क्या जन गण मन अंग्रेजों की तारीफ़ में लिखा गया है?
कौन है अधिनायक? : राष्ट्रगान विवाद
- उज्ज्वल भट्टाचार्य
राष्ट्रगान जन गण मन जितना पुराना है, उस पर विवाद भी लगभग उतना ही पुराना है।
बांगला में मूल गीत की कोई पांडुलिपि नहीं मिलती। इसलिये इसकी रचना की तारीख बताना मुश्किल है। 27 दिसम्बर, 1911 को कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन के पहली बार शांतिनिकेतन की समवेत गान मंडली ने इसे गाया था। अगले दिन गीत के अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ द बेंगली नामक समाचार पत्र में इसकी रिपोर्ट दी गई थी।
पूरा गीत पांच बन्दों(स्टैंज़ा) में है, जिनमें से पहले बन्द को राष्ट्रगान के रूप में लिया गया है। अगले दो बन्द इस प्रकार है :
अहरह तव आह्वान प्रचारित, सुनूँ उसकी उदार वाणी
हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसिक, मुसलमान, ख्रिस्तानी,
पूरब पश्चिम आते तुम्हारे सिंहासन के पास
प्रेमहार है बँधता
जन गण ऐक्यविधायक जय है, भारत भाग्य विधाता
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।
पतन अभ्युदय बंधुर पन्था, युग युग से धावित यात्री
हे चिरसारथी, तुम्हारे रथचक्र से मुखरित है दिनरात्रि
भीषण क्रान्ति के बीच सुनाई देती है तुम्हारी शंखध्वनि
संकट दुःख त्राता
जनगणपथपरिचायक जय हे, भारत भाग्य विधाता
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।
इस सिलसिले में उस वक्त की राजनीतिक हालत पर नज़र डालना ज़रूरी है। एडवर्ड सप्तम की मौत के बाद जार्ज पंचम ब्रिटिश सम्राट बने थे और दिसम्बर में उन्होंने भारत की यात्रा की। कलकत्ता के बदले दिल्ली को राजधानी बनाया गया। साथ ही बंगाल विभाजन के निर्णय को वापस लिया गया। ऐसी स्थिति में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन के दूसरे दिन शिष्टाचार के तहत ब्रिटिश सम्राट की यात्रा के स्वागत का कार्यक्रम रखा गया था। ज्ञातव्य है कि उस समय तक कांग्रेस ने देश की आज़ादी की मांग नहीं की थी।
बहरहाल, अधिवेशन में यह गीत गाये जाने के बाद तुरन्त कलकत्ता के रवीन्द्र विरोधियों ने आरोपों की बौछार शुरू कर दी कि रवीन्द्रनाथ ने जार्ज पंचम की प्रशस्ति में अपने गीत की रचना की है। उनके आरोपों का आधार ऐंग्लो इंडियन अंग्रेज़ी प्रेस की रिपोर्टें थीं। मसलन 28 दिसम्बर को ही समाचार पत्र The Englishman की रिपोर्ट में कहा गया कि सम्राट के सम्मान के लिये रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा विशेष रूप से रचित एक गीत के गायन के साथ अधिवेशन का कार्यक्रम शुरू हुआ। इससे एक क़दम आगे बढ़ते हुए The Statesman ने लिखा कि बंगाली कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सम्राट का स्वागत करने के लिये स्वरचित एक गीत गाया।
भारत की घटनाओं के बारे में ब्रिटिश समर्थक ऐंग्लो-इंडियन प्रेस में ऐसी भ्रामक रिपोर्टें छपती रहती थीं। जैसा कि Scroll में प्रकाशित एक लेख में ध्यान दिलाया गया था कि The Sunday Times ने रवीन्द्रनाथ को वंदेमातरम का रचयिता व जन गण मन को एक हिन्दी गीत कहा था। उस दिन की घटनाओं का सटीक और विशद विवरण The Bengalee समाचार पत्र में दिया गया था : “कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन महान बांगला कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित एक गीत के साथ शुरू हुआ। फिर सम्राट के प्रति विश्वसनीयता व्यक्त करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया। फिर बच्चों की एक मंडली ने सम्राट जार्ज पंचम के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए एक गीत गाया।“
सम्राट की प्रशस्ति में यह गीत हिन्दी में था व उसके रचयिता थे रामभुज चौधरी।
बहरहाल, रवीन्द्रनाथ पर आरोप लगाने वालों में एक युवक पुलिनबिहारी सेन भी थे, जिन्होंने बाद में रवीन्द्र साहित्य के सम्पादन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1937 में रवीन्द्रनाथ को एक पत्र लिखकर उन्होंने जानना चाहा कि क्या इस गीत का जार्ज पंचम से कोई सम्बन्ध था। पत्र का जवाब देते हुए रवीन्द्रनाथ ने लिखा था : “उस वर्ष भारतसम्राट के आगमन का आयोजन चल रहा था। सरकार में प्रतिष्ठावान मेरे एक मित्र ने सम्राट के जयगान के लिये विशेष रूप से अनुरोध किया था। विस्मित होने के साथ ही मेरे मन में क्रोध भी उत्पन्न हुआ। उसी की प्रबल प्रतिक्रिया में मैंने जनगणमन गीत में उस भारतभाग्यविधाता के जय की घोषणा की, पतन-अभ्युदय-बंधुर-पन्था में युग-युग से धावित यात्रियों के जो चिरसारथी हैं, जो जनता के अन्तर्यामी पथपरिचायक हैं। मेरे राजभक्त मित्र भी समझ गये थे कि युग-युगान्तर के वह मानवभाग्यरथचालक किसी भी हालत में पांचवें या छठे जार्ज नहीं हो सकते।“
कुछ आलोचकों के अनुसार यह मित्र थे बैरिस्टर आशुतोष चौधरी, जबकि 9 खंडों में रवीन्द्रनाथ के जीवनीकार प्रशांत पाल का कहना था कि वह पाथुरियाघाटा के ठाकुर पट्टीदार परिवार के सर व महाराजा उपाधि प्राप्त प्रद्योत कुमार ठाकुर थे।
जनगणमन राष्ट्रगान कैसे बना?
आंध्र प्रदेश के मदनपल्ले में बेशांत थेओसोफ़िकल कॉलेज के अध्यक्ष व विवादास्पद आयरिश कवि जेम्स एच कज़िन्स रवीन्द्रनाथ के मित्र थे। 1918-19 में उन्होंने रवीन्द्रनाथ को आमंत्रित किया। उनके अनुरोध पर 28 फ़रवरी को उन्होंने छात्रों की एक सभा में यह गीत गाकर सुनाया। कज़िन्स व उनकी पत्नी मार्गारेट गीत सुनकर अत्यन्त मुग्ध हुए। इसके चंद दिनों के बाद रवीन्द्रनाथ ने अंग्रेजी में इस गीत का अनुवाद किया। पाश्चात्य संगीत में पारंगत मार्गारेट ने इसकी स्वरलिपि की रचना की। आज भी यह गीत उसी स्वरलिपि में गाया जाता है। जैसा कि शुरू में बताया गया है, मूल बांगला में इस गीत की पांडुलिपि नहीं मिलती है। लेकिन उस कॉलेज में इसके अंग्रेज़ी अनुवाद की पांडुलिपि संग्रहित है।
1930 के सितम्बर में जब रवीन्द्रनाथ सोवियत संघ की यात्रा पर थे, तो मास्को में पायोनियर्स कम्युन के अनाथ बच्चों ने उनसे एक गीत गाने का अनुरोध किया था। रवीन्द्रनाथ ने उन्हें यह गीत सुनाया था।
1937 में सुभाषचंद्र बोस ने पहली बार राष्ट्रगान के रूप में जनगणमन का प्रस्ताव रखा था। 5 जुलाई,1943 को आज़ाद हिन्द फौज के गठन की घोषणा की गई और उसी दिन पहली बार राष्ट्रगान के रूप में जनगणमन गाया गया। इसके बाद 21 अक्टूबर को सिंगापुर में अरजी हुकुमत-ए-हिन्द की स्थापना की गई। वहाँ भी राष्ट्रगान के रूप में यह गीत गाया गया। 1944 में मौडक के युद्ध में विजय के बाद आज़ाद हिन्द फौज भारत की भूमि में घुसी और इस अवसर पर आज़ाद भारत की भूमि पर पहली बार राष्ट्रगान के रूप में जनगणमन गाया गया।
1947 में स्वतंत्रता के समय राष्ट्रगान के बारे में कोई निर्णय नहीं लिया गया था। उन दिनों जन गण मन के अलावा “वंदे मातरम्“ व “सारे जहाँ से अच्छा“ राष्ट्रीय गीतों के रूप में सम्मानित थे। स्वतंत्रता के तुरन्त बाद संयुक्त राष्ट्र के एक आयोजन के लिये वहाँ पहुँचे भारतीय प्रतिनिधि दल से एक राष्ट्रीय गीत के लिये अनुरोध किया गया। प्रतिनिधि दल ने भारत सरकार से सम्पर्क करते हुए जन गण मन की सलाह दी, जिसे सरकार ने मान लिया। देश मे राष्ट्रगान के बारे में विचार विमर्श जारी रहा। विशेषज्ञों की राय में जन गण मन की गायनयोग्यता सबसे अधिक थी। इसके अलावा एक हिन्दू देवी के रूप में वंदे मातरम् में देश की निहित धारणा अनेक मुसलमानों के लिये स्वीकारणीय नहीं थी। अंततः 24 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान सभा में इसे औपचारिक रूप से राष्ट्रगान की मान्यता दी गई। साथ ही, तय किया गया कि आज़ादी के आन्दोलन में विशिष्ट भूमिका के कारण वंदे मातरम् को भी समान मर्यादा मिलेगी।
एक गीत, जिस पर साम्राज्य की प्रशस्ति का आरोप लगाया गया, दरअसल राजद्रोह का गीत था। अंततः वह राष्ट्रगान बना।
यह लेख उज्ज्वल भट्टाचार्य की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘ अमृत पथ के यात्री- रवींद्रनाथ टैगोर’ से