जब आज़ादी से पहले आज़ाद हो गए भारत के तीन इलाक़े
8 अगस्त 1942 को जब महात्मा गांधी ने ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ की गर्जना करते हुए ‘करो या मरो’ का नारा दिया तो अंग्रेज़ी हुकूमत ने उसका जवाब भारी दमन से दिया। कांग्रेस की तो पूरी कार्यसमिति को गिरफ़्तार कर लिया गया, साथ ही देश में आपातकाल जैसी स्थिति बनाकर प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिए, कई जगहों पर कर्फ्यू लगा दिया तथा शांतिपूर्ण प्रदर्शनों और हड़तालों पर भी रोक लगा दिए। लेकिन जनता ने इस बार कमर कस ली थी।
करो या मरो का जादुई असर हुआ था। पहले दो दिन पूरी तरह से शांतिपूर्ण आंदोलन हुए थे लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने जब उन पर भी लाठियाँ और गोलियाँ चलाईं तो जनता ने भी पत्थर उठा लिए। दमन के बावजूद पूरे देश में शिक्षा संस्थानों के बहिष्कार, सरकारी इमारतों पर धावा बोलने। डाक और रेल संचार में बाधा पहुँचाने की कार्यवाहियाँ हुईं। गांधीजी से जब बाद में जनता की इस हिंसा पर सवाल किये गए तो उन्होंने स्पष्ट कहा- इस हिंसा के लिए ज़िम्मेदार ब्रिटिश प्रशासन है।
बलिया की राष्ट्रीय सरकार और चित्तू पांडे
उत्तर प्रदेश में आंदोलन में तेज़ी तब आई जब इलाहाबाद में 12 अगस्त को निकले छात्रों के आंदोलन पर लाठीचार्ज और गोलीबारी की गई। कई छात्र-छात्राएं घायल हुए और एक छात्र शहीद हुआ। लोगों का गुस्सा भड़क उठा और ईस्ट इंडिया रेलवे स्टेशन पर भारी तोड़-फोड़ हुई।
इसके एक दिन पहले ही बलिया में 15,000 लोगों का एक भारी जुलूस निकला था जिसका एक जत्था ज़िला अदालत की ओर जा रहा था। इसे रोकने पुलिस एक मजिस्ट्रेट को लिए पहुँची और इधर से पत्थर चले तो उधर से गोलियाँ। सौ से अधिक छात्र घायल हुए तथा एक छात्र शहीद हो गया। 14 तारीख तक आंदोलन ऐसे ही चलता रहा। छात्रों ने स्थानीय रेलवे स्टेशन को जला दिया और अदालत में भी तोड़-फोड़ की। रसड़ा सब डिवीजन में खजाने और फिर थाने पर आक्रमण किया गया और राष्ट्रीय झण्डा फहरा दिया गया।
भीड़ बैरिया थाने पहुँची तो थानेदार रामसुंदर सिंह ने झण्डा तो फहराने दिया लेकिन हथियार के लिए अगले दिन का बहाना किया। अगले दिन जब जनता पहुँची तो उस गद्दार ने धोखा दिया और गोलीबारी में 19 लोग शहीद हो गये, लेकिन जनता डटी रही और अंत में उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा।
ऐसा ही धोखा नायाब तहसीलदार रसड़ा, आत्माराम ने भी किया था जिसमें तीन लोग मारे गए और कई घायल हुए, लेकिन जनता के जोश के आगे वह भी नहीं टिक सका। भीड़ जब बलिया पहुँची तो ज़िला मजिस्ट्रेट ने घबराकर कांग्रेस के स्थानीय नेता चित्तू पांडे के साथ सभी राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया। 19 अगस्त को फिर गोलीबारी हुई लेकिन अब ज़िले में अंग्रेज़ी प्रशासन पूरी तरह पंगु हो चुका था और जनता ने चित्तू पांडे के नेतृत्व में राष्ट्रीय सरकार की घोषणा कर दी। अगले दो हफ़्ते बाग़ी बलिया आज़ाद रहा।
भीड़ बैरिया थाने पहुँची तो थानेदार रामसुंदर सिंह ने झण्डा तो फहराने दिया लेकिन हथियार के लिए अगले दिन का बहाना किया। अगले दिन जब जनता पहुँची तो उस गद्दार ने धोखा दिया और गोलीबारी में 19 लोग शहीद हो गये, लेकिन जनता डटी रही और अंत में उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा। ऐसा ही धोखा नायाब तहसीलदार रसड़ा, आत्माराम ने भी किया था जिसमें तीन लोग मारे गए और कई घायल हुए, लेकिन जनता के जोश के आगे वह भी नहीं टिक सका।
भीड़ जब बलिया पहुँची तो ज़िला मजिस्ट्रेट ने घबराकर कांग्रेस के स्थानीय नेता चित्तू पांडे के साथ सभी राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया। 19 अगस्त को फिर गोलीबारी हुई लेकिन अब ज़िले में अंग्रेज़ी प्रशासन पूरी तरह पंगु हो चुका था और जनता ने चित्तू पांडे के नेतृत्व में राष्ट्रीय सरकार की घोषणा कर दी। अगले दो हफ़्ते बाग़ी बलिया आज़ाद रहा।
तमलुक की जातीय सरकार: मातंगिनी हाज़रा का अविस्मरणीय बलिदान
9 अगस्त से ही यहाँ आंदोलन शुरू हो गया। सामूहिक प्रदर्शन, शैक्षणिक संस्थाओं में हड़ताल और बहिष्कार, डाकघरों तथा थानों पर नियंत्रण की कोशिश की गई। लेकिन मामले ने तेज़ी पकड़ी जब जनता ने अंग्रेज़ी प्रशासन को चावल बाहर ले जाने से रोका।
8 सितंबर को जनता पर गोली चलाई गई लेकिन तुरंत प्रतिरोध की जगह अगले बीस दिन तैयारी की गई और 28 सितंबर की रात सड़कों पर पेड़ काटकर उन्हें रोक दिया गया, तीस पुलियों को तोड़ दिया गया, टेलीग्राफ के तार काट दिए गए और 194 खंभे उखाड़ दिए गए। तमलुक तब रेल से नहीं जुड़ा था तो देश से सारा संपर्क टूट गया। अगले दिन क़रीब 20000 लोगों की भीड़ ने इलाक़े के तीन थानों पर हमला बोल दिया।
एक नौजवान रामचन्द्र बेरा शहीद हुआ, अदालत की ओर जा रहे जुलूस का नेतृत्व कर रहीं 62 वर्ष की मातंगिनी हाज़रा दोनों हाथों और माथे पर गोली लगने के बाद भी कांग्रेस का झण्डा नहीं छोड़ा। इस दिन 44 लोग शहीद हुए तथा अनेक घायल लेकिन आन्दोलनकारी तमलुक और कोनताई में ताम्रलिप्ता जातीय सरकार का गठन करने में सफल हुई जो अंग्रेज़ों की इंतहाई बर्बर कोशिशों के बावजूद अगस्त 1945 में गांधीजी द्वारा कांग्रेस कार्यकर्ताओं से भूमिगत आंदोलन समाप्त करके खुल के आने की अपील तक चली।
सतारा की राष्ट्रीय सरकार भारत छोड़ो आंदोलन का महाराष्ट्र में गहरा असर हुआ था लेकिन सतारा के नाना पाटील ने तो इतिहास रच दिया था। शिवाजी के वंशजों की इस राजधानी में इस बार कमान आम जनता और किसानों ने संभाली थी। बंबई (अब मुंबई) में कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं की गिरफ़्तारी की मुखालिफ़त यहाँ तुरंत शुरू हो गई और पाँच-छह हज़ार की संख्या में लोग शांतिपूर्ण रूप से तालुका कार्यालय पहुँचे।
कचहरी की तरफ़ जा रहे जुलूस पर पुलिस ने अचानक गोली चलाई। जुलूस का नेतृत्व कर रहे परशुराम गर्ग सहित आठ लोगों की हत्या कर दी गई और 38 लोग घायल हुए। 7 सितंबर को इस्लामपुर जा रहे जुलूस पर गोली चलाकर फिर 12 लोगों को शहीद कर दिया गया। इसके बाद आंदोलन भूमिगत हो गया। यहाँ भी टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार काटे गए, खंभे उखाड़े गए और सरकारी भवनों पर आक्रमण किये गए। जल्द ही सतारा को शेष प्रदेश से काट दिया गया और राष्ट्रीय सरकार की घोषणा की तैयारी होने लगी।
अंग्रेज़ों ने आंदोलन भंग करने के लिए अपराधियों को जेलों से रिहा कर दिया लेकिन राष्ट्रीय सरकार के कार्यकर्ताओं ने उन पर नियंत्रण कर योजना विफल कर दी। 1942 के अंत तक लोगों ने ग्राम गणराज्यों की स्थापना शुरू कर दी और जनता के राज की घोषणा कर दी। नानाजी पाटिल के नेतृत्व में इस सरकार ने केवल प्रशासनिक नहीं बल्कि सामाजिक सुधार भी किये जिसमें बाल विवाह पर प्रतिबन्ध, शराबबंदी, सस्ते विवाह, प्राइमरी शिक्षा तथा वयस्क शिक्षा आदि के कार्यक्रम शामिल थे।
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में