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इतिहास में झांसी की रानी का सत्य लुप्त नहीं हो सकता- महाश्वेता देवी

आज  रानी लक्ष्मीबाई की जन्मतिथि है।  महाश्वेता देवी द्वारा लिखित झांसी की रानी  एक प्रसिद्ध उपन्यास है। लक्ष्मण राव, महारानी लक्ष्मीबाई के पौत्र, ने 20 जनवरी 1956 को महाश्वेता देवी को इस उपन्यास के लिए बधाई देते हुए कहा था:

“इस कठिन कार्य को हाथ में लेने के तुम्हारे संकल्प की मैं बहुत सराहना करता हूं और सफलता के लिए शुभकामनाएं देता हूं।”

महाश्वेता देवी के उपन्यास झांसी की रानी का एक छोटा सा अंश:

रानी लक्ष्मीबाई
रानी लक्ष्मीबाई

 

 

झाँसी की रानी की कहानी लोक चेतना का हिस्सा है

बचपन में, एक दिन नानी ने झाँसी की रानी की कहानी सुनाई थी। लालटेन के धुँधले प्रकाश में उनके कोमल कंठ से सुनी वह कहानी मुझे एक अद्भुत रूपक कथा की तरह प्रतीत हुई।

उन दिनों के साथ-साथ वे लोग भी समय की धारा में खो गए, और उनके साथ वे सभी रूपकथाएँ भी बीते समय का हिस्सा बन गईं। फिर भी, उस दिन से झाँसी की रानी की कहानी मेरे मन में उज्ज्वल रूप से अंकित हो गई।

शिक्षा और इतिहास-चेतना के साथ-साथ, जब राष्ट्रीय जीवन के प्रति अनुसंधान की इच्छा का विकास हुआ, तब झाँसी की रानी की कहानी पर आधारित एक संपूर्ण ग्रंथ लिखने की आकांक्षा मेरे मन में जाग्रत हुई। किंतु प्रारंभिक प्रयासों से ही यह स्पष्ट हो गया कि 1857-58 के राष्ट्रीय अभ्युत्थान के संबंध में जानकारी प्राप्त करना हमारे लिए अत्यंत सीमित और कठिन है।

अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा लिखी गई पुस्तकों को छोड़कर, प्रामाणिक पुस्तकों का पूर्ण रूप से अभाव है। प्रासंगिक चिट्ठी-पत्री या अन्य किसी दस्तावेज़ का मिलना भी अत्यंत दुष्कर है। भारतीय दृष्टिकोण से इस देशव्यापी विशाल जागरण के संबंध में, रजनीकांत गुप्त के अतिरिक्त किसी अन्य द्वारा कोई उल्लेखनीय प्रामाणिक ग्रंथ रचना का प्रयास नहीं हुआ है।

इतिहास का सत्य इतनी सरलता से विलुप्त नहीं होता

फिर भी, इस जागरण की महिमा को उचित महत्त्व देने का समय अब आ गया है। उस समय भारतीयों के अंग्रेजों के प्रति प्रबल विद्वेष को देखकर ब्रिटिश शासक निःसंदेह शंकाकुल हो गए थे। इसी कारण, उन्होंने इतिहास से 1857-58 के इन दो वर्षों को पूरी तरह मिटा देने का प्रयास किया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने निर्मम अत्याचार और बिना विचारे नरसंहार किए, और इन घटनाओं से जुड़े साक्ष्यों को नष्ट करने के लिए विद्रोह से संबंधित सभी कागज़-पत्रों को अपने अधिकार में ले लिया।

अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज़ ने झाँसी पर आक्रमण करने से पहले राहतगढ़ किले पर आक्रमण के संबंध में कहा:

“मंदसौर का शाहजादा किले में नहीं था, जैसाकि बानपुर के राजा द्वारा लिखे गए एक खुले पत्र से सिद्ध होता है।”

(देशी पत्राचार का अकूत ढेर: सैन्य विभाग में संरक्षित राजकीय पत्र, जिल्द 4, पृष्ठ 57-58)

कालपी के युद्धक्षेत्र में ह्यूरोज़ को झाँसी की रानी की जो निजी पेटिका और चिट्ठी-पत्री मिली थी, वह बात पुस्तक में उल्लिखित की गई है, किंतु उन चिट्ठियों के निश्चित विवरण सदा के लिए लुप्त हो चुके हैं। फिर भी, इतिहास का सत्य इतनी सरलता से विलुप्त नहीं होता।

भारत के जिन-जहाँ स्थानों पर यह क्रांति घटित हुई, वहाँ के लोगों ने इसे किस भाव से ग्रहण किया, इसके प्रमाण मुझे लोकगीतों, छड़ा काव्यों, रासो और लोक में प्रचलित अनेक कहानियों में मिले हैं। स्थानीय लोग आज भी रानी की मृत्यु को अस्वीकार करते हैं। झाँसी की रानी आज भी स्थानीय लोकगाथाओं और किंवदंतियों में जीवित है। गाँववासी उसकी कहानी श्रद्धा के साथ आज भी स्मरण करते हैं

1857 के क्रांति के भारतीय शहीदों के बलिदान का कोई निशान नहीं मिलता

यह तो हुई एक तरफ की बात। दूसरी ओर, 1857  के क्रांतिकारी आंदोलन अथवा झाँसी की रानी के संबंध में हमारे पास सच्चे तथ्यों का एकांत रूप से अभाव है। इसके परिणामस्वरूप, हमारी तरफ से भी कई क्षेत्रों में क्रूर अवहेलना हुई है। उदाहरण के लिए, तात्या टोपे का एक अँगरखा (संभवतः उनका अंतिम अँगरखा) आज भी अज्ञात कारणों से विलायत में रखा हुआ है।

लखनऊ की रेजीडेंसी को केंद्र बनाकर एक दिन ब्रिटिश और भारतीयों के बीच भयंकर संग्राम हुआ था। 1858 ई. से 1947 ई. तक वहाँ ब्रिटिश पताका गर्वपूर्वक फहराती रही। 1947 में वह पताका वहाँ से जरूर उतार ली गई, किंतु सुना जाता है कि उसके स्थान पर आज भी राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया गया है।

उपर्युक्त रेजीडेंसी आज भी ब्रिटिशों के गौरव और संग्राम के एक विशाल स्मृति मंदिर के रूप में खड़ी है। मारे गए अंग्रेजों के नाम वहाँ की प्रत्येक दीवार पर उज्ज्वल अक्षरों में खुदे हुए हैं। उनके समाधिस्थल पुष्पों से सजे रहते हैं। किंतु शहीद भारतीयों की स्मृति रक्षा के लिए वहाँ कोई आयोजन नहीं होता। वहाँ भारतीय शहीदों का नाम या उनके बलिदान का कोई निशान नहीं मिलता।

उस दिन सिंहासन पर जिनका आधिपत्य था, कलम भी उनके अधिकार में थी। इस कारण, जो कुछ उन्होंने लिखा, सिखाया और दिखाया, वही आज हम पढ़ रहे हैं, जान रहे हैं, और देख रहे हैं।

झाँसी में रानी की एक प्रतिमा को छोड़कर उनकी स्मृति का कोई अन्य चिह्न नहीं है। ग्वालियर में भी केवल एक छोटी छतरी (समाधि) है, जो उनकी अंतिम शय्या के स्थान को चिन्हित करती है।

इन्हीं परिस्थितियों के संदर्भ में मेरे इस ग्रंथ की रचना का सूत्रपात हुआ। किंतु लेखन के दौरान मुझे अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा।

संदर्भ

महाश्वेता देवी, झांसी की रानी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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