खरसावाँ : आज़ाद भारत का जालियाँवाला बाग़ कांड
जब सारी दुनिया एक जनवरी को नया साल मनाती है तो झारखंड के सीने में 74 साल पुरानी एक टीस उभर आती है – खरसावाँ नरसंहार की टीस जिसके मृतकों की संख्या आज तक किसी को नहीं पता है।
क्या था मामला?
आज़ादी के पहले तक खरसावाँ एक छोटा सा आज़ाद स्टेट था। उड़ीसा या बिहार में मिलने की जगह सिंहभूम के आदिवासी लंबे समय से आदिवासी राज्य की मांग कर रहे थे। 1938 में जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में गठित ‘आदिवासी महासभा’ इसके लिए सक्रिय थी। सिंहभूम के आदिवासी समुदायों द्वारा 25 दिसम्बर 1947 को चंद्रपुर जोजोडीह में नदी किनारे एक सभा आयोजित की गयी थी, जिसमें तय किया गया कि सिंहभूम को उड़ीसा राज्य में न रखा जाय। बल्कि इसे अलग झारखंड राज्य के रूप में रखा जाए।
लेकिन खरसावाँ और सरायकेला के राजाओं ने उड़ीसा राज्य में मिलने की सहमति दे दी तो आदिवासियों ने विरोध का निश्चय किया। तय किया गया कि एक जनवरी को खरसवां के बाजारटांड़ में सभा का आयोजन किया जायेगा, जिसमें जयपाल सिंह मुंडा भी शमिल होंगे। जयपाल सिंह को सुनने के लिए तीन दिन पहले से ही चक्रधरपुर, चाईबासा, जमशेदपुर, खरसवां, सराकेला के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र के लोग सभास्थल की ओर निकल पड़े थे। सभा में शामिल होने वाले लोग अपने साथ सिर पर लकड़ी की गठरी, चावल, खाना बनाने का सामान, डेगची-बर्तन भी लेकर आए थे। आदिवासी झारखंड राज्य के निर्माण के लिए कटिबद्ध थे।
लेकिन अंग्रेजों ने 1936 में ईस्टर्न स्टेट एजेंसी के तहत इन दो रियासतों सहित 24 और रियासतों को उड़ीसा राज्य के तहत रखा था और अब जब 1 जनवरी। 1948 को उड़ीसा रियासत भारत का हिस्सा बनने जा रही थी तो वह इन्हें अपने ही राज्य में रखना चाहती थी। उसकी नज़र समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों और खनिजों पर थी।
उड़ीसा की साजिश
एक जनवरी 1948 के दिन गुरूवार को हाट-बाजार था। आस-पास की महिलायें भी बाजार करने के लिए आई थीं। वहीं दूर-दूर से आये बच्चों एवं पुरूषों के हाथों में पारंपरिक हथियार और तीर धनुष से लैस थे। रास्ते में सारे लोग नारे लगाते जा रहे थे और आजादी के गीत भी गाये जा रहे थे। एक ओर राजा के निर्णय के खिलाफ पूरा कोल्हान सुलग रहा था, दूसरी ओर सिंहभूम को उड़ीसा राज्य में मिलाने के लिए, उड़ीसा भी अपना षडयंत्र रच चुका था।
उड़ीसा राज्य प्रशासन ने पुलिस को खरसावां भेज दिया, जो चुपचाप मुख्य सड़कों से न होकर अन्य रास्ते से अंधेरे में 18 दिसम्बर 1947 को ही सशस्त्रबलों की तीन कंपनियां खरसावां मिडिल स्कूल पहुंची हुई थी। सीधे-सादे आदिवासी इस षडयंत्र को नहीं समझ सके और अलग राज्य की परिकल्पना लिए ये स्वतंत्रता के मतवाले इस षडयंत्र से बेखबर अपनी तैयारी में लगे रहे। आदिवासी जनमानस ‘जय झारखंड’ का नारा लगाने के साथ-साथ ही उड़ीसा के मुख्यंमत्री के खिलाफ भी नारा लगा रहा था।
और फिर नरसंहार
भारी संख्या में आदिवासी एकत्र हो गए। जयपाल सिंह मुंडा नहीं पहुँचे। उधर पुलिस ने मशीनगन से एक लाइन खींच कर आदिवासियों को उसके आगे नहीं आने को कहा।
उत्सव जैसा माहौल था कि अचानक गोलियाँ चलने लगीं। भगदड़ मच गई। हर तरफ़ लाशें ही लाशें। निहत्थे आदिवासियों का यह नरसंहार आज़ाद भारत के इतिहास पर एक भयावह धब्बा है। बाद में पास के एक कुएं में फेंक दी गई लाशें। 3 जनवरी 1948 को अंग्रेजी के अख़बार द स्टेट्समैन ने 35 आदिवासियों की मौत की ख़बर छापी। लेकिन लोगों का मानना है कि मरने वालों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा थी। स्वतंत्र भारत में पहली बार यहाँ मार्शल लॉ थोप दिया गया।
नहीं हुआ सफल उड़ीसा
इस हत्याकांड की जाँच के लिए आयोग भी बने लेकिन कुछ निकलकर बाहर नहीं आया। हालाँकि उड़ीसा भी अपने मक़सद में कामयाब नहीं हो पाया।
बुदकर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर इस इलाक़े को 18 मई 1948 में बिहार राज्य में शामिल किया गया। फिर जब 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य बना तो ये इलाक़े झारखंड के हिस्सा बने तथा खरसावाँ-सरायकेला ज़िला बनाया गया। इन शहीदों की याद में भव्य स्मारक बना जहाँ हर साल 1 जनवरी को जलसा होता है।