दुनिया को मधु लिमये ने बताया कि संसद में बहस कैसे की जाती है
भारत की समाजवादी राजनीति के प्रतिनिधि नेता मधु लिमये ने चार दशक तक देश की राजनीति को कई तरीकों से प्रभावित किया। वह प्रखर वक्ता और सिद्धांतकार थे। तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थ के समय ही सुनाई देने वाली ‘अंतरात्मा की आवाज़’ के दौर में मधु लिमये लोकतंत्र, आडम्बरहीनता और साफ़ सार्वजनिक जीवन के पहरेदार बन गए थे।
मधु लिमये ने दुनिया को बताया कि संसद में बहस कैसे की जाती है। उन्होंने सांसद होने की पेंशन कभी नहीं ली और न ही पूर्व सांसद होने की सुविधाएं।
जब अफवाह फैली,मुधु लिमये पुर्तगाली पुलिस की पिटाई से मर गए
राजनीति के क्षेत्र में राम मनोहर लोहिया के समकालीनों में दूसरी पंक्ति उन नेताओं की थी जो उनकी विचारधारा से बहुत प्रभावित थे और उनकी अनुगामिता में गर्व और गौरव का अनुभव करते थे। उस पंक्ति में सबसे अग्रणी नेता मधु लिमये थे।
अपनी स्नातकीय पढ़ाई के दौर में आजादी की लड़ाई के कारण कालेज के बाहर निकल आये थे और फिर दुबारा औपचारिक पढ़ाई केलिए कॉलेज या युनिवर्सिटी में वापस नहीं गये मधु लिमये।
1942 के आंदोलन में राम मनोहर लोहिया की ही भांति मधु लिमये भी पूरी तौर पर सक्रिय थे। गिरफ्तार हुए थे और एक लम्बी जेल के बाद 1945 में जेल से छूटे।
लोहिया से उनका मानसिक और वैचारिक रिश्ता बनने लगा था। उन्हीं की प्रेरणा से वह गोवा-मुक्ति आन्दोलन में शामिल हुए थे जहां पुर्तगाली शासन ने न केवल उन्हें बन्दी बनाया था बल्कि गोवा की पुलिस ने उन्हें इतना मारा था कि जेल के बाहर इस बात का प्रचार हो गया कि मुधु लिमये पुर्तगाली पुलिस की पिटाई से मर गए।
पूरी गोवा जैसे उमड़कर जेल की चहारदीवारी को घेर लिया और इस बात की मांग की कि जिंदा या मुर्दा मधु लिमये को जनता के सामने पेश किया जाय। सिर से पांव तक पट्टियों से बंधे मधु लिमये को जनता के सामने पेश किया जाय। उन्होंने लोगों को शांत रहने की अपील की और उसी दौर में मधु लिमये और राम मनोहर लोहिया के बीच एक गहरा और सघन वैचारिक सम्बन्ध बन गया। यह सम्बन्ध न तो कभी विरल हुआ और न इसमें कोई प्रश्न चिन्ह पैदा हुआ।
इस संबंध में की पहली कसौटी तब हुई जब 1974 में मधु लिमये ने अशोक मेहता के विरुद्ध अखबारों में एक खुला बयान दिया। यह बयान किसी व्यक्तिगत आचरण के विरुद्ध नहीं था, इसका आधार पूरी तौर पर नीतिगत था किन्तु अशोक मेहता ने बम्बई की पार्टी के द्वारा मधु लिमये को निष्कासित करा दिया।
लोहिया ने इस कदम का सख्त विरोध किया और बयान दिया कि मधु लिमये के साथ सरासर अन्याय किया गया है। लोग उन्हें आमंत्रित करें और उनकी बातों को सुनें। दल में जहां-जहां लोहिया का प्रभाव था मधु लिमये को बुलाया गया और वहां प्रजा समाजवादी पार्टी ने अनुशासन की कार्यवाही करना शुरू किया।
उत्तर प्रदेश पार्टी के राज्य सम्मेलन में गाजीपुर में मधु लिमये को आमंत्रित किया गया था और राज्य की पूरी पार्टी इकाई को ही निलंबित कर दिया। इस कदम के बाद उत्तरप्रदेश में लोहिया की जड़े बहुत गहराई से जम गयी थी।बिहार की समाजवादी युवा सभा ने मधु लिमये को आमंत्रित किय तो उसे भी निलंबित कर दिया गया और इस प्रक्रिया की अन्तिम परिणति यह हुई कि जयपुर में प्रजा समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय शिविर में लोहिया को ही पार्टी से निकाल दिया गया और 1954-1955 में सोशलिस्ट पार्टी का स्थापना सम्मेलन हुआ।
हिन्दी पत्रकारिता में महिला विचारधारा के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र
लोहिया के बाद दल के सबसे बड़े सिद्धान्तवेदा थे मधु लिमये
पार्टी के अध्यक्ष के रूप में बड़े ही अनुनय-विनय के साथ लोहिया को चुना गया और महामंत्री के रूप में विपिनचंद्र पाल को। मधु लिमये लोहिया के बाद दल के सबसे बड़े सिद्धान्तवेदा थे। जब-जब लोहिया द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत को लेकर कोई भ्रम या अस्पष्टता की स्थिति बनती थी तो मधु लिमये तुरंत उस सिद्धांत की एक सम्यक व्याख्या प्रस्तुत करते थे।
एक बार जब जयप्रकाश नारायण ने आर्चाय विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन में अपने को शामिल किया तो बहुतों के मन में भ्रम बनने लगा कि भारत में भूमि समस्या का सबसे सुसंगत समाधान भूदान आंदोलन से ही सफल होगा। लोहिया इस बात से पूर्णतः असहमत थे।
मधु लिमये ने लोहिया द्वारा सम्पादित पत्रिका मैनकाइंड में एक विस्तृत लेख भूदान आन्दोलन और आचार्य विनोबा भावे के जीवन दर्शन पर लिखा और बहुत सशक्त तर्कों और प्रमाणों के साथ यह सिद्ध किया कि भारत की भूमि समस्या का इंच मात्र भी भूदान आन्दोलन से हल नहीं होने वाला है। इसी प्रकार जब लोहिया के दलों के भीतर आंतरिक प्रजातंत्र का सवाल उठाया तो मधु लिमये ने इसका भी बहुत व्यापक व्याख्या प्रस्तुत की थी।
1965 के पश्चात लगभग चार वर्षों तक लोहिया और मधु लिमये साथ-साथ संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के लोकसभा सदस्य थे। दोनों ने एक-दूसरे को पूरी तौर पर शक्ति और समर्थन देते हुए समाजवादी प्रश्नों और समस्याओं को लोकसभा के पटल पर पूरी ताकत से उठाया था।
लोहिया की मृत्यु के बाद संयुक्त समाजवादी दल में मध्य लिमये और राज नारायण दो सशक्त नेता थे।
दोनों के स्वभाव में काफी अंतर थी। लोहिया के प्रति दोनों को अपने जीवन काल में समान भाव से अपनाया किन्तु बाद में ये दोनों एक-दूसरे से दूर-दूर खिचने लगे थे किन्तु लोहिया के प्रति उनके समर्पण भाव में कभी कोई न्यूनता या शिथिलता नहीं आई।
आप मधु लिमये है लेकिन आप है बड़े कटु लिमये
मधु लिमये ने दुनिया को बताया कि संसद में बहस कैसे की जाती है। वह प्रश्नकाल और शून्य काल के अनन्य स्वामी हुआ करते थे। जब भी ज़ीरो आवर होता, सारा सदन सांस रोक कर एकटक देखता था कि मधु लिमये अपने पिटारे से कौन-सा नाग निकालेंगे और किस पर छोड़ देंगे।
मशहूर पत्रकार और एक ज़माने में मधु लिमये के नज़दीकी रहे डॉक्टर वेद प्रताप वैदिक के अनुसार- “मधु जी ग़ज़ब के इंसान थे। ज़बरदस्त प्रश्न पूछना और मंत्री के उत्तर पर पूरक सवालों की मशीनगन से सरकार को ढेर कर देना मधु लिमये के लिए बाएं हाथ का खेल था।”
वह बताते हैं कि- “होता यूँ था कि डॉक्टर लोहिया प्रधान मल्ल की तरह खम ठोंकते और सारे समाजवादी भूखे शेर की तरह सत्ता पक्ष पर टूट पड़ते और सिर्फ़ आधा दर्जन सांसद बाकी पाँच सौ सदस्यों की बोलती बंद कर देते। मैं तो उनसे मज़ाक में कहा करता था कि आपका नाम मधु लिमये है लेकिन आप बड़े कटु लिमये हैं।”
संसदीय नियमों के ज्ञान का चैंपियन, मधु लिमये
मधु लिमये को अगर “संसदीय नियमों के ज्ञान का चैंपियन” कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके एक साथी और मशहूर समाजवादी नेता लाडली मोहन निगम ने एक बार एक लेख में एक घटना का ज़िक्र किया था।
एक बार इंदिरा गांधी ने लोकसभा में बजट पेश किया जो आर्थिक लेखानुदान था। भाषण समाप्त होते ही मधु लिमये ने व्यवस्था का प्रश्न उठाना चाहा, लेकिन स्पीकर ने सदन को अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दिया।
मधु लिमये झल्लाते हुए उनके चैंबर में गए और बोले, ‘आज बहुत बड़ा गुनाह हो गया है। आप सारे रिकॉर्ड्स मंगवा कर देखिए। मनी बिल तो पेश ही नहीं किया गया। अगर ऐसा हुआ है तो आज 12 बजे के बाद सरकार का सारा काम रुक जाएगा और सरकार का कोई भी मुकदमा एक भी पैसा नहीं खर्च कर पाएगा।
जब स्पीकर ने सारी प्रोसीडिंग्स मंगवा कर देखी तो पता चला कि धन विधेयक तो वाकई पेश ही नहीं हुआ था। वह घबरा गए, क्योंकि सदन तो स्थगित हो चुका था।
तब मधु लिमये ने कहा- ‘ये अब भी पेश हो सकता है। आप तत्काल विरोधी पक्ष के नेताओं को बुलवाएं।’ उसी समय रेडियो पर घोषणा करवाई गई कि संसद की तुरंत एक बैठक बुलवाई गई है, जो जहां भी है तुरंत संसद पहुंच जाए। संसद रात में बैठी और इस तरह धन विधेयक पास हुआ।
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जब मधु लिमये को कहा गया, बम्बइया
जब मधु लिमये बिहार के बांका से चुनाव लड़ रहे थे, तो तत्कालीन मुख्यमंत्री व कांग्रेसी नेता दारोगा राय ने क्षेत्रवाद का विचित्र स्वरूप पेश करते हुए विरोध करना शुरू किया। वे अपनी सभाओं में बोलते थे- ‘मधु लिमये, बम्बइया’।
इस पर लिमये जी के मित्र जॉर्ज साहब ने धारदार भाषण दिया था और चुटकी ली थी- “ग़नीमत है कि दारोगा जी चम्पारण आंदोलन के वक़्त परिदृश्य में नहीं थे, नहीं तो ये गांधीजी को तो बिहार की सीमा में घुसने ही नहीं देते। अच्छा हुआ कि श्रीमान त्रेता युग में पैदा नहीं हुए, नहीं तो ये अयोध्या के राम की शादी जनकपुर (नेपाल) की सीता से कभी होने ही नहीं देते। मुझे तो कभी-कभी चिंता होती है कि दारोगा जी का यही रवैया रहा तो लोग दूसरे गांव जाकर विवाह ही नहीं कर पाएंगे और आधे युवक-युवती कुंवारे रह जाएंगे।
यह क्षेत्रवाद का ज़हर हमें रसातल में पहुंचा देगा।’ बस, मधु लिमये के पक्ष में ग़ज़ब के जनसमर्थन का माहौल बना और उन्होंने दो बार (1971 का उपचुनाव और 1977 का आम चुनाव) इस संसदीय क्षेत्र की नुमाइंदगी की।
मधु लिमये जब संसद-सदस्य नहीं रहे और ह्रदय तथा सम्बन्धी बीमारियों से ग्रस्त रहे, उस दौर में वह नयी दिल्ली में पंडारा रोड पर एक छोटे से आवास में निहायत सादगी से रहते थे। देश के पत्र-पत्रिकाओं में वह वर्तमान समस्याओं पर लिखते रहते थे और उसी पारिश्रमिक से अपना जीवन चलाते थे।
किन्तु जीवन के अंतिम सांस तक उनका राजनैतिक विवेक जरा सा भी मद्धिम नहीं पड़ा और न वह किसी के दवाब या प्रभाव में आये। चाहे प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह हो अथवा चन्द्रशेखर या जार्ज फर्नांडीज हो अथवा जनेश्वर मिश्र या मुलायम सिंह यादव सभी उनके परामर्श लेने आते थे वह उन्हें सही राय देते रहते थे, चाहे उसे कोई माने ना माने।
मधु लिमये लोहिया के अनुगामियों में सबसे प्रखर चिंतनशील, आचरण सम्पन्न और राजनीतिक विवेक से परिपूर्ण व्यक्ति थे। उनके निधन के साथ जैसे लोहिया विचारधारा का एक प्रमुख स्तम्भ दह गया।
संदर्भ
रामकमल राय, राममनोहर लोहिया और आचरण की भाषा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2008
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में