मुस्लिम कॉन्फ्रेंस को नेशनल कॉन्फ्रेंस कैसे बनाया शेख़ अब्दुल्लाह ने
भारत के स्वाधीनता आंदोलन के दौर में, जिस समय देश भर में मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा/ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उभार के साथ साम्प्रदायिक विभाजन मज़बूत होता जा रहा था, उस समय कश्मीर में शेख़ अब्दुल्ला मुस्लिम कॉन्फ्रेंस को नेशनल कॉन्फ्रेंस में तब्दील करने के लिए मुतमइन थे।
वह कश्मीर आंदोलन को एक व्यापक आधार देना चाहते थे। वह यह समझने लगे थे कि असली लड़ाई दो धर्म या दो धार्मिक समूहों के बीच नहीं हैं, बल्कि उत्पीड़ित और उत्पीड़क के बीच है। यदि वास्तविक उद्देश्य उत्पीड़न या संकट से राहत पाना है, तो सबसे अच्छा रास्ता किसी एक समूह की नहीं, बल्कि जाति, धर्म या रंग की परवाह किए बिना सभी लोगों की सेवा करना है।
शेख़ अब्दुल्ला और मुस्लिम कॉन्फ्रेंस की इस पहल के चलते सरदार बुध सिंह और प्रेमनाथ बज़ाज़ ही नहीं, जिया लाल किलाम, कश्यप बन्धु, पंडित आर एन वैष्णवी जैसे अनेक हिन्दू और सिख भी सामंती तानाशाही के ख़िलाफ़ संयुक्त संघर्ष की ज़रूरत से मुतमइन होने लगे थे।
मार्च, 1938 में जम्मू में हुए मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के सालाना जलसे में शेख़ अब्दुल्ला ने अध्यक्षीय भाषण देते हुए कहा था –
हम चाहते हैं कि हमारे घर की व्यवस्था के लिए हम आज़ाद हों और किसी विदेशी या कोई आतंरिक तानाशाह हमारे स्वाभाविक जन्मसिद्ध अधिकारों में हस्तक्षेप न करे । यही माँग “ज़िम्मेदार सरकार” की माँग है जिसके लिए हमने क़ुर्बानियाँ दी हैं और जिसे हम हर हाल में हासिल करेंगे । इस “ज़िम्मेदार सरकार को हासिल करने के लिए पहली शर्त है कि जो राज्य की वर्तमान व्यवस्था द्वारा ग़ुलामों और ग़ुरबत की ज़िन्दगी जीने के लिए मज़बूर कर दिए गए हैं, इसमें शामिल हों । ये लोग कौन हैं ? ये केवल मुस्लिम या केवल हिन्दू या केवल सिख नहीं हैं, न ही केवल अछूत या केवल बौद्ध हैं बल्कि वे सभी हैं जो इस राज्य में रहते हैं ।
कुछ मुसलमान यह ग़लत सोच रखते हैं कि राज्य में रहने वाले सभी 8 लाख ग़ैर मुस्लिम ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी जीते हैं । असल में, उनमें से कुछ हज़ार ही अमीर हैं बाक़ी सभी आपकी ही तरह एक ग़ैर जिम्मेदार सरकार के हाथों भारी करों और ऋणों और भूखमरी के मारे हुए हैं । हम केवल 80 लाख मुसलमानों के लिए ज़िम्मेदार सरकार की माँग नहीं कर रहे,बल्कि प्रदेश की सौ प्रतिशत जनता के लिए हमारी यह माँग है । इस तरह मैं बीस प्रतिशत सिख, हिन्दू, बौद्ध और दलित जातियों को इस संघर्ष में साझेदारी के लिए आमंत्रण देता हूँ ।[i]
जब पंडित नेहरू से पहली बार मिले शेख़ अब्दुल्ला
जवाहरलाल नेहरू का भी मानना था कि शेख़ अब्दुल्ला को अपनी पार्टी की सदस्यता हर समुदाय के लिए खोल देनी चाहिए। जवाहरलाल नेहरू से अपनी पहली मुलाक़ात का ज़िक्र करते हुए शेख़ अपनी जीवनी में लिखते हैं-
1937 में मै पहली बार पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिला । वह लाहौर से उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेश की यात्रा पर थे । उनके आदेश पर मैं उनके साथ हो लिया और कई दिन सीमांत प्रदेश में बिताए । मुझे ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान और अन्य लोगों से मिलवाया गया। पंडित जी ने हमारे आन्दोलन में रूचि दिखाई और यह सलाह दी कि हम अपनी सदस्यता हर समुदाय के लिए खोल दें । मैंने उन्हें और बादशाह ख़ान को कश्मीर आने का न्यौता दिया। थोड़े समय बाद, भारत में ‘द स्टेट पीपल्स कॉन्फ्रेंस’[1] की स्थापना हुई जिसके अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू थे ।
यह स्पष्ट था कि अगर कश्मीरी नेताओं को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन चाहिए तो उसे अपना नाम बदल कर नेशनल कॉन्फ्रेंस करना होगा । कश्मीर के सपूत डॉ मोहम्मद इक़बाल ने भी मुझे 1937 में यही सलाह दी थी । उन्होंने कहा था कि केवल एकता ही कश्मीर को वर्तमान कशमकश से बाहर निकाल सकती है ।
1938 के छठें सालाना सत्र में ही आल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का नाम बदल कर आल जम्मू एंड कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस रखने का प्रस्ताव रखा गया था लेकिन सहमति नहीं बन पाई । लेकिन बहुत तेज़ी से प्रगतिशील हिन्दू और सिख मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के साथ आने लगे जिनमें प्रमुख थे सरदार बुध सिंह, प्रेमनाथ बज़ाज़, पंडित जिया जाल किलाम, कश्यप बन्धु और पंडित रघुनाथ वैष्णवी । शेख़ अब्दुल्ला के जीवनीकार सैयद तफज्जुल हुसैन ने बताया है कि 1938 में हुए प्रजा सभा के चुनाव में युवक सभा के भीतर मतभेद पैदा हो गया था । शिव नारायण फोतेदार ने पंडित जियालाल किलाम और कश्यप बन्धु के संयुक्त उम्मीदवार पंडित रामोदर भट्ट को हरा दिया । इस हार से नाराज़ होकर दोनों नेता शेख़ अब्दुल्ला की ओर चले गए ।[ii]
कश्मीर की कांग्रेस कमेटी, कश्मीर यूथ लीग और मज़दूर सभा जैसे संगठनों के विलय ने प्रदेश की वंचित-दमित जनता को मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के और क़रीब लाया ।
एक ख़्वाब की ताबीर नेशनल कॉन्फ्रेंस
28 जून, 1938 कश्मीर के इतिहास में एक युग प्रवर्तक दिन था जब मुस्लिम कॉन्फ्रेंस की कार्यकारिणी की एक बैठक श्रीनगर में हुई और 52 घंटे की गर्मागर्म बहसों के बाद आम सभा को एक प्रस्ताव सौंपा गया जिसमें सभी धर्मावलंबियों को मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का सदस्य बनाने की बात थी।
15-17 फरवरी, 1939 में लुधियाना में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुई पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के वार्षिक जलसे में कश्मीर से 34 डेलीगेट्स ने हिस्सा लिया, कश्यप बन्धु और शेख़ अब्दुल्ला जेल में होने के कारण इसमें शामिल नहीं हो सके ।
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अध्यक्षीय उद्बोधन में नेहरू ने न केवल कश्मीर का ज़िक्र किया बल्कि कहा कि शेख़ अब्दुल्ला को गिरफ़्तार कर कश्मीरी जनता के आन्दोलन का दमन नहीं किया जा सकता । इस कॉन्फ्रेंस ने ‘जिम्मेदार सरकार’ यानी जनता द्वारा चुनी गई सरकार के प्रस्ताव को सभी राज्यों के लिए स्वीकार कर लिया जो कश्मीरी आन्दोलन के लिए एक बड़ी नैतिक विजय थी ।
24 फरवरी को शेख़ अब्दुल्ला को कठुआ जेल से रिहा किया गया । आन्दोलन अब आगे बढ़ चुका था । वह इसके तुरंत बाद वह कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में शामिल होने के लिए गए जिसमें उनके साथ प्रेमनाथ बज़ाज़, कश्यप बन्धु, मौलाना मोहम्मद सईद मसूदी और बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद भी शामिल थे । यहाँ कश्मीरी नेताओं को नेहरू, मौलाना आज़ाद, सरदार पटेल, डॉ राजेन्द्र प्रसाद और जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं से मिलने का मौक़ा मिला । अधिवेशन के बाद ये नेता बम्बई तथा दीगर जगहों पर भी गए जहाँ उन्हें कश्मीर में धर्मनिरपेक्ष संघर्ष के विचार को भरपूर समर्थन मिला। इस यात्रा से लौटने के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के निर्माण की प्रक्रिया तेज़ हो गई ।
शेख़ अब्दुल्ला ने अपनी जीवनी में नेशनल कॉन्फ्रेंस के गठन से सम्बन्धित अध्याय को नाम दिया है –“एक ख़्वाब की ताबीर नेशनल कॉन्फ्रेंस।”
संदर्भ
कश्मीरनामा– अशोक कुमार पाण्डेय
फ्लेम्स ऑफ़ चिनार, शेख़ अब्दुल्ला (अनुवाद – खुशवंत सिंह), पेंगुइन- दिल्ली- 1993
[i] ज़-88, फ्रीडम स्ट्रगल इन कश्मीर, ऍफ़ एम हसनैन, रीमा पब्लिशिंग हाउस, 1988, दिल्ली
[ii] देखें, पेज़ 277, शेख़ अब्दुल्ला अ बोयोग्राफ़ी, सैयद तफज्जुल हुसैन, वर्ल्ड क्ले
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