बिरसा मुंडा होने का अर्थ
आज से ठीक 120 साल पहले पच्चीस साल के बिरसा मुंडा रांची जेल में शहीद हो गए थे.
आदिवासियों के ज़्यादातर संघर्ष आजादी की लड़ाई की कहानियों से बाहर रखे जाते हैं लेकिन तथ्य यह है कि अंग्रेज़ों के क़ब्ज़े के बाद से ही भारत में उनकी लूट के ख़िलाफ़ लगातार छोटे-बड़े स्थानीय संघर्ष होते रहे हैं. चाहे 1798 का चोआड विद्रोह हो या 1800 का चेरो विद्रोह या फिर 1818 का भील विद्रोह, 1820 का हो विद्रोह. 1829 का खसिया विद्रोह, 1831 का कोल विद्रोह, 1833 का गोंड विद्रोह, 1839 का कोली विद्रोह या फिर 1855 का संथाल विद्रोह, ये सब भारतीय मुक्ति संग्राम का सुनहरा अध्याय हैं.
1899 में शुरू हुए बिरसा विद्रोह को आज याद करना अपने समय को समझने के लिए बेहद ज़रूरी टूल्स दे सकता है. 1857 के महान भारतीय विद्रोह को कुचल देने के बाद अंग्रेज़ और उनके पिछलग्गूओं ने इस देश के मूलनिवासियों से ज़मीन क़ब्ज़े की पहली बड़ी मुहिम शुरू की. इसी के तहत रांची के आसपास ज़मींदारों ने छलपूर्वक मुण्डा अंचल के भोले भाले आदिवासियों की ज़मीनें बड़ी मात्रा में क़ब्ज़ा कर लीं. पंद्रह साल तक मुंडा आदिवासी सरकारी तरीक़े से लड़ते रहे. उनका कहना था कि हम ज़मींदारों को लगान नहीं देंगे, चूंकि ज़मीन हमारी है तो हम सीधे अंग्रेज़ सरकार को लगान देंगे. राँची से लेकर सिंहभूम तक मुंडा क़बीलों के सरदारों के नेतृत्व में चली इस लड़ाई को ‘सरदारी लड़ाई’ कहते हैं.
बिरसा की कहानी
अंग्रेज़ों का समर्थन पाने के लिए कई आदिवासी ईसाई बन गए थे. इन्हीं में एक बिरसा भी थे. राँची ज़िले के तमार थाने के दक्षिण की पहाड़ियों में स्थिर एक छोटे से गाँव चलकद में जन्मे बिरसा मुंडा चायबासा के ज़र्मन स्कूल में पढ़ते हुए ईसाई बन गए थे और उन्हें डेविड के नाम से पुकारा जाता था. लेकिन जल्द ही वे ईसाई धर्म से निराश हो फिर से मुंडा बन गए और 1895 में खुद को भगवान का अवतार घोषित कर मुण्डों की मुक्ति की लड़ाई का आह्वान किया. ‘भारत का मुक्ति संग्राम’ में अयोध्या सिंह कहते हैं – संभवतः मुण्डों को जगाने और ज़मींदारों तथा अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए उन्हें यही उपाय सूझा. उन्होंने प्रचार किया कि जो मुण्डा उनके साथ नहीं आएगा उसका नाश हो जाएगा.
बिरसा ने खुली घोषणा की कि अंग्रेज़ी राज ख़त्म हो गया है और मुंडा राज की स्थापना हो गई है और अंग्रेज़ों या ज़मींदारों को कोई भी टैक्स देने पर पाबंदी लगा दी. 16 अगस्त 1895 को जब बिरसा को गिरफ़्तार करने अंग्रेज़ी पुलिस उनके गाँव चलकद पहुंची तो गाँववालों ने भगा दिया लेकिन आठ दिन बाद उन्हें सोते में घर से पंद्रह और साथियों के साथ गिरफ़्तार कर लिया गया और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत के ज़ुर्म में दो साल जेल में रखा गया.
उलगुलान
जेल से छूटने के बाद नवम्बर, 1897 में बिरसा ने आन्दोलन को फिर से शुरू किया. 28 जनवरी को रांची के पास चुटिया के एक मंदिर में उन्होंने क़ब्ज़ा कर मूर्तियाँ उखाड़ फेंकी, जो परम्परा में मुंडा लोगों का था और बाहरी लोगों ने क़ब्ज़ा कर लिया था. इस पर फिर से उनकी गिरफ़्तारी का हुक्म जारी हुआ. लेकिन बिरसा अब गोरिल्ला तरीक़े से लड़ रहे थे. जगन्नाथपुर जाकर उन्होंने बुजुर्ग मुण्डों से आशीर्वाद लिया और जगह-जगह घूमकर मुण्डों को एकताबद्ध करने लगे. वह और उनके साथी लोगों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संगठित करते और कोई टैक्स न देने को कहते. 1899 में क्रिसमस के दिन उनके लोगों ने खुन्ती तमार, बसिया और रांची के कई इलाक़ों में ईसाई बन गए मुण्डों पर हमला किया जिसमें कई लोग मारे गए. लेकिन 5 जनवरी 1899 को उन्होंने घोषणा की कि उनके असली दुश्मन साहब लोग और अंग्रेज़ सरकार हैं इसलिए चाहे ईसाई भी बन गया हो लेकिन किसी मुंडा पर कोई हमला न किया जाए.
अब सारे मुण्डा अंचल में विद्रोह फैल गया. 6 जनवरी को एतकेडीह में गया मुंडा और उनके लोगों ने दो कांस्टेबल्स को काट डाला. 7 जनवरी को खुन्ती थाने पर हमला करके एक हिस्सा जला दिया, एक कांस्टेबल को मार डाला और कुछ स्थानीय बनियों के घरों में आग लगा दी.
9 जनवरी को डेढ़ सौ पुलिसवालों से डुमरी पहाड़ी में उनकी मुठभेड़ हुई. पुलिस ने आत्मसमर्पण के लिए कहा तो बिरसा ने घृणापूर्वक ठुकरा दिया. गोलीबारी में दस मुंडा विद्रोही मारे गए और सात घायल हुए. इसके बावजूद बिरसा संघर्ष चलाते रहे लेकिन 3 फरवरी को उन्हें सिंहभूम में गिरफ़्तार कर लिया गया. उन पर, उनकी पत्नी मनकी और 482 साथियों पर मुक़दमा चला लेकिन 9 जून 1900 को बिरसा ने जेल के अन्दर ही आख़िरी साँस ली. अंग्रेज़ों का कहना था कि वह हैजे के चलते मरे हैं हालाँकि काफी लोग मानते हैं कि उन्हें धीमा ज़हर देकर मार दिया गया. इस मुक़दमे में 3 बिरसापंथियों को फाँसी की सज़ा और 47 को कालापानी की सज़ा हुई. इस आन्दोलन ने पूरे देश में चेतना की लहर पैदा की और कोलकाता में सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने वहाँ के प्रमुख समाचारपत्र -बंगाली- में उनके बारे में लिखा.
आज बिरसा का मतलब
आज बिरसा को याद करना तब और महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब नब्बे के दशक के बाद ज़मीनों और प्राकृतिक संसाधनों पर क़ब्ज़े का एक और दौर चला है. आदिवासी इलाक़ों के जिस तरह की लूट मची है नब्बे के उदारीकरण के बाद उससे हम सब परिचित हैं. विरोध करने वाले आदिवासियों के साथ लगभग वैसा ही सलूक सभी सरकारों ने किया है जैसा मुंडा लोगों के साथ हुआ. साथ ही पूरे देश और दुनिया में पूँजी की लूट जारी है जिसके चलते लोग तबाह हो रहे हैं.
बिरसा हमें इस लड़ाई के ख़िलाफ़ एकताबद्ध संघर्ष की प्रेरणा देते हैं. साथ ही यह सबक भी देते हैं कि सत्ता के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष लंबा नहीं चल सकता. इस संघर्ष के लिए सही रास्ता वही है जो गाँधी ने दिखाया – अहिंसा और सत्याग्रह.
(स्रोत : भारत का मुक्ति संग्राम, अयोध्या सिंह, प्रकाशन संस्थान-नई दिल्ली, 2006)
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