
अंडमान के भूले हुए वीर : #जिन्होंनेमाफ़ीनहींमांगी
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[1857 के बाद जब विद्रोहियों से हिन्दुस्तानी जेलें भर गईं तो पहली बार क्रांतिकारियों को अंडमान भेजा गया। तब सेल्यूलर जेल नहीं बनी थी और इन्हें पोर्ट ब्लेयर में बैरकों में रखा जाता था।
इन्हीं में से कुछ ऐसे वीरों की कहानी #जिन्होंनेमाफ़ीनहींमांगी]
सिपाही दूधनाथ तिवारी
बंगाल नेटिव इन्फैन्ट्री के सिपाही दूधनाथ तिवारी को 1857 के विद्रोह में हिस्सा लेने के लिए 27 सितंबर, 1857 को आजीवन कारावास की सज़ा मिली। वह 6 अप्रैल 1858 को अंडमान पहुँचे।[1]
23 अप्रैल को नब्बे अन्य क़ैदियों के साथ वह जेल से भागने में सफल रहे। इनमें से कई को स्थानीय आदिवासियों ने मार दिया और कुछ भूख से मर गए। लेकिन दूधनाथ तिवारी घायल अवस्था में आदिवासियों के हाथ पड़े।
उन्होंने उन आदिवासियों से दोस्ती बना ली और एक साल उनके साथ ही रहे। उन्होंने दो आदिवासी महिलाओं से शादी भी कर ली और उनकी भाषा सीखकर उन्हें अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आंदोलित भी कर दिया।
17 मई 1859 को उन्होंने बाक़ायदा घोषणा करके अंग्रेज़ों से युद्ध किया जिसे ‘बारदीन के युद्ध’ के नाम से जाना जाता है।
फलस्वरूप दूधनाथ तिवारी को 5 अक्टूबर 1860 को सज़ा से मुक्त घोषित किया गया। [2]
नारायण सिंह, निरंजन सिंह, भीमा नायक, मजनू शाह, अल्लामा फ़ज़लुल हक़ और लिआक़त अली
31 जुलाई 1857 को अंडमान भेजे गए पहले स्वाधीनता सेनानी दानापुर निवासी नारायण जेल पहुँचने के चौथे दिन भागने की कोशिश करते हुए पकड़े गए और अंडमान में फाँसी पर चढ़ने वाले पहले शहीद बने।
निरंजन सिंह जब पकड़े गए तो चौथे दिन खुद फाँसी लगा ली।
ग़ालिब के दोस्त अल्लामा फ़ज़लुल हक़ और लिआक़त अली जैसे लोग जब 1857 के विद्रोह के दौरान गिरफ़्तार होकर अंडमान गए तो उनकी लाश भी लौटकर नहीं या पाई।
भील योद्धा भीमा नायक हों या फिर मजनू शाह, जिस 1857 पर किताब लिखी है सावरकर ने, उसके इन वीरों से सारे कष्ट सहे लेकिन न माफ़ी माँगी न झुके।[3]
यह सिलसिला थमा नहीं।
चाहे लॉर्ड मेयो की हत्या करने वाले शेर अली हों या फिर कूका विद्रोह के नामधारी सिख या सावरकर के नायक बासुदेव बलवंत फड़के, सबने किसी माफ़ीनामे की जगह मौत चुनी थी।
[1] सेल्यूलर जेल 1890 में बनना शुरू हुई और 1906 में तैयार हुई, लेकिन ‘काला पानी’ की सज़ा 1857 के विद्रोह के बाद से ही शुरू हो गई थी। जेल बनने के पहले वहाँ पोर्ट ब्लेयर, रॉस आइलैंड और वाइपर आइलैंड के बैरकों में क़ैदियों को रखा जाता था।
[2] पेज 39, द हीरोज ऑफ द सेल्यूलर जेल, एस एन अग्रवाल, रूपा –दिल्ली 2018 (तीसरा संस्करण)
[3] पेज 39-41, वही
[4] पेज 447-50, सावरकर : ईकोज़ फ्रॉम अ डिस्टेंट पास्ट, विक्रम संपत, पेंगुइन-2019
[5] पेज 58, वही

संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री