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जब संन्यासियों और फ़क़ीरों ने मिलकर लोहा लिया अंग्रेज़ों से

1857 के विद्रोह के पहले, भारत में संन्यासियों और फ़क़ीरों ने  ब्रिटिश शासन के स्थापना के विरोध में लंबा संघर्ष किया।  शांतीमोय रे ने अपनी किताब ‘Freedom Movement and Indian Muslims‘ में इस पर विस्तार से लिखा है।

प्रस्तुत है उसी से एक अंश – सं

 

शुरुआत में मजनू शाह और भवानी पाठक ने नेतृत्व किया

1764 में बक्सर के युद्ध के बाद बंगाल, बिहार और उड़ीसा में ब्रिटिश शासन की स्थापना ने भारत की निर्मम लूट-खसोट का रास्ता खोल दिया। यह आधुनिक समय के इतिहास में अभूतपूर्व घटना थी।

इतिहास में यह जानकारी आम है कि कैसे किसानों की व्यापक बहुसंख्या और पुराने ज़मींदारों में से कुछ को अपने जीवन रक्षा के लिए संघर्ष करने को जंगलों में खदेड़ दिया गया। इस क्रूर आक्रमणकारी के खिलाफ़ विद्रोह का झंडा 1763 में फ़क़ीरों  ने एक दल के नेता मजनू शाह और सन्यासियों के एक दल के नेता भवानी पाठक द्वारा फहराया गया। यह 1800 तक चला।[i]

फकीर और संन्यासी मुख्यत: धार्मिक संप्रदायों से, जैसे मुसलमानों में मदारिया और हिंदुओं में साईबा पंथ से ताल्लुक रखते थे। वे हिंदुस्तान के यायावर भी कहे जाते थे।  वे पूरे इलाके में उचित तरीके से संगठित नहीं थे।[ii]

वे उत्पीड़ित किसानों को उनकी आजादी, संस्कृत्ति और धर्म के लिए संगर्ष के आदर्श मजनू शाह और उनके सेनापत्ति चेराघली और भवानी पाठक, देवी चौधरानी, कृपानाथ, नुरुल मोहम्मद, पीतांबर आदि के सामूहिक नेतृत्व में सफलतापूर्वक पूरे बिहार और बंगाल में प्रेरित कर सके।[iii]

 

असंतुष्ट किसानों और शिल्पकारों को संगठित कर हुआ विद्रोह

खासतौर से मजनू शाह की भूमिका महत्वपूर्ण थी। यह एक असाधारण योग्यता वाले संगठनकर्ता थे, एक महान सेना नायक जो अपने से श्रेष्ठ ब्रिटिश फौजों से बेहद मुश्किल हालात में लड़े। उन्होंने मेंकेजी के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सेनाओं को कई बार पराजित किया।

एक अन्य युद्ध में कमांडर कीथ पराजित हुआ और  1769 में मारा गया था।[iv]

फरवरी 1771 में मजनू शाह ने लेफ्टिनेट टेलर की सेना को झांसा देकर महास्थानकगढ़ के जंगलों में अपने किले में स्वयं को सुरक्षित कर लिया।वहाँ से वह ब्रिटिश राज के खिलाफ असंतुष्ट किसानों और शिल्पकारों को संगठित करने  के लिए चुपचाप बिहार निकल गए। यहाँ तक कि उन्होंने नातौर की रानी भवानी को मिल-जुल कर फिरंगियों को देश के बाहर करने के लिए आग्रहपूर्ण अपील भी की। लेकिन कोई असर नहीं हुआ।

14 नवंबर 1776 को मजनू शाह ने अंग्रेज सेना को एक करारी शिकस्त दी। इस युद्ध में सैकड़ों अंग्रेज मारे गए और लेफ्टिनेंट राबर्टसन बुरी तरह से घायल हुआ।[v]  लेकिन संन्यासियों और फ़क़ीरों की आपसी अनबन ने मजनू शाह के सामने एक गंभीर संकट खड़ा कर दिया। इसके बावजूद उन्होंने इन मतभेदों को सुलझाने की भरपूर कोशिश की और अपनी सेना को पुनर्गठित करने के लिए उसने पूर्णिया से लेकर जमालपुर तक पूरे उत्तरी बंगाल के चक्कर लगाया।[vi]

 

29 दिसंबर 1786 को मजनू शाह बागुरा जिले के मुंगरा गाँव में अचानक लेफ्टिनेंट ब्रेनन की सेना को झटका देने के लिए प्रकट हुए। मजनू शाह घायल हुए लेकिन हाथों में खुली तलवार लिए वह अपने घोड़े को आगे बढ़ाते रहे और किसी तरह से बच निकले। लेकिन इस बार वह एक अनजान गाँव मक्खनपुर में इस घाव से हार गए।  इस तरह 18वीं सदी के संन्यासी और फकीर आंदोलन के सबसे बड़े नायक का अंत हुआ।[vii] उनकी मृत्यु के बाद आजादी के संघर्ष उनके भाई और शिष्य मूसा साह ने आगे बढ़ाया।

देवी चौधरानी ने भी किया ने नेतृत्व

बाद में भवानी पाठक और देवी चौधरानी ने 1787 के शानदार प्रयासों को मजनू शाह के अन्य शिष्यों फेरागुल शाह और चेरगाली शाह की सहायता मिली। मेमनसिंह और रंगपुर के पास कई लड़ाईयों की श्रृखंला में उन्होंने कंपनी सेना को भारी क्षति पहुंचाई। रमजानी शाह और जहूरी शाह के नेतृत्व में एक दूसरी टुकड़ी ब्रिटिश सेना का सामना करने असम गई। लेकिन यहाँ फिर से एक बार अंदरूनी कलह के कारण उनकी हार हुई।[viii]

अंतिम दौर में शोभन अली, अमुदी शाह और मोतीउल्ला ने अपनी सेना के पुनर्गठन का अंतिम प्रयास किया। लेकिन वे हार गए और शोभन अली 1797 में वहाँ से पलायित हो गए।[ix]

 

1799 में शोभन अली ने नेगु शाह, बुद्ध शाह और इमाम शाह की सहायता से भूखे और शोषित किसानों को संगठित करने और अपना आधार विस्तृत करने के सामूहिक प्रयास किए।[x] 1799-1800  के बीच उन्होंने बौगुरा के घने  जंगलों के बीच अपना आधार स्थापित किया। लेकिन जल्दी ही वे आधुनिक हथियारों से सुसज्जित ब्रिटिश सेना द्वारा घेर लिए गए और फिरंगियों के खिलाफ पहले विद्रोह का अंत हो गया।[xi]

अपनी सफलता के बावजूद फ़क़ीरों  और संन्यासियों का विद्रोह उन्नसवीं और बीसवी सदी के भावी स्वतंत्रता संग्रामों, ख़ासतौर से वहाबी और अग्नि युग के क्रांतिकारियों पर जिन्हें  आतंकवादी कहा जाता है, अमिट प्रभाव डाल गया।

 

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संदर्भ स्त्रोत

स्रोत : Freedom Movement and Indian Muslims by Shantimoy Ray, NBT-Delhi

[i] देखे, मेमोरी आंफ वारेल हेस्टंग्स, ग्लेन

[ii] देखे, मोहम्मद हुसैनफौरी, देबीस्थान; जी.एच/खान, सियर उल मुतखॆरिम

[iii] देखे, ग्लेम, वही

[iv] देखें, रेनेल का जर्नल, फरवरी, 1766

[v] देखें, बोगरा के कलेक्टर को रावर्टसन का खत, 14 नवंबर, 1776

[vi] देखे, बोर्ड आंफ रेवेन्यू, कैनल 14 मार्च, 1780

[vii] देखे, जैमिनी घोष, संन्यासी एंड फकीर रेदर्स, पृष्ठ, 208

[viii] देखे, रंगपुर जिले के बारे में ग्लेजियर की रिपोर्ट, पृष्ठ 41

[ix] देखें, 32 अक्टूबर, 1799 को न्यायालय को लिखा गया जूडिशियल जनरल का पत्र

[x] देखें, गवर्नर जनरल को दीनापुर के मजिस्ट्रेट का 20 फरवरी, 1800 को लिखा पत्र

[xi] देखें, लेस्टर हचिंसन, द एंपायर आंफ द नवाबस, पृष्ठ 92

 

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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