जन्मदिन विशेष: आनंदीबाई जोशी
अभिभावक – गणपत राव और गंगाबाईजोशी
जन्म नाम यमुना
31 मार्च 1865 को पुणे में जन्म
31 मार्च 1874 को गोपाल विनायक जोशी से विवाह
विवाह के बाद नाम आनंदीबाईजोशी
7 अप्रैल 1883 को कोलकाता से न्यूयॉर्क के लिए रवाना हुई पहली हाई कास्ट हिंदू महिला
4 जून 1883 को अमरीका पहुँची
11 मार्च 1886 को पहली भारतीय महिला बनी जिसे डॉक्टरी की डिग्री अवार्ड हुई
1 जून 1886 को कोल्हापुर के एडवर्ड अस्पताल के महिला विभाग में नियुक्ति भी हो गई
9 अक्तूबर 1886 को न्यूयॉर्क से भारत के लिए वापस चली
26 फरवरी 1887 को पुणे में प्राणांत
यह लघु लेकिन विराट जीवन है आनंदी बाई जोशी का जिन्हें भारत की पहली महिला डॉक्टर के रूप में इतिहास में दर्ज किया गया है। आनंदी बाई जोशी, रमाबाई की रिश्ते में बहन लगती थीं।अप्रैल 1883 के महीने में ही ये दोनों स्त्रियाँ डॉक्टरी की पढाई करने समुद्र पार की यात्रा पर अलग-अलग दिन अलग-अलग बंदरगाह से अलग-अलग गंतव्य के लिए निकल पड़ीं। 7 अप्रैल को आनंदीबाईजोशी कलकत्ता से अमेरिका और 20 अप्रैल 1883 को रमाबाईइंग्लैंड के लिए मुम्बई से रवाना हुई।
डॉक्टर बनने का स्वप्न और समाज की रूढ़ियाँ
आनंदी पुणे में जन्मी थी। पति गोपाल जोशी ने अपना तबादला कोलकाता करवा लिया था। पत्नी को शिक्षित कराने के बाद उसकी कुछ बड़ी उम्मीदें थीं। डाक विभाग का मुख्यालयकोलकाता में था जिसमें गोपाल जोशी की नौकरी थी।गोपाल और आनंदी को उम्मीद थी कि यहाँ उन्हें बिना मिशनरियों की सहायता के, यूरोपीय लोगों की मदद से आनंदीबाई को डॉक्टरी के लिए अमरीका भेजने का मौक़ा मिल पाएगा। कलकत्ता आने के शुरुआती दिन उनके अनुभव अच्छे नहीं रहे लेकिन धीरे-धीरे दिल रमने लगा और वहाँ चितपावन ब्राह्मण परिवारों में भी सहज आना-जाना हो गया।
अपेक्षा के विपरीत आनंदीबाई को कलकत्ता के समाज की ही नहीं उन मराठी परिवारों की भी नाराज़गी झेलनी पड़ी जिनसे अभी तक मेल-जोल रहा था और जिन्होंने बीमारी में आनंदी की सहायता की थी। गोपाल जोशी आनंदी के सहारे ही समाज-सुधार के क्षेत्र में अपनी उम्मीदों को पूरा कर लेना चाहता था। पहले तय हुआ था कि पति-पत्नी दोनों अमेरिका जाएँगे लेकिन अपने परिवार को आर्थिक रूप से सम्भालने की ज़िम्मेदारी थी गोपाल पर और इस बात का क्या मुक़ाबला हो सकता था कि आनंदी अकेली जाती और एक नज़ीर बनती कि एक ब्राह्मण स्त्री अकेली समुद्र पार करके गई।[1]
आनंदी विदुषी तो थी ही, प्रखर भी थी। उसकी अंग्रेज़ी की तारीफ़ ख़ुद मिस आना थोबर्न करती हैं, जिनके सहारे अमेरिका की यह योजना सफल हो पाई थी।[2] समुद्र पार करने की तैयारी का पता लगते ही समाज में एक रोष फैल गया। लोग उनके घर के बाहर इकट्ठे होकर विरोध करने लगे।[3] आनंदी ने ठाना कि वह एक ही बार इन सब का जवाब देगी और वह भी सार्वजनिक। 24 फरवरी 1883 को श्रीरामपुर (या सेरामपुर) में एक कॉलेजहॉल में विशाल जनसभा के बीच आनंदी का भाषण ‘मैं अमेरिका क्यों जा रही हूँ?’रखा गया। इस भाषण में उसने अपने अमेरिका जाने को लेकर उठने वाले सवालों का एक-एक करके जवाब दिया।
यह हैरान होने वाली बात नहीं है कि आनंदीबाई ने भी लगभग वही कारण बताए जो हंटर कमीशन के समक्ष रमाबाई ने अपनी गवाही में दिए थे। उसने कहा कि भारतीय महिलाएँ पुरुष डॉक्टरों के सामने अपनी बात कहने में हिचकती हैं और इस वजह से उन्हें इलाज नहीं मिल पाता। उसने बताया कि भारत में सिर्फ एक मेडिकलकॉलेज है महिलाओं के लिए मद्रास में और इसके अलावा सिर्फ़ दाई बनने के कोर्स हैं जो कि नाकाफ़ी है इस स्त्री-शिक्षा का पूरा विचार दोषपूर्ण है। भारत में महिला डॉक्टरों का अभाव एक हक़ीकत है और मैं स्वेच्छा से इस सेवा-कार्य में ख़ुद को समर्पित करना चाहती हूँ। लेकिन सबसे मज़ेदार था कि आनंदी ने उसी तरह शिक्षा में पुरुष ईर्ष्या और पितृसत्ता को रेखांकित किया जैसे कि रमाबाई ने हंटर कमीशन को दिए अपने जवाबों में निर्भय होकर लक्षित किया था।
आनंदी कहती है-
साथ ही, इनमें जाने वाली गैर-ईसाई और गैर-ब्रह्मो महिलाओं का उत्पीड़नभी काफी होता है। और वह (पुरुष )प्रशिक्षक जो पढ़ाते हैंरूढ़िवादी और कुछ हद तक ईर्ष्यालु होते हैं। . . . यह पुरुष लिंगकी विशेषता है। हमें इस असुविधा को सहना होगाजब तक कि हमारे पास इन पुरुषों को इस भार से मुक्त करने के लिए शिक्षित महिलाओं का एक वर्ग तैयार नहीं हो जाता।[4]
रमाबाई हंटर कमीशन के सामने स्कूलों में आने वाले पुरुष निरीक्षकों की ईर्ष्या और स्त्रियों के प्रति उनके विद्वेष की बात की थी। यह समझना कतई मुश्किल नहीं कि शिक्षण, प्रशिक्षण, समाज सुधार, स्वास्थ्य, चिकित्सा, राजनीति सब पुरुषों के इलाक़े थे और ये स्त्रियाँ जो कर रही थीं वह इसी एकछत्र राज में सेंधमारी की तरह था। स्वाभाविक है कि इन स्त्रियों ने पुरुष ईर्ष्या (या आज जो हमारे पास एक बेहतर शब्द है- मिसोजिनी, स्त्री-द्वेष) को महसूस किया था।
रिज़ल्ट आने के पहले ही पहली नियुक्ति हो गई
आनंदीबाई होशियार विद्यार्थी थी। सफलतापूर्वक उसने डॉक्टरी की पढाई पूरी की और परिणाम आने से पहले ही दो भारतीय राज्यों से उसे नौकरी के प्रस्ताव मिल गए थे। कोल्हापुर के नवाब ने तीन सौ रुपए महीना और रहने के इंतज़ाम के साथ यह प्रस्ताव भेजा था जिसमें समय-समय पर उसकी तनख़्वाह बढने का आश्वासन भी था। बस शर्त यही थी कि वह राज परिवार की महिलाओं को देखने की फीस नहीं लेगी। इसपर आनंदीबाई ने जवाब लिखा कि सारी शर्तें मंज़ूर हैं लेकिन यह करना मेरे लिए मुश्किल है क्योंकि मेरे शास्त्र इसकी इजाज़त नहीं देते कि मैं ग़रीबों से फीस लूँ और अमीरों को मुफ़्त देखूँ।
आनंदीबाई एक प्रखर महिला थीं, लेकिन उनके पति गोपाल जोशी निरंतर एक एहसास-ए-कमतरी से जूझ रहे थे। इसी एहसास और ज़िद के चलते लगातार ख़राब स्वास्थ्य में भी आनंदीबाई ने अकेले अमेरिका की यात्रा की और इसी अवस्था में चार साल पढाई भी। रमाबाई की तरह आनंदीबाई के दीक्षांत समारोह के लिए गोपाल जोशी भी अमेरिका आ गए थे।
हिंदू जा रही हूँ हिंदू ही लौटूंगी
रमाबाई के आने का आनंदी ने बेसब्री से इंतज़ार किया था। ख़राब मौसम की वजह से दो दिन उसका जहाज़ तट पर नहीं आ पाया था। लेकिन जब वे मिलीं तो एक दूसरे के लिए सम्मान और प्यार के साथ। अद्भुत रहा होगा रिश्ते की इन दो प्रखर बहनों का पहली बार अमेरिका में मिलना जब दोनों ही अपने क्षेत्र में ख्याति पा चुकी थीं। आनंदी रमाबाई का परिचय देते हुए एक खत में लिखती है-
वह सूरज की तरह रौशन है और ग़ुलाब की कली की तरह ताज़ा और मधुर। उसने अपनी माँ को ज़रूर बहुत सुख पहुँचाया होगा, वह स्त्री जिसने बहुत कुछ सहा इस दुनिया में। उसे पालने-पोसने वालों के दिल सम्वेदनशील थे और प्यार से भरे थे। वह ऐसी महिला है जिसकी भावनाएँ कोमल हैं, इतनी कोमल जैसे फूल, पीड़ा से अधीर,लेकिन इस कठोर और सबसे बहादुर योद्धा का साहस उस पीड़ा पर भारी है। उसने मेरे दिल को सच्ची ख़ुशी से भर दिया है। मैं यकीन से कह सकती हूँ कि आप उसे पसंद करेंगी जब उससे मिलेंगी।[5]
फिर भी दोनों में बड़ा अंतर था। आनंदीबाई ऊँची जाति के हिंदुओं की भावनाओं को एक हद के बाद आहत करने का सोच भी नहीं सकती थी। वह इस इरादे के साथ गई थी कि ‘हिंदू जा रही हूँ हिंदू ही लौटूंगी’, यहाँ तक कि भारत में बाल-विवाह पर टिप्पणी करने से भी वह बची।[6] मनु का नाम वह अपने प्रिय कवि की तरह लेती है।[7] शायद वह विदेशियों के बीच हिंदू धर्म की बुराई के बारे में बात करने से बचना चाहती थी। इस बात का भी मिस बॉडले के मन में सम्मान था। इस बात के लिए गोपाल जोशी का सख़्त स्वभाव भी एक वजह रही होगी क्योंकि अमेरिका आने पर वह लगातार होने वाली बैठकों, आयोजनों में आनंदी के अमेरिकी मित्रों के सामने ही उनके रिवाज़ों के ख़िलाफ़ बोला करता था जिससे ख़ुद आनंदी असहज हो जाती थी।[8]
अपने धर्म और रिवाज़ों पर टिप्पणी को लेकर अगर कोई इतना गम्भीर हो तो उसे भी दूसरों पर ऐसी टिप्पणियाँ करने से बचना चाहिए या फिर सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए। वह लगातार हमलावर था और यह नहीं देख पा रहा था कि मिस बॉडले की वजह से आनंदी अब तक भी जीवित थी।[9] आनंदी को वह ख़ूब सब्ज़ियाँ और फल उपलब्ध करवाती थीं और जबकि हर डॉक्टर ने कह दिया था कि उसे माँसाहार और सूप की ज़रूरत है, वह इस ज़िद का पालन करना चाहती थी। 14 की आयु में आनंदी को एक बेटा हुआ था जो मात्र दस दिन जीवित रहा। भारतीय महिला चिकित्सकों का ही अभाव था जिसके कारण आनंदी की उसी समय ठीक देखभाल नहीं हो पाई। तभी से वह लगातार बीमार रहने लगी।
दीक्षांत समारोह: ऐतिहासिक पल
11 मार्च को संगीत अकादमी के हॉल में आनंदी का दीक्षांत समारोह होना था जहाँ तीन हज़ार लोग उपस्थित थे। लोग सीढियों पर बैठे थे, दीवारों से लगकर खड़े थे। आनंदीबाई, रमाबाई और उसकी चार साल की बेटी स्टेज के एकदम पास ही बैठे थे कि सबको दिख जाएँ। आनंदी ने सुनहरे बॉर्डर की सफेद साड़ी पहनी थी और उसका स्त्रियोचित सौंदर्य उभर कर आ रहा था[10] मंच से सम्बोधन के बीच बार-बार आनंदी का नाम आ रहा था, सबकी निगाहें उसपर टिकी थीं। आनंदी को बहुत सा धन, किताबें, फूल, कीमती तोहफ़े मिले जिनसे वह आगे अपना काम जारी रख सके। रमाबाई अपनी सफ़ेद साड़ी में थी। उस कार्यक्रम में उपस्थित कैरोलीन हेली डाल लिखती हैं-
मैंने आनंदाबाई, रमाबाई और उसकी बच्ची को देखा। रमाबाई बेहद ख़ूबसूरत है। उसका चेहरा स्पष्ट अंडाकार है; आँखें बड़ी और गहरी। वह ब्रूनेट[11] है लेकिन उसके गाल रंग से भरे हुए हैं। उसकी सफ़ेद विधवाओं वाली साड़ी उसके सिर के ऊपर खींचकर उसकी ठुड्डी के नीचे बांधी जाती है। इसके अलावा ऐसा कुछ नहीं उसमें जिससे वह हिंदू लगे। मैंने आनंदाबाई से बारीकी से पूछताछ की कि क्या मिश्रित रक्त होने की भी सम्भावना है? उसने हामी भरी कि मराठा रक्त में कश्मीरी रक्त का मेल होता रहा है।[12]
गोपाल का मुच्छ्ड़ व्यवहार और आनंदी की असहजता
एक-दो दिन बाद रमाबाई और आनंदीबाई को सेंचुरी क्लब में न्यौता दिया गया और यह मेल-जोल, मनोरंजन कई दिन तक चला। कई जगह से इसी तरह के न्यौते आते थे शहर और शहर से बाहर से। गोपाल जोशी की उपस्थिति में आनंदी का बदलाव, असहज होना, स्पष्ट दिखता था।[13] इसके पहले भी जब एक बार गोपाल राव जोशी अमेरिका आया था तब इस बात से ख़फा हो गया था कि आनंदी अब पहले की तरह मराठी नहीं बोल पा रही थी। वह इतना क्रोधित था कि उसने आनंदी को कहा अब तुम्हें भारत लौटने का कोई हक़ नहीं, तुम अपने देश से प्यार नहीं करतीं।[14] अपमानित आनंदी घुटती थी, चुप रह जाती थी।
उसका साड़ियाँ, ब्लाउज़, तोहफे लाना और आमतौर पर पत्नियों को जो जगह दी जाती है उससे बेहतर पायदान पर आनंदी को लाकर खड़ा करना मानो ऐसे एहसान थे जिनके आगे वह बोलना नहीं चाहती थी। इससे सिर्फ़ यह समझ आता है कि जिस वर्ग का आप उत्थान देखना चाहते हैं उसका रिंग मास्टर नहीं, सहायक होना ज़रूरी होता है। निश्चित ही गोपाल ने एक ज़मीन दी आनंदी को विकास के लिए लेकिन उसके विकास के ज़रिए अपनी टोपी में पंख जोड़ने की इच्छा का अधिक प्रबल होना उसके बार-बार फैसलाकुन और क्रूर होने की वजह बनता है।
क्या यह काव्य-न्याय था कि यही गोपाल जोशी 1991 में ख़ुद ईसाई बन गया?
आनंदी का बीमार होते जाना: काल की आहट
अक्तूबर 1886 में रमाबाई आनंदी और गोपाल के भारत लौटने की तैयारियों में व्यस्त थी। आनंदी की तबियत अब लगातार ख़राब रहती थी। खाँसी, साँस फूलना, अनियंत्रित सर दर्द, ज़ुकाम और कमज़ोरी से वह पीली पड़ गई थी। 9 अक्तूबर 1886 को जब वह वापसी के लिए चली तो रमाबाई उसे छोड़ने स्टेशन तक गई थी। 17 नवम्बर 1886 को आनंदी भारत पहुँची और 26 फरवरी 1887 को पुणे में उसकी मृत्यु हो गई। 2 मार्च 1887 को रमाबाई ने ज्ञान चक्षु के लिए एक लेख लिया आनंदी बाई पर। उसका एक अंश है-
हालाँकि आनंदीबाई इतनी छोटी थीं, उनकी दृढ़ता, उनके अदम्य साहस और अपने पति के प्रति समर्पण अद्वितीय थे। हमें उसके जैसी महिला को देखने में बहुत समय लगेगा। उसने जो शिक्षा प्राप्त की थी, उसने उसके स्वभाव को बहुत ऊँचा कर दिया था और उसके मन को वश में कर लिया था। यद्यपि वह शब्दों से अधिक पीड़ित थी, उसकी नश्वर बीमारी से, जो खपत थी, उसके होंठों से सहानुभूति या अधीरता का एक शब्द भी नहीं बच पाया। महीनों की भयानक पीड़ा के बाद, वह इतनी कम हो गई थी कि कोई भी उसे बिना दर्द के नहीं देख सकता था; यह बताना अद्भुत है, आनंदीबाई ने चुपचाप और खुशी से पीड़ित होना अपना वर्तमान कर्तव्य समझा।[15] मृत्यु के समय उसकी उम्र थी उसकी उम्र थी 21 साल 11 महीना। वह रमाबाई से सात साल छोटी थी।
अमेरिका में दफनाई गई राख
गोपाल ने अमेरिकी मित्रों को बताया था कि हिंदुस्तानियों ने दाह संस्कार के बाद राख को चारों दिशाओं के सुपुर्द कर दिया जाता है। लेकिन वह अपने सम्बंधियों और मित्रों के ख़िलाफ़ जाकर आनंदी की राख को एक बक्से में अमेरिका ला रहा है।
Eighmie Cemetery, Poughkeepsie में उसकी राख को दबा कर आनंदी की याद में वहाँ एक पत्थर लगाया गया।
गोपाल जोशी : वह नीच निकला
‘पुणे वैभव’ने यह अफ़वाह उड़ा दी कि गोपाल राव जोशी (आनंदीबाईजोशी के पति) ईसाई हो गया है और रमाबाई और वह विवाह करने वाले हैं।[16]
इस अख़बार के ख़िलाफ़ रमाबाई ने मानहानि का मुकदमा किया। इस मुकदमे में रमाबाई की ओर से गवाह थे सी.एनभट, आर.जी.भंडारकर, श्रद्धेय मिस्टर फॉक्स, श्री किरखम और गोपाल गणेश अगरकर। प्रसिद्ध वकीलों ने यह मुकदमा लड़ा और अदालत की फटकार पर पुणे वैभव को बिना शर्त सार्वजनिक माफ़ी माँगनी पड़ी।[17]
जुलाई 1891 के जिस ख़त में रमा ने सिस्टरजेरल्डीन को यह सूचना दी थी कि गोपाल विनायक जोशी का बप्तिस्मा हो गया है और उम्मीद की थी कि वह एक अच्छे ईसाई बनेंगे हालाँकि सुना है कि वह अभी भी यज्ञोपवीत धारण करते हैं; उसी ख़त के नीचे रमाबाई की चिट्ठियों का संकलन करते हुए सिस्टरजेरल्डीन ने लिखा- वह नीच निकला।[18]
सम्वेदनशील स्त्री आनंदी
आनंदी को जैसे ही ख़बर मिली कि रमाबाई के पति की मृत्यु हो गई है, उसने रमा को ख़त लिखा और अपने घर आ जाने को कहा।[19]रमाबाई जिस अवसाद में रही होगी उसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसने इस ख़त का जवाब तक नहीं दिया। अपने लिए कुछ मांगना, पैसा या मदद या दया रमा के स्वभाव में ही नहीं था। लेकिन वह भूली नहीं आनंदी के आगे बढकर इस तरह मदद देने के प्रस्ताव को। आभार तो उस स्त्री का भी बचपन में मन में ही मान लिया था रमा ने जिसने बाजरी दी।
बाद में रमा ने आनंदी के लिए लिखा –
मैं उसके (आनंदी बाई) प्रति बेहद कृतज्ञ हूँ क्योंकि इस पूरे देश में वह इकलौती ऐसी व्यक्ति थी जिसने मेरे बारे में सोचा जबकि मेरे अपने लोगों की नज़र में मैं विधर्मी हो चुकी थी। मैं कभी उसकी यह दयालुता भूल नहीं पाऊंगी।[20]
बाल-विवाह फिर भी है तो एक गुनाह ही
भले ही गोपाल ने आनंदी को पढने के अवसर दिए और निश्चित ही इसके लिए समाज के ताने भी सुने। आनंदी ने इतिहास में डॉक्टरी की डिग्री लेने वाली पहली भारतीय महिला का खिताब ले भी लिया लेकिन 9 साल की उम्र विवाह की उम्र कैसे सही ठहराई जा सकती है?
मेडिकल प्रैक्टिस करने वाली पहली महिला
आनंदी भारत लौटने के बाद कुछ माह में चल बसी। लेकिन डॉक्टरी की प्रैक्टिस करने वाली पहली महिला डॉक्टर बनीं कादम्बिनी गांगुली जिन्होंने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए भी संघर्ष किया था। इसके बाद नाम आता है रख्माबाई राउत का जिन्होंने कंसेंट के मुकदमे के बाद डॉक्टरी की पढाई की और बाकी का जीवन चुपचाप इसी प्रैक्टिस में बिताया।
स्रोत
[1]देखें, पेज-85, अ फ्रैगमेंटेड फेमिनिज़्म लाइफ़ एंड लेटर्स ऑफ आनंदीबाईजोशी, मीरा कोसाम्बी, सं- राम रामास्वामी, माधवी कोल्हत्कर, अबनमुखर्जी, रूटलेज, 2020
[2]देखें, पेज- 88, अ फ्रैगमेंटेड फेमिनिज़्म लाइफ़ एंड लेटर्स ऑफ आनंदीबाईजोशी, मीरा कोसाम्बी, सं- राम रामास्वामी, माधवी कोल्हत्कर, अबनमुखर्जी, रूटलेज, 2020
[3]देखें, पेज-91, अ फ्रैगमेंटेड फेमिनिज़्म लाइफ़ एंड लेटर्स ऑफ आनंदीबाईजोशी, मीरा कोसाम्बी, सं- राम रामास्वामी, माधवी कोल्हत्कर, अबनमुखर्जी, रूटलेज, 2020
[4]देखें, पेज-91, अ फ्रैगमेंटेड फेमिनिज़्म लाइफ़ एंड लेटर्स ऑफ आनंदीबाईजोशी, मीरा कोसाम्बी, सं- राम रामास्वामी, माधवी कोल्हत्कर, अबनमुखर्जी, रूटलेज, 2020
[5]देखें, पेज- 129, लाइफ़ ऑफ आनंदाबाईजोशी, कैरोलीन हेली डाल, रॉबर्ट्सब्रदर्स, बॉस्टन, 1888
[6]देखें, पेज- iv, पंडिता रमाबाई की किताब द हाई कास्ट हिंदू वुमन की मिस बॉडले द्वारा लिखित भूमिका
[7]पोप, मनु और कालिदास- देखें, पेज- xi, लाइफ़ ऑफ आनंदाबाईजोशी, कैरोलीन हेली डाल, रॉबर्ट्सब्रदर्स, बॉस्टन, 1888
[8]वह ग़लत दरवाज़े से अमेरिका आ गया था। उसने बहुत कम देखा था और सोचता था कि सब जानता है- कैरोलीन हेली डाल, देखें, पेज-139, लाइफ़ ऑफ आनंदीबाईजोशी, , रॉबर्ट्सब्रदर्स, बॉस्टन, 1888
[9]देखें, पेज- 139,लाइफ़ ऑफ आनंदाबाईजोशी, कैरोलीन हेली डाल, रॉबर्ट्सब्रदर्स, बॉस्टन, 1888
[10]देखें, पेज- 134, लाइफ़ ऑफ आनंदाबाईजोशी, कैरोलीन हेली डाल, रॉबर्ट्सब्रदर्स, बॉस्टन, 1888
[11]श्वेत महिला जिसके बाल काले हों
[12]देखें, पेज- 130,लाइफ़ ऑफ आनंदाबाईजोशी, कैरोलीन हेली डाल, रॉबर्ट्सब्रदर्स, बॉस्टन, 1888
[13]मैं उसके बारे में बहुत पीड़ा से बता रही हूँ क्योंकि आनंदी उसे बहुत प्यार करती है, लेकिन उसके जीवन के बारे में सच्चाई से लिखना असम्भव है उस उलझन का संकेत दिए बिना जो उसकी (गोपाल जोशी की) उपस्थिति की वजह से आनंदी के दैनिक जीवन में आ गई थी- देखें, पेज- 137,लाइफ़ ऑफ आनंदाबाईजोशी, कैरोलीन हेली डाल, रॉबर्ट्सब्रदर्स, बॉस्टन, 1888
[14]देखें, पेज-192,193, रैडिकलस्पिरिट्स, इंडियाज़फर्स्टवुमेनडॉक्तर एंड हर अमेरिकनचैम्पियंस, स्टोरीआर्टिसन प्रेस, 2020
[15]देखें, पेज- 184-185, ,लाइफ़ ऑफ आनंदाबाईजोशी, कैरोलीन हेली डाल, रॉबर्ट्सब्रदर्स, बॉस्टन, 1888
[16]देखें, पेज-184, पंडिता रमाबाईलाइड एंड लैंडमार्कराइटिंग्स, मीरा कोसाम्बी, रुटलेज, 2016
[17]इंदु प्रकाश, 3 अगस्त, 1891 से पंडिता रमाबाईलाइड एंड लैंडमार्कराइटिंग्स, मीरा कोसाम्बी, रुटलेज, 2016 से उद्धृत पेज- 184 पर
[18]देखें, पेज- 263, द लेटर्स एंड कॉरेसपॉन्डेंस ऑफ पंडिता रमाबाई, सिस्टरजेरल्डीन द्वारा संकलित, सं-ए.बी.शाह, महाराष्ट्र स्टेटबोर्डफॉरलिट्रेचर एंड कल्चर, बॉम्बे, 1977
[19]देखें, पेज-81, रैडिकलस्पिरिट्स, नंदिनी पटवर्द्धन, स्टोरीआर्टिसन प्रेस, 2020
[20]देखें, पेज-81, रैडिकलस्पिरिट्स, नंदिनी पटवर्द्धन, स्टोरीआर्टिसन प्रेस, 2020
सुजाता दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं। कवि, उपन्यासकार और आलोचक। ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान। हाल ही में लिखी पंडिता रमाबाई की जीवनी, ‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’ खूब चर्चा में है।