षिण अफ्रीका में। देश में 1915 में लौटे तो बिहार के चंपारन में आंदोलन शुरू किया। आश्रम बनाए साबरमती .(गुजरात) और वर्धा के पास सेवाग्राम (महाराष्ट्र) में रहते थे अक्सर जेल में। दिल्ली आए तो भंगी कालोनी में रहे। एक चौथाई जिंदगी यात्राओं में बीती। वह देश के सब प्रांतों के सब धर्मों के सब भाषा बोलने वाले लोगों को साथ लेकर चले।

 सन् बीस, सन् तीस, सन् चालीस में बड़े-बड़े “सत्याग्रह” आंदोलन चलाए। कभी “स्वदेशी” कपड़े का आंदोलन, कभी नमक आंदोलन, कभी “करो या मरो” या “भारत छोड़ो आंदोलन। उनके त्याग से देश को स्वतंत्रता मिली। पर देश का बंटवारा भी इसी समय हुआ। 31 जनवरी 1948 को उन्हें एक सिरफिरे ने गोली मार दी। उन्हें सारा देश “राष्ट्रपिता” कहता था।

 

गांधीजी का सत्य के लिए मरने-मिटने का आग्रह

महात्मा गांधी के लंबे कान देखकर सरोजिनी नायडू उन्हें “मिकी माउस” कहती थीं, और जो अपने आप को “दरिद्र नारायण” यानी गरीब से गरीब हिन्दुस्तानी जैसा मानता था, सब यह जानना चाहेंगे कि वह कैसे रहता था। क्या खाता-पीता था? उसके आसपास कैसे लोग रहते थे? उसका दिनभर का क्या कार्यक्रम था ?

महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में 1893 में एक वकील के नाते गए। वहाँ उन्होंने भारत से तमिल कलियों की और मज़दूरों की हालत देखी। वहाँ के गोरे ब्रिटिश शासक उन काले लोगों को गुलामों की तरह मानते थे। बहुत बुरा सलूक करते थे। उन्हें हर साल तीन पाउंड टैक्स इस बात का देना पड़ता था कि मज़दूरी उन्हें मिले। उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं था। हर भारतीय को अपने दोनों हाथों की दस अँगलियों के निशान देने पड़ते थे। अगर वह ईसाई धर्म नहीं मानता है, तो उसकी शादी होने पर उसकी पत्नी को पत्नी नहीं माना जाता था।

हर जगह उससे छुआछूत बरती जाती थी । गोरे लोग काले आदमियों को अपनी बस्ती में मकान नहीं देते थे। उन्हें शहर के अलग हिस्से में रहना पड़ता था। वे रेलगाड़ी में “काले आदमियों के लिए” अलग डिब्बों में ही प्रवास कर सकते थे। घोड़े की बग्गियों में भी वे गौरों के साथ नहीं बैठ सकते थे। वे गोरों के स्कूलों में पढ़ नहीं सकते थे। उनके होटल अलग थे। वे व्यापार नहीं कर सकते थे। उनकी दुकानें अलग थीं। वे अफ्रीका के नागरिक नहीं बन सकते थे।

महात्मा गांधी को गोरे-काले का यह भेद बहुत बुरा लगा। उन्होंने इसके विरोध में अखबार निकाले । कानूनी लड़ाई की। काले लोगों का मोर्चा संगठित किया और पदयात्रा से अपनी बात मनवाई | गोरों के बराबर कालों को रहने के स्थान और यातायात वाहन मिलने चाहिए। दोनों में मानवीय व्यवहार एक-सा होना चाहिए। यह सिद्ध करने के लिए गाँधीजी ने 1904 में “फीनिक्स” आश्रम, और 1910 में “तोलस्त्वोय फार्म “ बनवाया। यह थी ऐसी बस्ती की शुरूआत |


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आश्रम की परिभाषा बदल दी थी गांधीजी ने

Mahatma Gandhi
Mohandas Karamchand Gandhi

1915 में भारत में लौटकर आने पर अहमदाबाद में 24 मई को महात्मा गांधी  ने एक आश्रम बनाया। वह पहले साबरमती आश्रम और बाद में “सत्याग्रह आश्रम” कहलाया। वह जब दांडी में नमक सत्याग्रह के मोर्चे पर 1930 में, 79 साथियों के साथ निकले तो उन्होंने प्रण किया था कि “स्वराज्य लेकर ही मैं लौदूँगा”।

फिर वह लौटकर वहाँ नहीं गए। जेल में चार वर्षों तक रहकर बाहर आए तो 1934-35 में वह वर्धा गए । जमनालाल बजाज ने वर्धा से सात मील दूर एक गाँव में, उन्हें ज़मीन दी । वहाँ उन्होंने सेवाग्राम आश्रम स्थापित किया।अब यह ” आश्रम” शब्द क्या है? इसका मतलब क्या है? हमने रामायण में ऋषि वशिष्ठ का आश्रम सुना है, जहाँ राम-लक्ष्मण पढ़ते थे। कृष्ण सांदीपनी आश्रम में पढ़ते थे। क्या यह पुराने ज़माने में “स्कूल” का दूसरा नाम था ? उसे गुरुकुल भी कहते थे। पर जहाँ लोग पढ़ने ही नहीं जाते थे, शहर से दूर जंगल मैं, एकांत में, शांति से जाकर तप करते थे, उसे भी आश्रम कहते थे।

पुराने ज़माने में आश्रम धार्मिक होते थे। जैसे मंदिरों के साथ संस्कृत पढ़ने के आश्रम या विद्यालय थे । वैदिक लोगों की पाठशालाओं के आश्रम । बौद्धों के “बिहार, संघाराम” या मुसलमानों के “खानकाह”, या ईसाइयों के “हर्मिटेज” आदि । बाद में सामाजिक सुधार के उद्देश्य से भारत में आश्रम बने, मिशनरियों “सेपिनरी”, “डॉर्मिटेरी” के ढंग पर – “अनाथ आश्रम”, “विधवा आश्रम”, “अंध आश्रम, आदि। कोई भी ऐसी बस्ती, जो भीड़-भाड़ और शहर के शोर से दूर, एक ही आदर्श को लेकर बनाई जाए वह आश्रम है। जैसे “योगाश्रम” । या बीमारों के लिए “सैनिटोरियम” या प्राकृतिक चिकित्सालय आदि ।

गाँधीजी का आश्रम एक प्रयोगशाला थी

महात्मा गांधी  का आश्रम सिर्फ एक धर्म के लोगों के लिए नहीं था । सबकी प्रार्थना वहाँ होती थी। वह सिर्फ रोगियों या विकलांगों के लिए नहीं था। चिकित्सालय भी वहाँ था । वह सिर्फ पढ़ने-पढ़ाने का स्थान नहीं था । तालीमी संघ का मुख्यालय भी वहाँ था। वह सिर्फ स्वयं सेवकों को या सत्याग्रहियों को प्रशिक्षित करने का स्थान नहीं था। वह सिर्फ बूढ़े लोगों का वृद्धाश्रम या विश्राम स्थान नहीं था।

वहाँ कई बड़े नेता जैसे खान अब्दुल गफ्फार खाँ , राजेन्द्रप्रसाद, आचार्य नरेन्द्रदेव आदि विश्राम करने भी जाते थे। वह केवल एक बड़े आदमी का मुख्य कार्यालय और अतिथि शाला (गेस्ट हाउस) नहीं थी । वहाँ बापू के कई मेहमान, देशी और विदेशी, आकर रहते थे। गाँधीजी का आश्रम एक प्रयोगशाला थी, जैसा वे उसे कहते थे। विनोद में वे कहते थे कि सब तरह के विचित्र लोग उनके आसपास आया करते थे। उनके रोगों का प्राकृतिक उपचार वे स्वयं करते। एक दूसरे से राय रखने वाले लोग एक साथ कैसे रह सकते हैं, एक दूसरे को धीरज से सहन कैसे कर सकते हैं। यह सब आश्रम में बापू करते थे। तरह-तरह के सनकियों को जमा करने के कारण, वह विनोद से गुजराती में “आश्रम” को “आशरम” कहते थे ।

महात्मा गांधी  का आश्रम एक साथ उनका रहने का स्थान, कार्यालय, चिकित्सालय सामुदायिक रसोईघर ( किचन, जिसे रसोड़ा कहते थे), सामूहिक श्रम की प्रयोगशाला थी। जैसे आश्रम के सब सदस्य सब काम खुद करते, जैसे आटा पीसना, सब्जी काटना, रसोई बनाना, पेड़ लगाना, दूध की डेयरी चलाना, टट्टियाँ साफ करना, मैला खेतों में खाद की तरह डालना, खेती करना, अपने कपड़े आप धोना, सिलना, इस्त्री करना, बाल काटना, एक दूसरे को पढ़ाना सिखाना, पास के गाँव के लोगों की सेवा करना आदि बारी-बारी से करते थे।

कोई काम न छोटा था न बड़ा। वहाँ रहने वाला कोई बड़ा नहीं था। न छोटा, न गोरा,न काला। न हिन्दू न मुसलमान। ईश्वर में विश्वास करने वाला, और नहीं करने वाला। कोई भेद-भाव नहीं था। न अमीर, न गरीब। न बूढ़ा, न जवान, न स्त्री, न पुरुष, न मजबूत न कमजोर। कोई किसी से अपने आपको कम नहीं समझते थे। सब इन्सान बराबर थे। चाहे खूब पढ़ा-लिखा हो, चाहे अनपढ़ । वहाँ बड़े-बड़े लाट और अफसर आएँ चाहे एकदम गाँव का किसान या दरिद्र मजदूर, सब को एक जैसा खाना, एक जैसा कपड़ा, एक जैसा रहने का स्थान, ओढ़ना-बिछाना, एक जैसा श्रम सब को करना पड़ता था। इसीलिए वह आश्रम कहलाया।

महात्मा गांधी  के अफ्रीका के आश्रम और भारत के आश्रम की स्थापना के वर्ष देखें तो उनकी पूरी आयु में पहला आश्रम 35 वर्ष की उम्र में, दूसरा 41 वर्ष की आयु में, और भारत में दोनों आश्रम साबरमती 46 वर्ष की उम्र में और अंतिम सेवाग्राम 66 वर्ष की उम्र में उन्होंने स्थापित किया।

सेवाग्राम से ही 73 वर्ष की उम्र में आगा खां महल में नजरबंद होकर भी जेल में गए, सो वापिस नहीं लौटे। फिर वे दिल्ली की भंगी कालोनी में और कभी-कभी बिरलाभवन में भी रहते थे, या बंबई के “मणि भवन” में।

इस तरह से हिन्दू आश्रम व्यवस्था के अनुसार, उन्होंने बराबर अस्सी वर्षों को आयु के चार हिस्से करने पर, चालीस वर्ष के बाद से आश्रम जीवन शुरू किया और 60 वर्ष के बाद वे सन्यासी की तरह पूर्ण रूप से राष्ट्र को अर्पित हो गए। वह पूरे अस्सी वर्ष नहीं जी सके, 1948 में उनकी हत्या कर दी गई। वह गोली के शिकार न होते तो शायद सौ वर्ष जीते।

महात्मा गांधी और साबरमती आश्रम
महात्मा गांधी और साबरमती आश्रम

संदर्भ

डा प्रभाकर माचवे, गांधीजी के आश्रम में, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद

 

 

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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