अंग्रेज़ों के खिलाफ़ हथियार उठाने वालीं ‘कल्पना दत्त’ : जन्मदिन विशेष
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों में हर वर्ग और समुदाय ने अपना योगदान दिया। देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में सबने अपनी-अपनी उस विचारधारा का चयन किया जिसका उनपर सबसे अधिक प्रभाव था। किसी ने महात्मा गाँधी के अहिंसा के मार्ग को, तो किसी ने सुभाष चंद्र बोस के रास्ते को सही माना। किसी ने आज़ादी की लड़ाई से पहले सामाजिक दास्ता से मुक्ति के रास्ते को अधिक प्राथमिकता दी।
ग़ुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए कुछ लोगों ने क्रांतिकारी रास्ते पर चलना ज़्यादा ज़रूरी समझा। इस क्रांतिकारी रास्ते पर जहां पुरुष क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों से लोहा लिया, वहीं महिलाएं भी इसमें अपनी सक्रिय भागीदारी निभा रही थीं।
इन महिला क्रांतिकारियों में एक नाम कल्पना दत्त का भी है, जिन्होंने अंग्रेज़ों से निडरता और साहस के साथ संघर्ष किया। उन्हें “वीर महिला” के खिताब से भी नवाज़ा गया।
14 वर्ष की आयु में चंटगांव के एक विद्यार्थी सम्मेलन में बहुत प्रभावशाली भाषण दिया। अपनी भाषण कला एवं श्रोताओं पर पड़े प्रभाव को देखकर उनका आत्मविश्वास ही नहीं जागा बल्कि उनके अंदर छिपी शक्ति का दूसरे लोगों को भी एहसास हो गया। यह सब उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि से संलग्न विषय था।
कौन थी कल्पना दत्त?
गुलाम भारत के दौर में जब बांग्लादेश भारत का हिस्सा हुआ करता था, तब चटगाँव के श्रीपुर गाँव में एक मध्यवर्गीय परिवार विनोद बिहारी दत्त के घर में 27 जुलाई 1913 को कल्पना दत्त का जन्म हुआ।
असहयोग आंदोलन के समय उनके दो चाचा उसमें भाग ले रहे थे। एक चाचा ने कल्पना की रुचि देखकर उन्हें क्रांति संबंधी कुछ ऐसे साहित्य लाकर दिए, जिससे उनका संकल्प और मज़बूत होता गया। इन्हीं क्रांतिकारी विचारों को पढ़कर कल्पना दत्त के विचार दृढ़ हुए और कुछ कर दिखाने की भावना ज़ोर पकड़ने लगी।
विद्यार्थी सम्मेलन में अपने भाषण में कल्पना दत्त ने कहा- अगर दुनिया में हमें गर्व से सिर उठाकर जीना है तो अपने माथे पर लगे ग़ुलामी के इस कलंक हो मिटाना होगा।
मशहूर क्रांतिकारियों की जीवनियाँ पढ़कर उनको अपना आदर्श मानने वाली कल्पना साइंस की पढ़ाई करने कलकत्ता के बैथ्यून कॉलेज पहुँचीं।
1930 में नेहरू जी की गिरफ्तारी के विरोध में बैथून कॉलेज में हड़ताल हुई जिसका नेतृत्व कल्पना दत्त ने किया। हड़ताल सफल रही। यह सब देखकर कॉलेज प्रशासन दंग रह गया और कल्पना दत्त की निगरानी करने लग गया।
वह वहाँ छात्र संघ से जुड़कर क्रांतिकारी गतिविधियों में शिरक़त करने लगीं। इस दौरान उनकी मुलाक़ात बीना दास और प्रीतिलता वड्डेदार जैसी क्रांतिकारी महिलाओं से हुई।
इन्हीं क्रांतिकारी गतिविधियों के दौरान कल्पना की, मुलाकात “मास्टर दा” स्वतंत्रता सेनानी सूर्य सेन से हुई जिसके बाद वह उनके संगठन “इंडियन रिपब्लिकन आर्मी” में शामिल हुईं और अंग्रेज़ों के खिलाफ मुहिम का हिस्सा बन गईं।
क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रियता
इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के सदस्यों ने जब “चटगाँव शस्त्रागार लूट” को अंजाम दिया, तब कल्पना पर अंग्रज़ों की निगरानी बढ़ गई। उनको अपनी पढ़ाई छोड़कर वापस गाँव आना पड़ा लेकिन उन्होंने संगठन नहीं छोड़ा। इस दौरान संगठन के कई लोग गिरफ़्तार हुए। कल्पना ने संगठन के लोगों को आज़ाद कराने के लिए जेल के अदालत को उड़ाने की योजना बनाई।
सिंतबर 1931 को चटगाँव के यूरोपियन क्लब पर हमले का फैसला किया। योजना को अंजाम देने के लिए कल्पना ने अपना हुलिया बदल रखा था। पुलिस को इस योजना के बारे में पता चल गया और कल्पना गिरफ़्तार कर ली गई। अभियोग सिद्ध नहीं होने के कारण कल्पना को रिहा कर दिया गया मगर पुलिस की दबिश उनपर बढ़ गई।
कल्पना पुलिस को चकमा देकर भागने में सफल रहीं और सूर्य सेन के साथ मिलकर दो साल तक भूमिगत होकर आंदोलन चलाती रहीं। बाद में सूर्य सेन को गिरफ्तार कर लिया गया और उनके साथियों के साथ उनको फाँसी की सज़ा सुनाई गई और कल्पना को उम्रक़ैद की सज़ा हुई।
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आज़ादी मिली और सक्रिय राजनीति में भाग लिया
मात्र उन्नीस वर्षीय कल्पना हताश नहीं हुई। जेल में उनका संघर्ष जारी रहा। कल्पना दत्त मिदनापुर जेल में गांधीजी से भी मिली।
अपनी किताब चटगांव शस्त्रागार आक्रमण के संस्मरण में वह लिखती हैं, जेल में गांधीजी मुझसे मिलने आए। वे मेरी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण नाराज़ थे। पर उन्होंने कहा मैं फिर भी तुम्हारी रिहाई के प्रयत्न्न करुंगा।
आज़ादी मिलने से पहले महात्मा गाँधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने क्रांतिकारियों को छुड़ाने की मुहिम चलाई, जिसमें अंग्रेज़ों को बंगाल के कुछ क्रांतिकरियों को भी छोड़ना पड़ा। उन्हीं क्रांतिकारियों में कल्पना भी शामिल थीं। जेल से रिहा होकर कल्पना का झुकाव भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ हुआ।
उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी की। 1943 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पूरन चंद जोशी के साथ विवाह किया। यह वह दौर था जब बंगाल अकाल और विभाजन का दर्द झेल रहा था। कल्पना सक्रिय राजनीति में सक्रिय रहने लगी। 1943 में कल्पना को बंगाल विधानसभा चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी का उम्मीवार बनाया गया मगर वह चुनाव जीतने में असफल रहीं। बाद में पार्टी से मतभेदों के चलते पूरन चंद जोशी और कल्पना ने पार्टी छोड़ दी।
सक्रिय राजनीति से दूरी बना लेने के बाद कल्पना ने चटगाँव लूट केस पर आधारित अपनी आत्मकथा लिखी और उसके बाद वह एक सांख्यिकी संस्थान में काम करने लगीं। इसके बाद वह बंगाल से दिल्ली आ गईं। यहाँ वह इंडो सोवियत सांस्कृतिक सोसायटी का हिस्सा भी बनीं। 1971 में कल्पना के कामों को देखते हुए “वीर महिला” के सम्मान से नवाज़ा गया।
8 फरवरी 1995 को कल्पना ने दिल्ली में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके देहांत के बाद 2010 में उनपर एक फिल्म भी बनी। जिसका नाम ‘खेले हम जी जान से’ था। यह फिल्म कल्पना जोशी की बहू, मानिनी ने ‘डू एंड डाई: चटग्राम विद्रोह’ के नाम लिखी थी।
संदर्भ
रामपाल सिंह, विमला देवी, भारतीय क्रांतिकारी वीरांगनाएं, ए आर एस पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, 212
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में