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शेर अली अफ़रीदी

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक गुमनाम योद्धा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के पन्नों में शेर अली अफ़रीदी का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जाना चाहिए था, लेकिन यह गुमनाम योद्धा अपने वीरतापूर्ण कार्य के बावजूद भी इतिहास की मुख्यधारा से अलग रह गया। 11 मार्च 1872 को फांसी पर झूलने वाले इस पठान योद्धा की गाथा असाधारण है क्योंकि वे एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने ब्रिटिश भारत के वाइसराय की हत्या करने में सफलता पाई।

जन्म और परिवार

शेर अली अफ़रीदी का जन्म 1840 के दशक में वर्तमान पाकिस्तान के ख़ैबर के बीहड़ पहाड़ों में स्थित तिराह घाटी के एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनका सम्बन्ध अफ़रीदी जनजाति से था। यह जनजाति अपनी वीरता और मार्शल परंपरा के लिए प्रसिद्ध थी। शेर अली के ख़ून में भी यही स्वाभिमान और साहस मौजूद था जो आगे चलकर उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति के विरुद्ध खड़े होने की प्रेरणा देने वाला था।

ब्रिटिश सेना में सेवा

1860 के दशक में, जब भारत में ब्रिटिश शासन अपनी जड़ें मजबूत कर रहा था, शेर अली ने पंजाब पुलिस में नौकरी शुरू की। यह वही समय था जब कई अफ़रीदी युवक अपनी आजीविका के लिए ब्रिटिश सेना में शामिल हो रहे थे। शेर अली पेशावर के कमिश्नर के अधीन काम करने लगे और बाद में अंबाला की घुड़सवार रेजिमेंट का हिस्सा बने। उनकी निष्ठा और कर्तव्यपरायणता का प्रमाण यह था कि 1857 के महान विद्रोह के दौरान जब पूरा देश अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ था, तब भी उन्होंने रोहिलखंड और अवध में ब्रिटिश सेना के साथ काम किया था।

मेजर ह्यू जेम्स के अधीन घुड़सवार सैनिक के रूप में सेवा करते हुए शेर अली ने अपनी वफ़ादारी का परिचय दिया। बाद में वे रेनेल टेलर के व्यक्तिगत घुड़सवार अर्दली बन गए- यह पद किसी भी सैनिक के लिए गर्व की बात थी क्योंकि यह विश्वास और सम्मान का प्रतीक था। टेलर साहब इतने प्रभावित थे कि उन्होंने शेर अली को घोड़ा, पिस्तौल और प्रमाण-पत्र से सम्मानित किया। यूरोपीय अधिकारियों के बीच उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि टेलर परिवार ने अपने बच्चों की देखभाल तक का जिम्मा उन्हें सौंप दिया था।

क्यूँ बने अंग्रेजों के दुश्मन

1867 का वह दिन शेर अली के जीवन की दिशा बदलने वाला था। पेशावर में एक पारिवारिक विवाद ने उनके जीवन को पूरी तरह से बदल दिया। उनकी बहन के सम्मान पर आंच आई थी और पश्तून परंपरा में यह सबसे गंभीर अपराध माना जाता था। शेर अली के सामने दो रास्ते थे- या तो वे पश्तूनवाली की आचार संहिता का पालन करते और अपनी बहन के सम्मान की रक्षा करते, या फिर ब्रिटिश कानून के डर से चुप रह जाते। एक सच्चे अफ़रीदी योद्धा की तरह उन्होंने पहला रास्ता चुना और अपने रिश्तेदार हैदूर की हत्या कर दी।

शेर अली के मन में यह बात साफ थी कि उन्होंने कोई अपराध नहीं किया था- वे तो अपनी पारिवारिक मर्यादा की रक्षा कर रहे थे, जो हर पश्तून पुरुष का पहला धर्म था, लेकिन ब्रिटिश न्याय व्यवस्था इस बात को समझने को तैयार नहीं थी और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। यहीं से शेर अली के मन में अंग्रेज़ी हुकूमत से नफरत के बीज पड़े।

न्यायिक प्रक्रिया

अप्रैल 1867 को न्यायाधीश ने उन्हें मृत्युदंड की सज़ा सुनाई, बिना यह समझे कि एक पश्तून योद्धा के लिए अपनी बहन का सम्मान अपनी जान से भी कीमती होता है। अपील के बाद इस सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया और शेर अली को उस स्थान पर भेजने का आदेश दिया गया जिसका नाम सुनकर ही लोगों की रूह कांप जाती थी- कालापानी, अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह।

अंग्रेज़ सरकार के इस फैसले से शेर अली के मन में ब्रिटिश न्याय व्यवस्था के प्रति गहरा असंतोष पैदा हुआ। उन्होंने देखा था कि कैसे ब्रिटिश अधिकारी भारतीयों के साथ मनमानी करते थे, कैसे उनके अपराधों को नजरअंदाज किया जाता था, लेकिन एक हिन्दुस्तानी द्वारा अपने सम्मान की रक्षा को भी अपराध माना जाता था।

जेल में क्रांतिकारियों से मुलाकात

कालापानी में शेर अली की जिंदगी तब बदली जब उनकी मुलाकात 1857 के महान विद्रोह के कुछ महान योद्धाओं से हुई। सबसे महत्वपूर्ण मौलाना मुहम्मद जाफर थानेसरी थे जो न केवल एक विद्वान थे बल्कि 1857 के विद्रोह के लिए फ़तवा जारी करने वालों में भी शामिल रहे थे। इन महान व्यक्तित्वों के साथ बिताए गए दिनों में शेर अली की राजनीतिक समझ विकसित हुई।

जेल में विशेष स्थिति

शेर अली ने एक चतुर रणनीति बनाई। उन्होंने अपने व्यवहार को इतना अच्छा बना लिया कि जेल अधिकारियों को लगने लगा कि वे पूरी तरह से सुधर गए हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें जेल में नाई का काम करने की अनुमति मिल गई। यह काम शेर अली के लिए एक सुनहरा अवसर था क्योंकि इससे वे जेल के सबसे वरिष्ठ अधिकारियों के करीब आ सकते थे।

नाई का काम करते हुए शेर अली ब्रिटिश अधिकारियों का भरपूर विश्वास जीतने में कामयाब हो गए। उन्होंने बड़ी चतुराई से यह स्थिति हासिल की थी ताकि जब कोई उच्च अधिकारी जेल में आए तो वे उसके करीब पहूँच सकें। उनके मन में एक स्पष्ट योजना थी- किसी बड़े ब्रिटिश अधिकारी को मारकर अंग्रेजों के दिलों में खौफ़ पैदा करना। वे मानते थे कि अगर वे किसी महत्वपूर्ण अंग्रेज की हत्या कर दें तो इससे ब्रिटिश शासन की जड़ें हिल जाएंगी.

लॉर्ड मेयो की हत्या: 8 फरवरी 1872

8 फरवरी 1872 की सुबह कालापानी में एक अलग तरह की हलचल थी, क्यूंकि भारत में अंग्रेज़ों के सबसे बड़े अधिकारी वाइसराय लॉर्ड मेयो (रिचर्ड बोर्के) का अंडमान जेल के निरीक्षण के लिए आना निर्धारित था। यह कोई अचानक या गुप्त यात्रा नहीं थी- यह एक नियमित निरीक्षण था जिसकी जानकारी सभी कैदियों को पहले से दे दी गई थी। लॉर्ड मेयो भारत के उन वाइसरायों में से थे जो घुमक्कड़ प्रकृति के थे और अक्सर विभिन्न स्थानों का दौरा करते रहते थे।

शेर अली के लिए यह दिन किसी त्योहार से कम नहीं था। महीनों से उनके मन में जो योजना पक रही थी, आज उसे अमल में लाने का समय आ गया था। वे जानते थे कि यह अवसर उन्हें दोबारा नहीं मिलने वाला। भारत का वाइसराय- ब्रिटिश साम्राज्य का सर्वोच्च प्रतिनिधि, राजा के बाद सबसे शक्तिशाली व्यक्ति- आज उनकी पहुंच में था।

दिन भर का निरीक्षण समाप्त होने के बाद, जब शाम का अंधेरा फैलना शुरू हुआ, तब लॉर्ड मेयो माउंट हैरियट से अपनी नाव की ओर लौट रहे थे। शेर अली पहले से ही एक चट्टान के पीछे छुपकर प्रतीक्षा कर रहा था। उनके पास रसोई का एक साधारण चाकू था, लेकिन उनके इरादे उस चाकू को एक ऐतिहासिक हथियार बनाने वाले थे।

मौलाना जाफर थानेसरी, जो उस समय वहां मौजूद थे, उन्होंने अपनी आत्मकथा काला पानी: तवारीख़ अजीबा में इस घटना को लेकर लिखा है कि-

“शेर अली का धैर्य और दृढ़संकल्प देखने लायक था। वे जानते थे कि यह एक तरफा यात्रा है- इस कार्य के बाद वे ज़िंदा वापस नहीं लौटने वाले, फिर भी उनके चेहरे पर कोई डर नहीं था।”

जैसे ही लॉर्ड मेयो के साथ चल रहे मेजर-जनरल स्टीवर्ट का ध्यान एक क्षण के लिए अन्य अधिकारियों से बातचीत में बँटा, शेर अली ने यह सुनहरा मौका हाथ से जाने नहीं दिया,  बिजली की तेज़ी से वे चट्टान के पीछे से निकले और लॉर्ड मेयो की पीठ में दो बार चाकू से वार किए वाइसराय तुरंत जमीन पर गिर पड़े। ब्रिटिश साम्राज्य के इतिहास में पहली बार किसी वाइसराय की हत्या हुई थी। यह केवल एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं थी, बल्कि यह पूरे ब्रिटिश साम्राज्य के अजेय होने के मिथक पर एक करारा प्रहार था।

वार करने के तुरंत बाद शेर अली वहीं खड़े रह गए। उन्होंने भागने या छुपने की कोशिश  नहीं की. उन्होंने अपना काम पूरा कर दिया था और अब वे अपनी किस्मत का इंतजार करने को तैयार थे। ब्रिटिश सुरक्षा गार्डों ने उन्हें तुरंत घेर लिया और गिरफ्तार कर लिया। उनके चेहरे पर कोई पछतावा नहीं था, बल्कि एक अजीब सी संतुष्टि थी।

पूछताछ के दौरान बयान

पूछताछ के दौरान शेर अली के जवाब उनके दृढ़ संकल्प और धार्मिक विश्वास को दर्शाते थे। जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने यह कार्य क्यों किया तो उनका उत्तर सीधा और स्पष्ट था: “अल्लाह ने हुक्म दिया।”  जब उनसे पूछा गया के इसमें तुम्हारा साथ किसने दिया था तो, उन्होंने जवाब दिया कि “इसमें शरीक अल्लाह है।” ब्रिटिश अधिकारियों के लिए ये शब्द समझना मुश्किल था क्योंकि वे इस बात को स्वीकार नहीं कर सकते थे कि उनके विरुद्ध कोई धार्मिक युद्ध छिड़ा हुआ है।

मृत्युदंड

न्यायालय का फैसला पहले से ही तय था। शेर अली को दोबारा मृत्युदंड की सज़ा सुनाई गई। 11 मार्च 1872 की तारीख़ उनकी फाँसी के लिए निर्धारित की गई। वाइपर द्वीप की जेल में फाँसी का फंदा तैयार किया गया। यह वही द्वीप था जहां ब्रिटिश शासन के सबसे ख़तरनाक दुश्मनों को रखा जाता था।

11 मार्च 1872 की सुबह जब शेर अली को फाँसी के लिए ले जाया गया तो उनका व्यवहार सभी को चकित कर देने वाला था। ब्रिटिश अधिकारी भी स्वीकार करने पर मजबूर हुए कि शेर अली बिल्कुल शांत थे और अपनी मृत्यु से पूरी तरह संतुष्ट लगते थे। उनके चेहरे पर कोई डर नहीं था, बल्कि एक अजीब सी मुस्कराहट थी। यह वही मुस्कराहट थी जो एक सच्चे योद्धा के चेहरे पर होती है जब वह जानता है कि उसने अपना धर्म निभाया है।

फाँसी के मंच पर चढ़ते समय शेर अली की चाल में कोई झिझक नहीं थी। वे उसी गर्व और दृढ़ता से चल रहे थे जैसे कोई विजयी योद्धा युद्धक्षेत्र में चलता है।

ब्रिटिश इतिहासकारों और अधिकारियों ने शुरू से ही शेर अली के कार्य को व्यक्तिगत बदले के रूप में चित्रित करने की कोशिश की। वे इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि उनके शासन के विरुद्ध कोई संगठित प्रतिरोध हो सकता है। उन्होंने इसे धार्मिक कट्टरता का परिणाम बताया और कहा कि यह किसी बड़े आंदोलन का हिस्सा नहीं है लेकिन समकालीन इतिहासकार शेर अली के कार्य को बिल्कुल अलग नजरिए से देखते हैं।

हेलन जेम्स ने अपने शोध पेपर “द असैसिनेशन ऑफ लॉर्ड मेयो: द ‘फर्स्ट’ जिहाद” में इस घटना को धार्मिक युद्ध (जिहाद) के संदर्भ में देखा है और व्यापक शोध के साथ यह साबित करने की कोशिश की है कि यह कोई अकेली घटना नहीं थी। उन्होंने अपने शोध में यह साबित किया है कि शेर अली का संबंध उस समय के वहाबी आंदोलन से था।

शेर अली अफ़रीदी का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के अजेय होने के मिथक को तोड़ दिया। लॉर्ड मेयो की हत्या के बाद ब्रिटिश अधिकारियों को एहसास हुआ कि भारत में उनकी स्थिति उतनी मज़बूत नहीं है जितनी वे समझते थे। एक अकेले व्यक्ति ने पूरे साम्राज्य में डर पैदा कर दिया था।

भले ही मुख्यधारा के इतिहास में उन्हें उचित स्थान नहीं मिला, लेकिन उनका कार्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक महत्वपूर्ण कड़ी था।

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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