सावित्रीबाई फुले : जन्मदिन विशेष
सावित्रीबाई का जन्म 1831 में हुआ और 9 वर्ष की उम्र में ही 1840 में 13 वर्षीय जोतिबा फुले से विवाह हो गया। यह विवाह इसलिए अनोखा था कि सावित्री को स्वामी नहीं साथी, एक शिक्षक मिला। जोतिबा- सावित्री समाज का तमाम विरोध सहकर भी अंधविश्वास, अशिक्षा, अन्यायपूर्ण वर्ण-व्यवस्था के ख़िलाफ काम करते रहे।
1 जनवरी 1848 को पुणे के बुधवार पेठ में लड़कियों का पहला स्कूल खोला गया और सावित्रीबाई उसकी पहली शिक्षिका बनीं।
शिक्षा ही दिला सकती है मुक्ति
शिक्षा और वह भी अंग्रेज़ी शिक्षा शूद्रों को जहालत और शोषण से मुक्ति दिला सकती है इसमें सावित्रीबाई का यकीन पक्का हो चला जो कि उनकी कई कविताओं से ज़ाहिर होता है। स्त्री-शिक्षा की वे ज़बरदस्त पैरोकार बनीं। इस युगल ने अपने आस-पास न जाने कितने जीवनों को प्रभावित किया होगा।
फ़ातिमा शेख और सगुणा भी जोतिबा की ही शिष्या थीं और सत्यशोधक समाज को चलाने में, शिक्षा की अलख जगाए रखने में उनके योगदान की चर्चा स्वयम सावित्रीबाई जोतिबा को लिखे अपने पत्रों में करती है।[1] तमाम तनाव झेलकर भी इस क्रांति-युगल का साहस नहीं चुका। कैसा अदम्य था वह सावित्रीबाई के जोतिबा को लिखे इस पत्र के अंतिम अंश में देख सकते हैं-
उपरोक्त विषय में पढ़कर आप समझ गए होंगे कि जिस तरह से पूना में हमारे विरोध में दुष्प्रचार करने वाले, जहर फैलाने वाले, निंदक, लोगों को भड़का कर झगड़ा करवाने वाले भारी संख्या में सक्रिय हैं ठीक उसी तरह यहाँ सतारा में भी इसी तरह के लोग हमारे विरुद्ध सक्रिय हैं। लेकिन उन दुष्ट लोगों से भयभीत होकर हम अपने लक्ष्य से नहीं डिगेंगे।
अपने हाथ में लिया शिक्षा का कार्य, महार-मांग, स्त्रियों को पढ़ाने का काम हम हरगिज़ नहीं छोड़ेंगे। हमारे जीवन का एक-एक क्षण, एक-एक पल लोगों को शिक्षित करने और हर समय उनकी भलाई करने और उन्हें स्वाभिमानी बनाने में देना होगा। हमें विश्वास है हम सफल ज़रूर होंगे। भविष्य में किए कार्यों का समय मूल्यांकन ज़रूर करेगा, इससे अधिक और क्या लिखूँ…।[2]
1848 वही साल था जब स्त्री मताधिकार के लिए सेनेका फॉल्स कंवेंशन हुआ था और जहाँ स्त्री मताधिकार के लिए एक प्रपत्र पर स्त्रियों और पुरुषों ने हस्ताक्षर किए थे। यह दौर अमरीका में दास-प्रथा-विरोधी आंदोलनों का था और स्त्री-अधिकारों की जागृति का था। सावित्रीबाई ने स्त्रियों को संगठित करने का भी प्रयास किया और के ‘महिला-मंडल’ का गठन किया।
प्रौढ़ शिक्षा की शुरुआत
शेख़ ने फुले दम्पत्ति के साथ मिलकर 1909 में प्रौढ़ शिक्षा की शुरुआत की। इन्हीं उस्मान शेख़ की बहन फातिमा शेख़ सावित्रीबाई की विद्यार्थी भी थीं और सहयोगी भी बनी। फातिमाबाई के हवाले आश्रम का सारा काम छोड़कर सावित्रीबाई निश्चिंत होकर कहीं जा सकती थीं।
सावित्रीबाई के बनाए स्कूल की ही एक छात्रा थी मुक्ताबाई। ग्यारह साल की इस बच्ची ने एक निबंध लिखा था-‘मांग महारचा दुखविषयी’ जो 1885 में प्रकाशित हुआ। स्कूल में मिली शिक्षा ने इस छात्रा की समझ को विस्तार दिया, नई रौशनी दी और इस लायक बनाया कि वह अपनी और अपने समाज की स्थितियों की आलोचना कर सके।
वह कहती है लड़की जिसे जानवरों से भी कमतर समझा जाता है, इस लायक हो गई है कि अपने लोगों की पीड़ा को समझ सकती है। मुक्ताबाई की बौद्धिक क्षमता का अंदाज़ा इस निबंध की इस पंक्ति से लगाया जा सकता है कि- अगर वेदों का सम्बन्ध ब्राह्मणों से है तब यह एक खुला रहस्य है कि हमारे हाथों में किताबें क्यों नहीं है![3]
सावित्रीबाई ने कविताएँ भी लिखी और नैतिकता, नशाखोरी सम्बन्धी कुछ भाषण भी दिए। शूद्रों के ऐतिहासिक दमन के प्रति वे जानकार और सजग थीं। अंग्रेज़ी पढ़कर 1855 में उन्होंने टॉमसन क्लार्कसन की जीवनी को पढ़ा। इस जीवनी में उनके संघर्षों की दास्तान थी। बताया गया कि कैसे काले लोगों पर होने वाले ज़ुल्मों की क्लार्क्सन ने विरोध किया था।
यह महत्वपूर्ण था कि दमित स्वदेशी जातियों को विश्व के अन्य दमित समूहों के आंदोलनों की जानकारी हासिल हो।
70 के दशक में जब स्त्री-संगठन फिर से भारत में बनने शुरु हुए तो जाति और जेंडर के आधार पर महाराष्ट्र में समता सैनिक दल की स्थापना हुई। इस दल ने अपने घोषणापत्र के अंत में डॉ.अम्बेडकर को याद किया और लिखा- और हम कामना करते हैं कि अमरीकी स्त्री आंदोलन की हर कार्यकर्ता को सफलता मिले और एंजेला डेविस और स्त्री-अधिकार-सेना की हमारी बहनों को…।
विधवा उत्पीड़न का विरोध
विधवाओं को बाल काट कर कुरूप बनाने का रिवाज़ स्त्रियों के लिए बेहद कष्टकारी था। पंडिता रमाबाई ने भी अपने जीवन में लगातार इसके ख़िलाफ़ बोला, लिखा, विरोध किया कि क्यों स्त्रियों को विधवा होने पर ऐसे विकृत किया जाता है!
सावित्रीबाई ने नाइयों से अनुरोध करना शुरु किया कि वे विधवाओं के बाल न काटें। पुणे जो उस वक़्त ब्राहमणवाद का गढ़ था वहाँ ऐसे क्रांतिकारी कामों को अंजाम देना ख़तरे से ख़ाली नहीं था। सावित्रीबाई और ज्योतिबा ने इसके लिए पर्याप्त प्रताड़ना और अपमान सहा।
24 सितम्बर 1873 को उन्होंने एक और महत्वपूर्ण शुरुआत की ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना से। सत्यशोधक समाज का उद्देश्य ही था दलितों को ब्राह्मणवादी शोषण, पुरोहितों के ज़ुल्मों से निजात दिलाना और उनमें एकजुटता और चेतना जाग्रत करना। ज्योतिबा की मृत्यु के बाद सावित्री इसकी अध्यक्षा बनीं। अछूत बस्तियों में प्लेग पीड़ित लोगों की सेवा करते करते उनकी मृत्यु हुई।
बुधवार पेठ में जोतिबा-सावित्री द्वारा खोला गया पहले स्कूल का भवन अभी बाज़ार के बीच बेहद जर्जर अवस्था में है जिसे हाल ही में संरक्षित किए जाने की घोषणा की गई है। यह विद्यालय हमारी ऐतिहासिक धरोहर है। इतिहास के ये पन्ने भविष्य की राह दिखाने वाले हैं।
[1] देखें, पेज- 103, सावित्रीबाई फुले रचना समग्र, सं. रजनी तिलक, अनु. शेखर पवार, दि मार्जिनल पब्लिकेशन, 2017
[2]देखें, वही, पेज- 106
[3] पूरा निबंध पढने के लिए देखें, पेज- 71-75, अ फोरगॉटन लिबरेटर, द लाइफ़ एंड स्ट्रगल ऑफ सावित्रीबाई फुले, सं: ब्रज मोहन मणि, पामेला सरदार, माउंटेन पीक ,नई दिल्ली
संदर्भ पुस्तकें:
-
- अ फोरगॉटन लिबरेटर, द लाइफ़ एंड स्ट्रगल ऑफ सावित्रीबाई फुले, सं: ब्रज मोहन मणि, पामेला सरदार, माउंटेन पीक, नई दिल्ली
- मैपिंग दलित फेमिनिस्म, अनंदिता पैन, सेज, 2021
- महात्मा जोतिबा फुले रचनावली, स: एल जी मेश्राम, राजकमल प्रकाशन , 2019
- सावित्रीबाई फुले रचना समग्र, सं. रजनी तिलक, अनु. शेखर पवार, दि मार्जिनल पब्लिकेशन, 2017
सुजाता दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं। कवि, उपन्यासकार और आलोचक। ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान। हाल ही में लिखी पंडिता रमाबाई की जीवनी, ‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’ खूब चर्चा में है।