नस्लभेद की लड़ाई और अफ्रीका में गांधीजी
“गाँधी को पूर्वाग्रहों के लिए क्षमा किया जाना चाहिए और हमें उनका मूल्यांकन उनके समय और परिस्थितियों को ध्यान में रख कर करना चाहिए. हम यहाँ एक युवा गाँधी की बात कर रहे हैं जो तब तक महात्मा नहीं बने थे.” -नेल्सन मंडेला
अफ्रीका में गांधी एक प्रवासी समुदाय का नेतृत्व कर रहे थे। वहाँ सवाल भेदभाव से मुक्ति का था, आज़ादी का सवाल वहाँ नहीं हो सकता था। हिंदुस्तानियों के लिए बेहतर स्थितियों की माँग करते हुए उन्होंने अंग्रेज़ों से सहयोग की नीति अपनाई थी। अफ्रीका में ब्रिटिश क़ब्ज़े का विरोध उनके एजेंडे में नहीं था।
इसीलिए बोर युद्ध हो या जुलू विद्रोह, गांधी ने अंग्रेज़ों का साथ देना चुना। जुलू विद्रोह के समय तो सार्जेंट कमांडर के रूप में सैनिक गणवेश भी पहना। सवाल पूछे जाते हैं और पूछे जाने चाहिए कि गांधी क्यों वहाँ के मूलनिवासियों के साथ उनकी मुक्ति की लड़ाई में शामिल नहीं हुए?
2015 में आश्विन देसाई और गुलाम वाहिद की किताब द साउथ अफ्रीकन गांधी : स्ट्रेचर बियरर ऑफ़ एम्पायर के साथ यह बहस दुबारा शुरू हुई और अप्रैल 2015 में जोहांसबर्ग में गांधी की इकलौती युवा प्रतिमा पर सफ़ेद पेंट की बाल्टियां फेंकने की घटनाएँ हुईं तो हाल में मिनियापोलिस के पुलिस अधिकारी डेरेक चौविन द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड की कुख्यात हत्या के बाद शुरू हुए आन्दोलन में वाशिंगटन डीसी में प्रदर्शनकारियों ने भारतीय दूतावास में महात्मा गांधी की प्रतिमा पर हमला किया।
वैसे तो इसमें कोई नई खोज जैसी चीज़ नहीं है और गांधी ने ख़ुद इस पर विस्तार से लिखा है। सत्याग्रह इन दक्षिण अफ्रीका में वह कहते हैं –
जुलु लोगों के खिलाफ मेरे मन में कोई दुर्भावना नहीं है, उन्होंने किसी भारतीय को नुकसान नहीं पहुँचाया बावजूद इसके मुझे विश्वास है कि ब्रिटिश साम्राज्य विश्व कल्याण के लिए है। निष्ठा की भावना ने मुझे ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध किसी भी दुर्भावना की तरफ जाने से रोका । इस सच्चाई की वजह से विद्रोह का साथ देने की निर्णय करने की संभावना नहीं थी।
लेकिन गोलमेज सम्मलेन में गए गांधी की मेज़बान रहीं मुरियल लिस्टर के 1932 में प्रकाशित संस्मरण इंटरटेनिंग गांधी में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद स्विटज़रलैंड में शान्ति के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवक संस्था चला रहे पियरे सेरेसोल से गांधी की मुलाक़ात के दौरान सरकार से सहयोग के मुद्दे पर हस्तक्षेप करते हुए गांधी को उद्धृत करती हैं।
गांधी का यह वक्तव्य उनकी उस पूरी यात्रा को चिह्नित करता है जिसके एक हिस्से को उद्धरित कर उन्हें ‘साम्राज्य का स्ट्रेचर बियरर’ साबित करने की कोशिशें इस दौर में हो रही हैं, वह कहते हैं –
मैं 1914 में ऐसा नहीं सोचता था। तब मैं एक निष्कलंक नागरिक बनना चाहता था। इसलिए मैंने ख़ुद को पूरी तरह ब्रिटिश सरकार के हवाले कर दिया। मुझे लगता था कि वे मेरे देश को अत्याचार से बचा रहे हैं। इसलिए मुझे लगा कि मुझे उनकी वैसे ही पूरे दिल से सहायता करनी चाहिए जैसे कोई ब्रिटिश करता है। मुझे रेड क्रॉस का काम करने को कहा गया।
मैंने कहा ये शानदार है क्योंकि मैं किसी की हत्या नहीं करना चाहता था। लेकिन मैंने अपने दिल को किसी भरम में नहीं रखा। मैं ख़ुद को भरमा नहीं सकता था कि रेड क्रॉस का काम हत्या से कम है। युद्ध में इसकी भी वही भूमिका है। यह सैनिकों को दूसरों की हत्या करने के लिए तैयार करता है। अगर उन्होंने मुझे बन्दूक दी होती तो उनके प्रशिक्षण के बाद मैं उसे निश्चित रूप से चलाता भी, यह मुमकिन है कि ऐसा करते मुझे लकवा मार जाता।
युद्ध में जूलु लोगों की सेवा का काम चुना गांधीजी ने
मैं सोचता था कि युद्ध के समय पूरे दिल से सेवा करना मेरे देश की मुक्ति के लिए सहायक होगा। इसके पहले जब मैं दक्षिण अफ्रीका में था, ज़ुलु विद्रोह फूट पड़ा। मेरी सहानुभूति ज़ुलु लोगों के साथ थी। मुझे उनकी सहायता करके अच्छा लगा होता, लेकिन तब मेरे पास उनके लिए कुछ कर पाने का प्राधिकार नहीं था। मैं इतना ताक़तवर, अनुभवी या अनुशासित नहीं था।
मैंने सोचा मैं ब्रिटिश सरकारी व्यवस्था के साथ खड़ा होऊंगा ; तब व्यवस्था के भीतर के एक आदमी की तरह मैं जो ग़लत हो रहा है उसे सही करने में सहायता कर पाऊंगा। मैंने ख़ुद को सरकार के हवाले कर दिया और मुझे स्ट्रेचर उठाने का काम दिया गया। यह मेरे लिए बहुत अच्छा था। चीफ मेडिकल अधिकारी मानवीय था और जब मैंने कहा कि मैं दूसरों के बजाय घायल ज़ुलु लोगों की सेवा करना चाहूँगा तो उसने आह भरी – यह मेरी प्रार्थनाओं का नतीजा है। आप देखिये कि ज़ुलु बंदियों को कोड़ों से पीटा जाता था और उनके घावों की कोई और सेवा नहीं करना चाहता था तो मैंने दिन-रात उनकी सेवा की। उन्हें जेलों में रखा जाता था और औपनिवेशिक सैनिक हमें सेवा करते हुए बाहर से देखकर चिढाते थे।
वे चिल्लाते थे –तुम इन्हें मरने क्यों नहीं देते? विद्रोही! निग्गर! जिस तरह से उस विद्रोह को दबाया गया वह भयानक था। सैनिक निहत्थे लोगों पर हमला करते थे। इससे मुझे शिक्षा लेनी चाहिए थे लेकिन आप देखिये मैं ब्रिटिश सत्ता व्यवस्था के भीतर बना रहा। मैंने राज्य के भीतर रहकर अपने आदर्शों को लागू करने की कोशिश की लेकिन यह सही नहीं था।
मैंने अपने इस प्रयास से बहुत कुछ सीखा लेकिन दक्षिण अफ्रीका राज्य के भीतर रहकर भी ज़ुलु लोगों की कोई सहायता कर पाने में सक्षम नहीं हुआ। और प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान साम्राज्य की सेवा करने के बावजूद अंत में मैं अपने देश को स्वाधीन कराने में सक्षम नहीं महसूस करता। इसलिए अब मैं राज्य के साथ और सहयोग नहीं कर सकता।[i]
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और फिर अफ्रीकी जनता के संघर्ष का पूरा समर्थन
यह भी कोई संयोग नहीं है कि अमेरिकी ब्लैक आन्दोलन के नेता मार्टिन लूथर जूनियर और अफ्रीकी जनता की मुक्ति के सबसे बड़े नेता नेल्सन मंडेला ने गांधी को मॉडल की तरह सम्मान दिया और उन्हीं अहिंसक नीतियों से मुक्ति संग्राम लड़ा । गांधी के सिद्धांत मंडेला के काम आए थे लेकिन गांधी अपने अफ्रीकी प्रवास में उनके काम नहीं आए थे।
लेकिन भारत में हालात अलग थे। यहाँ उनका अपना देश था। उनके अपने लोग। ब्रिटिश शासन की जिन न्यायपूर्ण नीतियों के वे समर्थक थे, भारत में उसके विपरीत वह दमन और अन्याय के चलते लगातार नैतिक पतन देख रहे थे। बावजूद इसके वह अभी अंग्रेज़ों को निकालने के पक्ष में नहीं थे।
इस भाषण में सारे विरोधों के बावजूद अंग्रेज़ी शासन के प्रति निष्ठा की जो बात थी वह लंबी चली। प्रथम विश्वयुद्ध में भी उन्होंने अंग्रेज़ों का साथ दिया। सेना में भर्ती का अभियान चलाया। लेकिन उनका अभियान बुरी तरह से विफल रहा।
जिस बारडोली में पटेल के समर्थन में चले किसान आंदोलन में वह नायक थे, वहाँ लोगों ने ब्रिटिश सेना मे भर्ती के उनके आह्वान पर कोई ध्यान नहीं दिया। बारडोली से चंपारण तक गांधी देख पा रहे थे कि भारत में अंग्रेज़ों का शासन अन्याय से भरा हुआ है। दमन और शोषण इसके हथियार हैं।
इस भाषण में जो बीज थे वे बाद की घटनाओं में फलते-फूलते दिखते हैं और कराची अधिवेशन तक स्वराज की अवधारणा में अंग्रेज़ों की विदाई की बात पूरी ताक़त से शामिल होती है।
जब गांधीजी ने कहा ब्रिटिश राज्य अन्यायपूर्ण राज्य है
नमक सत्याग्रह और जालियाँवाला बाग़ कांड ऐसी दो घटनाएँ थीं जिन्होंने गांधी के इस विश्वास को पूरी तरह से ध्वस्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई कि ब्रिटिश राज्य न्यायपूर्ण राज्य है।
गोरों की श्रेष्ठता का सिद्धान्त अब उनके सामने नंगा था जिसमें भयावह नस्ली अहंकार और दूसरों के प्रति घृणा भरी हुई थी। शायद इसी अनुभव ने उन्हें अफ़्रीका और योरप के अश्वेतों के बारे में नए सिरे से सोचने का मौक़ा दिया।
अफ्रीका प्रवास के दौरान अश्वेतों के दमन पर चुप रहने वाले गांधी अपने जीवन के आख़िरी दौर में कई बार उनके पक्ष में आवाज़ उठाते दीखते हैं। उदाहरण के लिए जब ब्लैक अमेरिकियों के एक समूह ने अगस्त 1924 में इन्हें एक तार भेजा, तो उसका जवाब उन्होंने अपनी साप्ताहिक पत्रिका यंग इंडिया में देते हुए लिखा :
उनका काम हमारी तुलना में बहुत कठिन है, लेकिन उनके बीच कुछ बहुत ही अच्छे काम करने वाले लोग है। इतिहास के कई छात्र मानते हैं कि भविष्य उनके साथ होगा, उनकी काया अच्छी है, उनके पास गौरवशाली कल्पना है, वे उतने ही सरल हैं जितने वे बहादुर है।
फिनोट ने अपने वैज्ञानिक शोधों से ये साबित किया है कि उनमें कोई अंतर्निहित हीनता नहीं है , उन्हें बस अवसर की आवश्यकता है।[ii]
इसी तरह 30 जून 1946 को साप्ताहिक पत्र हरिजन में गांधीलिखते हैं –
गोरे लोगों की वास्तविक जिम्मेदारी काले या अश्वेत लोगों पर अक्खड़पन से हावी होना नहीं है, यह उस पाखण्ड से दूर होना है जो उन्हें खाए जा रहा है।
यह वह समय है जब गोरे लोगों को सभी से समान व्यवहार करना सीखना चाहिए। श्वेत त्वचा अब कोई रहस्य नहीं है। अब यह बारम्बार सिद्ध हो चुका है कि अगर किसी व्यक्ति को समान अवसर दिया जाये तो चाहे वह किसी भी रंग या देश का हो, वह किसी भी अन्य के पूरी तरह से बराबर है।[iii]
इसका सबसे मुखर स्वर 17 नवम्बर, 1947 को उनकी आख़िरी प्रार्थना सभाओं में से एक में दिए गए भाषण में मिल है –
दक्षिण अफ्रीका में कई विद्वान पुरुष और महिलाएँ हैं…यह एक वैश्विक त्रासदी होगी अगर वे अपने दुर्बल परिवेश से ऊपर नहीं उठते और गोरों के वर्चस्व की इस दुखद और चिंताजनक समस्या को चुनौती नहीं देते। क्या अब यह खेल बहुत नहीं खेला जा चुका है?[iv]
ज़ाहिर है अपने आख़िरी समय तक वह गोरों के वर्चस्व के खेल को ख़त्म करने के पक्ष में थे और उसमें अपनी सक्रिय भूमिका भी निभा रहे थे।
[‘उसने गांधी को क्यों मारा‘ से साभार]
संदर्भ
[i]देखें, पेज 160-61, इंटरटेनिंग गाँधी, मुरियल लिस्टर, रिचर्ड क्ले एंड संस लिमिटेड, लन्दन -1932
[ii]देखें, पेज 280, द एसेंशियल गाँधी, (सं) लुई फिशर, रैंडम हाउस, न्यूयार्क-1962
[iii]देखें, वही, पेज 181-82
[iv]देखें, वही, पेज 285,
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में