नशे, गोली-बारूद और ग़ुलामों के व्यापार की जड़ें कहाँ हैं?
[डॉ प्रवीण झा भारत से दुनिया भर में भेजे गए ग़ुलामों के इतिहास पर क्रेडिबल हिस्ट्री पर एक कॉलम लिख रहे हैं। इस बार पढिए ग़ुलामों के व्यापार का का डच कनेक्शन]
जब मैं गिरमिटिया शोध में नीदरलैंड के आर्काईव खंगाल रहा था, तो बर्मा (म्यांमार) के सिरीयम स्थान से भारत के पुलीकट लिखी एक चिट्ठी दिखी। चिट्ठी डच भाषा में थी, जिसका अनुवाद कुछ यूँ था,
“जो ग़ुलाम भेजने कहें हैं, उन्हें जल्द से जल्द भेजना! बीस ग़ुलाम अधिक भेजना क्योंकि इनके बिना कम्पनी का काम नहीं चल सकता। जब भेजना, तो यह ध्यान रखना कि ऐसे लोग हों जिनसे कोई भी काम कराया जा सके”
यह चिट्ठी 10 फरवरी, 1638 को माथिस लीनदेरस्तसें नामक एक व्यक्ति ने भेजी थी। सभी दस्तावेज डच भाषा में होने के कारण मैंने इस दिशा में आगे शोध करने का निर्णय त्याग दिया। लेकिन, यह आर्कायव[1] किसी भविष्य के शोधी के कार्य आ सकता है।
पुलीकट चेन्नई के पास ही एक स्थान है। भीड़-भाड़ वाली जगह है, लेकिन यहाँ एक बड़ी झील (lagoon) है, जिसे देखने सैलानी जाते हैं। 1605 में मसलिपटनम पर क़ब्ज़ा करने के बाद डच ईस्ट इंडिया कम्पनी[2] ने 1610 में पुर्तगालियों से यह पोत छीना था।[3] पुलीकट इनका भारतीय मुख्यालय बन गया, जहां इन्होंने एक क़िला बनाया- फ़ोर्ट गेल्द्रिया (Fort Geldria)।
डच कार्यशैली और व्यापार ब्रिटिश, फ़्रेंच या पुर्तगाली की अपेक्षा अलग ढर्रे का था। इस कथन को विस्तार देने के लिए मुझे अलग लेख लिखना होगा, लेकिन मैं अपने एक भारतीय मूल के गिरमिटिया डच मित्र आर॰ रामसहाय की कही बात लिखता हूँ,
“दुनिया में नशे, गोली-बारूद और ग़ुलामों के व्यापार की जड़ें ढूँढोगे तो डच ईस्ट इंडिया कम्पनी में उलझ कर रह जाओगे”
फ़ोर्ट गेल्द्रिया में बारूद की फ़ैक्टरी तो ख़ैर थी ही, उनका मुख्य व्यवसाय था ग़ुलामों का व्यापार। डच इस कार्य में ब्रिटिश और फ़्रेंच से कहीं आगे थे। बल्कि, उनके लिए भी ग़ुलामों का बंदो-बस्त अक्सर डच ही करते। भारतीय दलाल दक्षिण भारत से येन-केन-प्रकारेण ग़ुलाम पकड़ कर लाते और पुलीकट में बेच देते। इनकी क़ीमत 4 डच गिल्डर से 40 गिल्डर वर्णित है। 1621 से 1665 के मध्य 26,885 ग़ुलामों का व्यापार हुआ, यानी 500 से अधिक भारतीय ग़ुलाम प्रति वर्ष![4]
उन ग़ुलामों के साथ क्या हुआ? वे बर्मा, बताविया (इंडोनेशिया), यूरोप और अफ़्रीका भेजे गए?
उनकी स्थिति का पता आर्कायव में ही मिली 1671 की एक चिट्ठी से लगता है, जो पुलीकट से बर्मा लिखी गयी थी,
“अभी आपके बूढ़े, बीमार और अपंग हो गए ग़ुलामों की भरपाई के लिए हमारे पास ग़ुलाम नहीं बचे”
अब अंदाज़ा लगाएँ कि महज़ बर्मा भेजे गए ग़ुलाम अपंग और बीमार होते जा रहे थे। मेरे पास उपलब्ध एक आँकड़े के मुताबिक़ प्रति वर्ष 30 से अधिक ग़ुलामों की मृत्यु हो रही थी। अब वे ग़ुलाम कहाँ हैं, इस प्रश्न का उत्तर भला कौन दे सकता है? दस्तावेज़ों में भी उनका नाम-पता नहीं। वे तो आख़िर ग़ुलाम थे।
एक प्रश्न उभरता है कि विजयनगर साम्राज्य के राजा या दिल्ली में बैठे मुग़ल शासक औरंगज़ेब ऐसा कैसे होने दे रहे थे?
एक कारण तो यह है कि यह स्थानीय दलालों की मदद से ही हो रहा था, यानी प्रशासन की मिली भगत होगी। दूसरा कारण यह कि विजयनगर साम्राज्य अपने अवसान की ओर था, और 1645 में नायक हिंदू (स्थानीय सामंत) साम्राज्य के ख़िलाफ़ विद्रोह कर चुके थे। किसानों की स्थिति दयनीय थी, और उन्हें ग़ुलामी की ओर धकेल रही थी। खबर पहुँचने पर भारतीय शासकों द्वारा कुछ नकेल ज़रूर कसी गयी। ख़ास कर जब 1639 में ब्रिटिशों ने मद्रास शहर बसाना शुरू किया, तो पुलीकट के इस डच ग़ुलाम व्यापार में ‘तीसरा’ आ गया।
इस बार का सवाल। उत्तर [email protected] पर भेजें।
प्रश्न: 2020 में अमरीका में ट्विटर कैम्पेन चला कि अमुक व्यक्ति का नाम विश्वविद्यालय के नाम से हटाया जाए, क्योंकि वह मद्रास में ग़ुलाम व्यापार में लिप्त थे। 1985 में अमरीकी सेनट (senate) में दिए भाषण में राजीव गांधी ने भी कहा था कि काश वह मद्रास के गवर्नर न होते और हमारे देश में भी विश्वविद्यालय ही बनाते। यहाँ सत्रहवीं सदी के मद्रास के किस गवर्नर की बात हो रही है?
स्रोत
[1] https://www.nationaalarchief.nl/en/research/archive/1.04.02
[2] मूल नाम Vereenigde Oost-Indische Compagnie (VOC)
[3] 1502 से यह पोत पुर्तगालियों के क़ब्ज़े में था
[4] Wil O Dijk, Seventeen Century Burma and the Dutch East India Company, 1634-1680, NIAS Press, 2006. यह पुस्तक एक PhD शोध ग्रंथ से बनी है, जिसमें डच आर्कायव खंगाल कर अनुवाद किए गए हैं।
पेशे से डॉक्टर। नार्वे में निवास। मन इतिहास और संगीत में रमता है। चर्चित किताब ‘कुली लाइंस’ के अलावा प्रिन्ट और किन्डल में कई किताबें