भगत सिंह की फांसी के ख़िलाफ़ जेल जाने वालीं नेहरू की भतीजी : मनमोहिनी सहगल
[आज़ादी की लड़ाई सिर्फ़ कुछ नायकों की नहीं। महिलाओं ने इसमें बढ़-चढ़ के भागीदारी की थी। ऐसी ही एक नायिका मनमोहिनी सहगल के बारे में बता रही हैं सुजाता।]
आज़ादी का आंदोलन राष्ट्रवाद की पाठशाला तो बन ही गया था लेकिन इसके साथ स्त्रियों के लिए अपने जीवन में तमाम नए आयामों को जानने और ख़ुद कि सामर्थ्य को परखने का भी एक मौक़ा था।
वैसे भी आंदोलन स्त्रियों को मज़बूत व आज़ाद करते हैं और स्त्रियाँ आंदोलनों को मज़बूत करती हैं.
गेराल्डाइन फोर्ब्स की किताब इंडियन विमेन एंड द फ्रीडम मूवमेंट: अ हिस्टॉरियंस पर्स्पेक्टिव में मनमोहिनी ज़ुत्शी सहगल का एक संस्मरणात्मक लेख शामिल है- आय एम अर्रेस्टेड, 1930 जो इस लिहाज़ से पढ़ा जाना चाहिए कि आज़ादी के संघर्ष के उस दौर में युवतियाँ कैसे बढ़-चढ़ कर भाग ले रही थीं और कितना कुछ सीख रही थीं।
इसलिए भी कि संघर्ष की यह विरासत जीवन और राजनीति में से धीरे-धीरे खोती चली गई। जो स्त्रियाँ बाहर निकली और जेलों में गईं, पिटीं, आज़ादी मिलने के बाद वे सब वापस घरों की ओर लौट गईं।
आनंद भवन में जन्मीं थीं मनमोहिनी
मनमोहिनी ज़ुत्शी सहगल नेहरू परिवार से सम्बन्धित थीं और इलाहाबाद में मोतीलाल नेहरू के घर पर ही पली-बढी थीं। उनकी दादी मोतीलाल नेहरू की सगी बहन थीं और उनका जन्म आनंद भवन में ही 1909 मे हुआ था। बाद में, 1917 में उनके पिता लाडली प्रसाद ज़ुत्शी लाहौर चले गए और वहाँ के नामी बैरिस्टर हुए।
इतिहास में एम ए यह लड़की 1930 में इक्कीस साल की अवस्था में पहली बार जेल गई तो ऐसे उत्साहित थी जैसे किसी बड़े उत्सव/आयोजन में शिरकत करने जा रही हो।
वह लिखती हैं-
1930 अक्तूबर की शुरुआत में स्पेशल मजिस्ट्रेट ने लाहौर षडयंत्र केस में फैसला सुनाया। भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को मौत की सज़ा सुनाई गई बाकियों को तीन से बीस साल की जेल हुई। मैं और श्यामा रोज़ सुनवाई के दौरान कोर्ट जाते थे। जनता की सहानुभूति इन युवकोंके साथ थी और भगत सिंह हमारा हीरो था।
माँ लाडो रानी के साथ तीनों बहनें, तस्वीर यहाँ से
भगत सिंह की फांसी की सज़ा के विरोध में किया आंदोलन और गिरफ़्तार हुईं
आगे वह लिखती हैं-
7 अक्तूबर 1930 की शाम, जब सज़ा सुनाई गई थी, इसकी निंदा करने के लिए एक पब्लिक मीटिंग बुलाई गई। यह मीटिंग कॉन्ग्रेस द्वारा गठित भगत सिंह डिफेंस कमिटी और लाहौर डिस्ट्रिक्ट कॉन्ग्रेस कमिटी ने बुलाई थी। पंजाब कॉन्ग्रेस के सभी टॉप लीडर, मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू और यहाँ तक कि मेरी माँ भी उस समय जेल में थे तो यह मीटिंग हमें ख़ुद ही अरेंज करनी थी।
अगले दिन यानी 8 अक्तूबर को हड़ताल करने का फ़ैसला मीटिंग में हुआ और लाहौर स्टूडेंट्स यूनियन की अध्यक्ष होने के नाते यूनिवर्सिटी में यह काम मुझे करना था।
ऐसा भारत की किसी यूनिवर्सिटी के इतिहास में नहीं हुआ था कि लड़के खड़े देखें और लड़कियाँ शैक्षणिक संस्थान का घेराव करें। अकेले यूनिवर्सिटी के गेट पर खड़े होकर इस लड़की ने कैम्पस में न जाने के लिए विद्यार्थियों को मजबूर कर दिया।
16 लड़कियाँ उस दिन लाहौर में गिरफ्तार हुईं और जेल गईं। एक सफल हड़ताल और घेराव के बाद ख़ुशी-ख़ुशी उन्होंने अपनी गिरफ़्तारी दी।
उनकी छोटी बहन श्यामा भी गिरफ्तार हुई और बड़ी बहन जनक कुमारी ज़ुत्शी ने गवर्नमेंट कॉलेज की अंग्रेज़ी की लेक्चरर की नौकरी छोड़ दी और इस आंदोलन में शामिल होकर गिरफ्तारी दी।
श्यामा फिल्मों में जाने वाली पहली कश्मीरी पंडित महिला थीं, हालांकि गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने फिल्मों में काम करना छोड़ दिया और आज़ादी के आंदोलन में शामिल हो गईं।
तीन पीढ़ियाँ एकसाथ थीं जेल में
मनमोहिनी लिखती हैं कि जब कमला नेहरू के पास फोन पहुँचा तो वे मुस्कुराती हुई हमारे घर गई और मेरे पिता को बधाई दी। जेल में ही पंडित जवाहरलाल नेहरू और मोतीलाल नेहरू भी ख़ुश हुए और हमारी गिरफ़्तारी पर बोले अब हमारी तीनों पीढ़ियाँ जेल में हैं।
गिरफ़्तार होकर इन लड़कियों को लगा जैसे उन्हें खूब इज़्ज़त बख़्शी गई है। वे देशभक्ति के गीत गा रही थीं और नारे लगा रही थीं। जेल का माहौल इन युवतियों की वजह से उत्सव सा हो गया। जेल में जो औरते थीं वे देश के लिए कुछ भी कर गुज़रने को तैयार थीं। यह गर्व का क्षण था। इसमें अफसोस क्या? जब भगत सिंह और साथी ख़ुशी-ख़ुशी फाँसी का फंदा गले में डाल सकते थे तो ये युवतियाँ भी अपनी चुन्नियाँ बसंती रंगवा आई थीं।
जेल में किताबें पढ़ना, उर्दू सीखना, कढ़ाई करना और औरतों का आपस में मिल जुलकर देशभक्ति के गीत गाना यह सब चलता रहा कई दिन।
जब शर्मिंदा हुआ एक आंदोलनकारी महिला का पति
जेल में घटी सबसे महत्वपूर्ण वह घटना थी जिसका ज़िक्र मनमोहिनी करती हैं- जेल में ही एक स्त्री को पति का तार मिला कि मुझसे पूछे बिना तुम आंदोलन में शामिल हुईं, जेल गईं अब घर मत आना। वह स्त्री बेहद दुखी थी। आहत थी। मनमोहिनी की माँ ने उस पति तक यह संदेश पहुँचाया कि जिस बात पर तुम्हें गर्व करना चाहिए तुम मूर्खतापूर्ण व्यवहार कर रहे हो। जब वह जेल आया तब भी उसे जेल में तमाम लोगों ने लताड़ा। वह शर्मिंदा हुआ और नियमित अपनी पत्नी से मिलने जेल आने लगा।
यह भावना जो सामुदायिकता और साझेपन के बीच विकसित होती है जेल मानो इसकी पाठशाला हो गई और पूरा देश एक विश्वविद्यालय । समाज के हित होने वाले आंदोलनों में स्त्रियों की प्रतिभागिता शर्म की नहीं गर्व की बात है और यह संस्कार इस देश की परम्परा में शामिल है।
मनमोहिनी इसके बाद भी आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय रहीं और 1931-32 के बीच दो बार जेल भी गईं।
बाद में मनमोहिनी ने अमृतलाल सहगल से विवाह किया और मनमोहिनी सहगल के नाम से जानीं गईं। उनके पति केंद्र सरकार के अधिकारी थे और इसलिए उन्हें सक्रिय राजनीति को विदा कहना पड़ा, हालाँकि वह समाज सेवा के क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहीं। आज़ादी के बाद पहले लोकसभा चुनावों में उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर नई दिल्ली से चुनाव भी लड़ा लेकिन सुचेता कृपलानी के हाथों पराजित हुईं. उन्होंने अपनी एक आत्मकथा भी लिखी थी जो ऑनलाइन उपलब्ध तो है लेकिन काफ़ी मंहगी है।
उनकी मृत्यु 1994 में हुई।
स्रोत संदर्भ
- इंडियन विमेन एंड द फ्रीडम मूवमेंट: अ हिस्टॉरियंस पर्स्पेक्टिव– गेराल्डाइन फोर्ब्स, रिसर्च सेंटर फॉर विमेन स्टडीज़, एस,एन.डी.टी यूनिवर्सिटी फॉर विमेन
- स्त्री संघर्ष का इतिहास: राधा कुमार, वाणी प्रकाशन, 2014
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सुजाता दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं। कवि, उपन्यासकार और आलोचक। ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान। हाल ही में लिखी पंडिता रमाबाई की जीवनी, ‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’ खूब चर्चा में है।