भील आंदोलन के नायक मोतीलाल तेजावत
बिजोलिया के किसान सत्याग्रह ने राजस्थान में पहली बार जनचेतना की अलख जगाई और लंबे संघर्ष के बाद सफलता पाई। राजस्थान में सामंती शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध अहिंसक आंदोलनों की शुरुआत का श्रेय मोतीलाल तेजावत को दिया जाता है।
भील नेता मोतीलाल तेजावत ने राजस्थान के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों में महत्वपूर्ण स्थान अर्जित किया। जिस आंदोलन का उन्होंने नेतृत्व किया, उसमें भीलों का महत्वपूर्ण योगदान था। भील, आदिवासी समुदाय का हिस्सा होते हुए सदियों से शोषण और उत्पीड़न के शिकार रहे थे और किसी ऐसे नेता की प्रतीक्षा कर रहे थे जो उन्हें इससे मुक्ति दिला सके। मोतीलाल तेजावत का जन्म मेवाड़ के भील क्षेत्र में हुआ था। बड़े होने पर वे एक जागीरदार के कामदार बने, जहाँ उन्होंने देखा कि मेवाड़ के महाराणा के शिकार दौरों के दौरान बेगार प्रथा के नाम पर लोगों को कितने कष्ट सहने पड़ते हैं। यह देखकर उन्होंने राज्य की नौकरी छोड़ दी।
उसी समय देश में अंग्रेजी शासन के खिलाफ असहयोग आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी। मोतीलाल तेजावत ने मेवाड़ का नेतृत्व किया और अपने समूह के साथ महाराणा की सेवा में उपस्थित होकर किसानों की मांगें रखीं। महाराणा ने उनकी मांगें स्वीकार कर लीं, जो तेजावत जी की पहली जीत थी।
इस पहली सफलता के बाद मोतीलाल तेजावत भील क्षेत्र में भ्रमण करने लगे। उनके पास भीलों के लिए एक ही संदेश था: “यदि वे अन्याय, अत्याचार, शोषण, और उत्पीड़न से मुक्त होना चाहते हैं, तो एकता के सूत्र में बंध जाएं।” इस प्रकार भील आंदोलन “एकी आंदोलन” का रूप ले चुका था, जो आसपास की रियासतों में भी तेजी से फैलने लगा।
इस आंदोलन ने रियासती शासकों को हिला दिया; कई जगह उनके सिंहासन डगमगाने लगे। कहीं उन्होंने समझौता करने की चेष्टा की, तो कहीं दमन का सहारा लिया। एक जागीरदार ने मोतीलाल तेजावत को गोली मारने की साजिश रची, पर वह इसमें असफल रहा।
नीमड़ा का नरसंहार
इस आंदोलन के दौरान गुजरात की विजयनगर रियासत में एक हत्याकांड हुआ, जो अपनी भयावहता में जलियांवाला बाग हत्याकांड से भी अधिक था। राज्य के नीमड़ा गांव में बड़ी संख्या में भील एकत्र थे, और वहां विभिन्न रियासती सरकारों के प्रतिनिधियों के साथ मोतीलाल तेजावत की समझौता वार्ता चल रही थी। रियासतों की सेनाएं भी वहां तैनात थीं। अचानक, रियासती सैनिकों ने निहत्थे भीलों पर गोलीबारी शुरू कर दी। इस गोलीकांड में करीब 1200 भील मारे गए, और तेजावत भी घायल हो गए। समझौता वार्ता टूट गई, और भील तेजावत को सुरक्षित स्थान पर ले गए।
इसके बाद मोतीलाल तेजावत का आठ वर्षों का अज्ञातवास काल शुरू हुआ, जिसमें एक भील समूह हमेशा उनके साथ रहता और उनकी सुरक्षा करता। 1922 में, जब तेजावत अज्ञातवास में थे, सिरोही रियासत के दीवान रमाकांत मालवीय उनसे मिलने उनके शिविर में पहुंचे। उस समय राजस्थान सेवा संघ के अध्यक्ष विजयसिंह पथिक अपने साथियों के साथ समझौता वार्ता में सहायता के लिए वहां मौजूद थे। मालवीय को तलवारों के साये में होकर गुजरना पड़ा, और दंगा न करने की शपथ लेनी पड़ी। हालांकि, समझौता हुआ, पर उसका पालन नहीं हुआ।
इसके बाद, एक अंग्रेज अधिकारी के नेतृत्व में भीलों पर हमला हुआ, और सिरोही रियासत के दो भील गांव—भूला और बालोलिया—जला दिए गए। भीलों का सारा अनाज नष्ट कर दिया गया, और उनके मवेशियों को घायल कर दिया गया। इस हमले में कई भील मारे गए और कई घायल हुए। इसे सिरोही भील हत्याकांड के नाम से जाना जाता है, जिसकी देश-विदेश में निंदा हुई। राजस्थान सेवा संघ ने इस घटना के बाद पीड़ित भीलों के लिए सहायता कार्य भी संगठित किया।
मोतीलाल तेजावत द्वारा संचालित भील आंदोलन का एक सामाजिक पहलू भी था। वे भीलों को शराब और मांस के सेवन की बुराइयों को त्यागने का उपदेश देते थे। इस प्रकार, भील आंदोलन समाज सुधार का आंदोलन भी था।
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गांधीजी के सलाह पर आत्मसमर्पण किया था मोतीलाल तेजावत ने
जब महात्मा गांधी को भील आंदोलन के बारे में अवगत कराया गया, उन्होंने मणिलाल कोठारी के माध्यम से मोतीलाल तेजावत को पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण का परामर्श दिया। तेजावत ने यह सलाह मान ली और लगभग सात वर्ष के अज्ञातवास के बाद, 1929 में ईडर रियासत के खेड़ब्रह्मा गांव में पुलिस के हवाले कर दिया। ईडर रियासत उन पर मुकदमा नहीं चलाना चाहती थी और उसने अन्य रियासतों से पूछा कि यदि वे चाहें तो तेजावत को उनके सुपुर्द किया जा सकता है। केवल उदयपुर रियासत ने उनकी मांग की और उन्हें वहां भेजा गया।
इसके साथ ही तेजावत का लंबा जेल जीवन शुरू हुआ। उन्हें 6 अगस्त 1929 से 23 अप्रैल 1936 तक उदयपुर की सेंट्रल जेल में कैद रखा गया। रिहाई के बाद उन पर यह प्रतिबंध लगा दिया गया कि वे उदयपुर की नगरपालिका सीमा से बाहर नहीं जाएंगे। 1938 में जब मेवाड़ प्रजामंडल का आंदोलन शुरू हुआ, तो तेजावत ने इसमें भाग लिया और गिरफ्तार भी हुए, लेकिन कुछ समय बाद रिहा कर दिए गए।
अगस्त 1942 में मेवाड़ प्रजामंडल ने “अंग्रेजों, भारत छोड़ो” आंदोलन के दौरान महाराणा को अंग्रेजों से संबंध तोड़ने का नोटिस दिया। इस पर तेजावत को तीन वर्षों के लिए नजरबंद कर दिया गया, और 1945 में रिहाई के बाद, उन्हें पुनः उदयपुर की नगरपालिका सीमा के भीतर रहने का प्रतिबंध लगा दिया गया, जो भारत की स्वतंत्रता तक जारी रहा।
मोतीलाल तेजावत ने गांधीजी के परामर्श पर आत्मसमर्पण किया था। गांधीजी ने सार्वजनिक रूप से उदयपुर रियासत के अधिकारियों से तेजावत की रिहाई का अनुरोध किया ताकि वे भील समुदाय में अपना समाज सुधार कार्य जारी रख सकें। लेकिन उदयपुर रियासत ने गांधीजी के इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया और तेजावत को जेल में बंद रखकर प्रतिशोध की भावना को संतुष्ट किया।
स्वतंत्रता संग्राम में तेजावत की सक्रिय भूमिका थी। उन्होंने मेवाड़ प्रजामंडल द्वारा छेड़े गए सत्याग्रह आंदोलन और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। मोतीलाल तेजावत महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने भील जाति जैसी युद्ध-जीवी जाति के लाखों लोगों को अहिंसक आंदोलन में ढाला। रियासतों द्वारा किए गए नृशंस हत्याकांडों के बावजूद, वे अहिंसा के मार्ग पर अडिग रहे।
मोतीलाल तेजावत का जीवन भील आंदोलन से गहराई से जुड़ा हुआ था। यह स्वतंत्रता काल का एक महान आंदोलन था, जिसमें लाखों स्त्री-पुरुषों ने भाग लिया और कुर्बानियां दीं। तेजावत का जीवन आज भी भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।
संदर्भ
कांकरिया, प्रेमसिंह — भील क्रांति के प्रणेता: मोतीलाल तेजावत। उदयपुर: राजस्थान साहित्य अकादमी, 1985
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में