कौन थे झाँसी के क्रांतिकारी पंडित परमानन्द
अतिरेकी तारीफ़ की यह परंपरा दुर्भाग्य से सावरकर के जीवनीकारों ने भी जारी रखी है। उदाहरण के लिए संपथ 1906 में गांधी की यात्रा के समय सावरकर से उनकी मुलाक़ात सिद्ध करने के लिए हरीन्द्र श्रीवास्तव की 2018 में छपी किताब का सहारा लेते हैं। इसमें हरीन्द्र श्रीवास्तव ने झांसी के क्रांतिकारी पंडित परमानन्द जी का सुनाया क़िस्सा उद्धरित किया है।[1] यह इतिहास के साथ खुले धोखे का भयावह उदाहरण है जिसे संपथ ‘स्रोत’ के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
बचपने से क्रांतिकारी थे झांसी वाले पंडित परमानन्द
दुर्भाग्य से भाई परमानन्द के विपरीत झांसी वाले पंडित परमानन्द के बारे में लोगों को बहुत कम पता है। इनका जन्म बुंदेलखंड के राठ नामक स्थान पर हुआ था।
उनके दादा मनराखन खरे वर्ष 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान चरखारी रियासत का खजाना लूटने के षडयंत्र में पकड़े गए और जेल में कठोर यातना भोगते हुए उनकी मृत्यु हो गई थी।
राठ क्षेत्र के सिकरौधा गांव में 6 जून 1892 में गयाप्रसाद खरे के घर जन्मे परमानंद जी ने अपने गांव की पाठशाला में शिक्षा प्राप्त करने के बाद इलाहाबाद में जब कायस्थ पाठशाला में प्रवेश लिया तो आज़ादी के आंदोलन से जुड़ गए।
1907 में जब रिहाई के बाद लाला लाजपत राय इलाहाबाद आए तो परमानन्द उनका स्वागत करने वालों में शामिल थे। बनारस में उनका संपर्क क्रांतिकारियों से हुआ और सोलह वर्ष की उम्र में 1908 में वह झांसी आ गए।[2]
वह ग़दर आंदोलन में शामिल होने अमेरिका के लिए निकले लेकिन लौटे याकोहामा से एस एस कोरिया नामक जहाज से और 16 अक्टूबर 1914 को कलकत्ता पहुँचे।[3]
भारत में लाहौर षड्यन्त्र कांड में करतार सिंह सराभा, भाई महावीर तथा अन्य लोगों के साथ गिरफ़्तार हुए।
पहले उन्हें फाँसी की सज़ा हुई और फिर उसे बदलकर कालापानी भेज दिया गया। इनके साथ ही लाला रामशरण दास को भी आजीवन कारावास की सज़ा हुई थी, जिनका ज़िक्र पहले आ चुका है।[4]
यानी 1906 में भाई परमानन्द जी की उम्र 14 वर्ष थी और वह इलाहाबाद की कायस्थ पाठशाला में पढ़ते थे। इस उम्र में तो क्या आगे भी उनके लंदन जाने या फिर इंडिया हाउस में जाने का कोई सबूत नहीं मिलता। फिर परमानन्द जी ऐसी किसी ‘मुलाक़ात’ के साक्षी कैसे हो सकते थे?
इसके अलावा सावरकर ने अपने संस्मरण में भी न तो लंदन के साथियों में परमानन्द जी का ज़िक्र किया है न ही 1906 में गांधी से मुलाक़ात का कोई ज़िक्र किया है। गांधी ने 20 जुलाई 1937 को शंकरराव देव को लिखे एक पत्र में स्पष्ट लिखा है कि उनकी सावरकर से इकलौती मुलाक़ात 1909 में हुई थी।[5]
वैसे नीलांजन मुखोपाध्याय ने भी गांधी की सावरकर से मुलाक़ात का जिक्र किया है और स्रोत के रूप में इकनॉमिक टाइम्स में छपे एक लेख का जिक्र किया है जिस लेख में कोई स्रोत नहीं दिया गया है।[6]
यह फेक न्यूज़ की मेनस्ट्रीमिंग जैसा है जहाँ मूल स्रोतों तक जाने की कोशिश की जगह चटपटी शुरुआत के लिए कहीं से भी कहानी उठा ली गई है।
आखिर संपथ के लिए इस मुलाक़ात का ज़िक्र इतना ज़रूरी क्यों था कि एक अविश्वसनीय स्रोत को उन्होंने सावरकर और गांधी के अपने लिखे से भी महत्त्वपूर्ण मान लिया? जवाब मुलाक़ात की तफ़सील पढ़ने से मिल जाता है, हरीन्द्र और संपथ दोनों यह रेखांकित करना चाहते हैं कि सावरकर अपने लंदन पहुँचने के कुछ हफ्तों में ही इतने महत्त्वपूर्ण बन गए थे कि गांधी उनसे मिलने उनके कमरे में गए और वहाँ सावरकर से सारा अपमान सुनकर भी चुप रहे!
यह उदाहरण अकेला नहीं है लेकिन यह समझने के लिए काफ़ी है कि सावरकर समग्र में उनके संस्मरण असल में तत्कालीन परिवेश में खुद की महानता स्थापित करने के प्रयास हैं, अपनी सांप्रदायिक दृष्टि से आज़ादी के आंदोलन और उसके नायकों को देखने की कोशिशें हैं और इसीलिए क़तई विश्वसनीय नहीं हैं और उनके जीवनीकारों ने न केवल इन संस्मरणों पर आँख मूँद कर भरोसा किया है बल्कि कई बार उससे एक क़दम आगे बढ़कर अपुष्ट तथ्यों और अर्धसत्यों के आधार पर उनकी एक परामानवीय छवि निर्माण की कोशिश की है। यह प्रवृत्ति सावरकर और उनके जीवनीकारों में उपस्थित हीनताबोध का स्पष्ट उदाहरण है।
अंडमान के जेल में झांसी वाले पंडित परमानन्द
वैसे जेल में परमानन्द जी के बारे में भाई परमानन्द ने एक रोचक घटना का वर्णन किया है –
हममें एक मेरे ही नाम का युवा था। वह यह सब बिना कोई ध्यान दिए सुन रहा था और नज़रअंदाज़ करके अपने ही तरीक़े से खड़ा था। ‘तुम .. तन कर खड़े होवो।’ जमादार तुरंत उसके पास गया और उसे तन के खड़ा होने को कहा तो बारी ने कहा, ‘कोई बात नहीं। यह इसका पहला दिन है। ले जाओ इसे।” और हमें अपने सेलों में ले आया गया।
.. अगले दिन परमानन्द ने यह कहते हुए काम करने से इंकार कर दिया कि वह यह काम नहीं कर सकते। टंडील तुरंत उन्हें जेलर के दफ़्तर में ले गया। जेलर ने काफ़ी आड़ी-तिरछी बातें कीं लेकिन परमानन्द ने भी उसका गुस्से में जवाब दिया। जब जेलर अपनी कुर्सी से उन्हें मारने के अंदाज़ में उठाया परमानन्द ने उसे धक्का दिया जिससे कि वह फिर अपनी कुर्सी पर गिर गया, कुर्सी पलट गई और वह नीचे गिर पड़ा।
इस कभी न सुने गए व्यवहार से विस्मित टंडील और वॉर्डर ने परमानन्द को तब तक पीटा जब तक उनके सर से खून नहीं निकलने लगा। तुरंत सुपरिन्टेंडेंट को फोन किया गया क्योंकि बारी सुपरिन्टेंडेंट से बहुत डरता था। सुपरिन्टेंडेंट ने आदेश दिया कि परमानन्द के घावों को धुला जाए ताकि दाग़ न दिखें और उन्हें उनके कमरे में बंद कर दिया जाए तथा बाहर जाने की इज़ाज़त न दी जाए।
सुपरिन्टेंडेंट मेजर मुरे भले और निष्पक्ष आदमी थे। अपने कर्तव्य के अनुपालन में कड़े और नियमित। बारी उनके तरीक़ों से बेहद असन्तुष्ट था।
.. दोनों साथ में परमानन्द की सेल में गए। परमानन्द गुस्से में थे और जब सुपरिन्टेंडेंट ने उन्हें जम के डपटा, जो जेल में एक सामान्य बात थी, तो उन्होंने भी गुस्से में उसका जवाब दिया। यहाँ तक कि टंडील और वॉर्डर भी जो वैसे तो बारी से बहुत डरते थे और उसकी उपस्थिति में उसकी चमचागिरी करते थे, उसकी इस हार पर खुश थे। वह इतना कठोर और भयावह था कि सब दिल ही दिल में खुश थे।
चार या पाँच दिन बाद सुपरिन्टेंडेंट ने परमानन्द के अपराध की एक जाँच की और जेल के सारे दरवाज़े बंद करने के बाद तीस बेंतों की सज़ा दी। उन्होंने बिना एक शब्द कहे बेंतें बर्दाश्त की, लेकिन जैसे ही यह खबर फैली जेल में आम हड़ताल हो गई।[7]
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झांसी वाले पंडित परमानन्द ने 30 साल जेलों में बिताए
परमानन्द ने अंडमान की क़ैद ऐसे ही संघर्ष करते झेली। न तो उन्होंने कोई याचिका लिखी न जेलर और वार्डरों की बदतमीजियाँ बर्दाश्त कीं। यही नहीं, उन्होंने सावरकर की याचिकाएं लिखने के लिए आलोचना भी की थी।
भारतीय आज़ादी के आंदोलन में उन्होंने 30 साल जेलों में बिताए, जो शायद किसी क्रांतिकारी द्वारा जेल में बिताई अधिकतम अवधि है। 1922 तक वह अंडमान में रहे और फिर 1937 तक भारत की दूसरी जेलों में। जेल में रहते हुए उन्होंने नमक क़ानून तोड़ा और रिहा होने के बाद लाहौर में जब उनके सम्मान में आयोजन रखा गया तो उसमें सम्मानित होने से इंकार करते हुए कहा कि वह खुद को हारा हुआ योद्धा मानते हैं।
इस पर गांधी जी ने उन्हें अपना सगा भाई कहा था। देहरादून में रिहाई के बाद रखी एक सभा में उन्होंने ऐसा उत्तेजक भाषण दिया कि दिल्ली आते ही उन्हें फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया। रिहा हुए तो फिर भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गए और हमीरपुर, इलाहाबाद, बनारस तथा अंततः सुल्तानपुर की जेल में रहे जहाँ से 1945-46 में उनकी रिहाई हुई।
आज़ादी के बाद वह दिल्ली में गोल डाकखाना के पास स्वाधीनता सेनानी भवन में रहे और 90 वर्ष की आयु में 13 अप्रैल 1982 को उनकी मृत्यु हुई।[8]
दुखद है कि परमानन्द जी जैसे अथक और समझौताहीन क्रांतिकारी के बारे में लोगों को कोई ख़ास जानकारी नहीं है। आत्मप्रशंसा के प्रति सावरकर के अनन्य मोह की इस प्रवृत्ति का एक उदाहरण तो 1924 में प्रकाशित उनकी जीवनी है जिसके लेखक के रूप में ‘चित्रगुप्त’ का नाम दिया गया था.
साभार
अशोक कुमार पांडेय, सावरकर कालापानी और उसके बाद, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2022, पेज- 40-44
संदर्भ
[1] पेज 118, सावरकर : ईकोज़ फ्रॉम अ डिस्टेंट पास्ट, विक्रम संपत, पेंगुइन-2019
[2] यह सूचना कई स्थानीय अखबारों और स्रोतों से पुष्ट होती है। उदाहरण के लिए देखें : अमर उजाला झांसी एडीशन, 4 अगस्त, 2021, दैनिक जागरण 7 जून 2020, अमर उजाला, हमीरपुर एडीशन, 14 अप्रैल, 2013,
[3] पेज 192, द हीरोज ऑफ सेल्यूलर जेल, रूपा, दिल्ली -2018
[4] पेज 80-84, शचीन्द्रनाथ सान्याल और उनका युग, विश्वमित्र उपाध्याय, प्रगतिशील जन प्रकाशन,दिल्ली-1983
[5] पेज 50, कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी, खंड 72 ( गाँधी आश्रम सेवाग्राम द्वारा प्रकाशित)
[6] पेज 42, द आर एस एस : आइकन्स ऑफ द इंडियन राइट, नीलांजन मुखोपाध्याय, ट्रंकेबार, चेन्नई-2019
[7] पेज 109-111, द स्टोरी ऑफ माय लाइफ, भाई परमानन्द, ओसेन बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली-2003
[8] अनिल नौरिया का इंडियन एक्स्प्रेस में 1 मार्च 2001 को प्रकाशित आलेख https://www.scribd.com/doc/93896220/Pandit-Parmanand-of-Jhansi
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में