गणेश शंकर विद्यार्थी : जिनकी मूर्ति भी वर्षों क़ैद रही
आज गणेश शंकर विद्यार्थी की जयंती है.
गणेश शंकर विद्यार्थी यानी सच के पक्ष में खड़ा निर्भीक पत्रकार. 1920 के दशक में लगातार साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने की अंग्रेज़ी नीति के चलते जब देश भर में, खासतौर पर उत्तरी भारत में भयावह दंगे भड़के तो गांधी के शिष्य विद्यार्थी जी ने इनके ख़िलाफ़ लिखा. लेकिन जब आग बगल तक पहुँच गई तो सिर्फ कलम से काम नहीं चलना था.
शहादत
1931 में कानपुर में साम्प्रदायिक उन्माद ऐसा बढ़ा कि दोनों तरफ़ से हिंसक कार्यवाहियाँ होने लगीं. कराची कांग्रेस को संबोधित करते हुए गांधी ने कहा था – ‘मैं पूरे विश्वास के साथ कह रहा हूँ कि अगर भगत सिंह की आत्मा वह सब देख रही होगी जो कानपुर में हो रहा है तो वह स्वयं को अपमानित और शर्मिंदा महसूस करेगी’। [I am quite sure that if the spirit of Bhagat Singh is watching what is happening in Cawnpore today, he would feel deeply humiliated and ashamed.][1]
दंगों को रोकने विद्यार्थी जी अकेले निकल पड़े. बर्बर दंगाइयों ने उनकी भी हत्या कर दी. उस पागलपन के दौर में भीड़ ने अपने ही मसीहा को नहीं पहचाना और अहिंसा का यह अप्रतिम पुजारी 26 मार्च 1931 को शहीद हो गया. उस हंगामे में उनकी लाश भी नहीं मिली।
सूचना मिलने पर गांधी ने कराची कांग्रेस में बोलते हुए कहा –गणेश शंकर विद्यार्थी जो पूरी तरह किसी भी सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से मुक्त थे, जो स्वयं में एक संस्थान थे और जो इस देश के सबसे अग्रणी कार्यकर्ता थे उनका शांति स्थापित करने के लिए अपनी क़ुर्बानी दे देना सौभाग्य की बात है। उनके महान उदाहरण को हम सबके लिए एक प्रेरणा बनना चाहिए। कानपुर की इस शर्मनाक घटना से हमें एक सबक मिलना चाहिए…[2]
कई दिनों बाद मिली लाश क्षत-विक्षत. 29 मार्च को जनता ने श्रद्धांजलि दी. दंगे तो रुक गए लेकिन साम्प्रदायिक एकता का यह अलमबरदार शहीद हो गया.
एक अनुकरणीय जीवन
26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद के एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपनी आरंभिक शिक्षा मध्य प्रदेश में प्राप्त की और 1913 में कानपुर आकार पत्रकारिता का निश्चय किया। ‘प्रताप’ और ‘प्रभा’ निकालने के पहले उन्होंने विक्टर ह्यूगो के दो उपन्यासों का अनुवाद भी किया था।
पत्रकारिता के साथ-साथ वह किसान-मजदूर आंदोलनों से भी जुड़े रहे और कानपुर की ‘किसान सभा’ के सदस्य रहे। सांप्रदायिक एकता उनकी चिंताओं में सर्वोपरि थी और वह लगातार हिन्दू-मुस्लिम एकता की दिशा में सक्रिय रहे। कांग्रेस से उनका सक्रिय जुड़ाव रहा और 1925-29 के बीच वह संयुक्त प्रांत की विधानसभा के सदस्य रहे। वह प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए और असहयोग आंदोलन के समय इसका नेतृत्व करने के लिए उत्तर प्रदेश (तब संयुक्त प्रांत) के पहले ‘डिक्टेटर’ भी बनाए गए।
प्रताप : पत्रकारिता और राष्ट्रभक्ति का महाविद्यालय
‘प्रताप’ के महत्त्व का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि अपने कानपुर प्रवास के दौरान भगत सिंह ‘प्रताप’ में बलवंत सिंह के नाम से लेख लिखा करते थे। विद्यार्थी जी ने काकोरी कांड के बाद फ़रारी में चल रहे अशफ़ाक़ उल्ला खान की भी मदद की थी और रामप्रसाद बिस्मिल की जीवनी प्रकाशित की थी। वह भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त आदि क्रांतिकारियों की जेल में भूख हड़ताल के दौरान उनसे मिलने भी गए थे।
बीस साल की अपनी पत्रकारिता और राजनैतिक ज़िंदगी में पाँच बार उन्हें जेल जाना पड़ा, कभी ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लिखने के लिए तो कभी राजनैतिक कार्यवाहियों के लिए।
हिन्दू महासभा, आर एस एस और मुस्लिम लीग जैसे सांप्रदायिक संगठनों के खिलाफ़ लगातार लिखते और ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ़ तनकर खड़े रहे विद्यार्थी जी आज की सत्ता परस्त और सांप्रदायिक मीडिया के सामने एक चुनौती की तरह खड़े हैं।
एक शर्मनाक पोस्टस्क्रिप्ट
उनकी शिक्षा मध्य प्रदेश के मुंगावली से हुई थी। जिस प्राथमिक विद्यालय में वह पढे थे उसका वह उपस्थिति रजिस्टर आज भी संभाल कर रखा हुआ है जिसमें उनका नाम दर्ज था। वहाँ उनके नाम से शासकीय गणेश शंकर विद्यार्थी कॉलेज भी ।
उनके नाम से काफ़ी पहले वहाँ उनकी मूर्ति एक प्रमुख चौराहे पर लगाने की बात हुई। मूर्ति बन गई। लेकिन विवादों के चलते वर्षों मालखाने मे पड़ी रही। तब वहाँ और आसपास के इलाक़ों में लेखकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों ने उसे स्थापित करने के लिए लगातार प्रयास किया। अंततः मूर्ति स्थापित तो हुई लेकिन प्रशासन का रवैया अब भी इसे लेकर बहुत अच्छा नहीं है।
[1] Collected Works of Mahatma Gandhi, Page 307, Vol.51
[2] Collected Works of Mahatma Gandhi, Page 310, Vol.51
मुख्य संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री