दिल्ली की कहानी – सोहेल हाशमी की ज़ुबानी
आज से हम नई शृंखला शुरू कर रहे हैं जिसमें मशहूर हेरिटेज ऐक्टिविस्ट और दिल्ली विशेषज्ञ सोहेल हाशमी दिल्ली के बसने और उजड़ने की कहानी के साथ बताएंगे कि शहर होते क्या हैं और बसते कैसे हैं।
तो योजना ऐसी है कि आज से एक शृंखला शुरू की जाए जो दिल्ली की कहानी को एक अलग नज़रिये से देखने की कोशिश करे।
आठ बार बसी, सात बार उजड़ी दिल्ली
दिल्ली जिस के बारे में कहा गया है कि “दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतिख़ाब’ यानी दिल्ली वो शहर है जिस से बेहतर शहर दुनिया में नहीं। इस से पहले कि हम इस बात की छान-बीन करें कि क्या ये केवल शायराना मुबालिग़ा –कवि की अतिशयोक्ति भर है या इसमें कोई सच्चाई भी है है मेरी राय में हम यह तय कर लें कि शहर किसे कहते हैं?
माना जाता है कि वो इलाक़ा जहाँ आज दिल्ली आबाद है वहाँ इस से पहले सात शहर बने और उजड़े, इतिहासकारों का मानना है कि इनमें सबसे पुराना शहर था लालकोट (दसवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक), उसके बाद क्रमशः सीरी (तेरहवीं शताब्दी), तुग़लक़ाबाद(चौदहवीं शताब्दी), जहाँ पनाह (चौदहवीं शताब्दी), फ़ीरोज़ाबाद (चौदहवीं शताब्दी), दीन पनाह (सोलहवीं शताब्दी) और शाहजहाँनाबाद (सत्रहवीं शताब्दी) के नाम से छः और शहर भी यहाँ बसे। सत्रहवीं शताब्दी में बसाये जाने वाले शहर शाहजहाँनाबाद के बाद बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दिनों में नई दिल्ली आबाद की गई और उसे आठवीं दिल्ली कहा जाता है।
इनमें से सिर्फ़ दो को कहा जा सकता है शहर
मेरा मानना यह है कि इन सातों या आठों, दरअसल शहर का रुतबा केवल लाल कोट और शाहजहाँनाबाद को मिलना चाहिए, बाक़ी पाँच या छः को नहीं। मैं ऐसा क्यों मानता हूँ, इस बात को लेकर हम यहाँ से आगे बढ़ेंगे। और जब इस बात का विस्तार होगा तो मैं समझता हूँ कि आप मुझसे सहमत हो जाएंगे।
कैसे बनता है शहर?
सिर्फ़ बहुत सी आलीशान इमारतों को एक खास इलाक़े में बना देने से शहर नहीं बन जाता, किसी भी आबादी को शहर बनने में वक़्त लगता है, यह काम पाँच या दस बरस में नहीं होता, इसे कम से कम दो-तीन सौ साल लगते हैं।
अब अगर दिल्ली को छोड़ भी दें और किसी दूसरे शहर के बारे में सोचें तो शायद यह बात पूरी तरह से साफ़ हो जाएगी। अगर आप एक ऐसे शहर के बारे में सोचें जिसे आप अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं तो आप क्या पाएंगे? हर शहर की अपनी एक रफ़्तार, अपनी एक विशेष लय और ताल, ज़िंदगी जीने का अपना एक अलग ढंग और उस ज़िंदगी को अभिव्यक्ति देने की अपनी एक विशेष भाषा-शैली होती है। हर शहर के शिल्प में कुछ ऐसा होता है जो दूसरे शहरों से अलग होता है जैसे आगरे में पच्चीकारी का काम, मुरादाबाद में पीतल का काम, बीदर में बर्तनों पर नक़्क़ाशी का काम, अलीगढ़ के ताले, मिर्ज़ापुरी क़ालीन, खुर्जा के कांच के बर्तन वगैरह। हर शहर का अपना कोई खास खाना या पकवान होता है – मथुरा के पेड़े, मेरठ की रेवड़ी, अमृतसर की तली हुई मछली, वगैरह-वगैरह, अपना संगीत होता है, अपना एक अलग मिज़ाज होता है। और यह सब बना-बनाया एक साथ कहीं नहीं मिलता, यह सब धीरे-धीरे विकसित होता है। दिल्ली के मशहूर शायर मीर तक़ी मीर ने कहा है – बस्ती तो फिर बस्ती है, बसते-बसते बस्ती है।
और क्योंकि ऐसी आबादी को शहर बनने मे समय लगता है, चंद सौ बरस का समय, इसी लिए सीरी, जहाँपनाह, तुग़लक़ाबाद, फ़ीरोज़शाह,( जिसे आम तौर पर पर , फ़ीरोज़शाह कोटला कहते हैं के नाम से जाना जाता है) और दीन पनाह (जिसे शेरगढ़ भी कहा गया और फिर वो पुराने क़िले के नाम से जाना गया) को शहर बनने का समय नहीं मिला। और क्योंकि इन्हें शहर बनने का समय नहीं मिला तो ये केवल राजधानी बन कर रह गए। बादशाह की मौत हुई और अगले बादशाह ने कहीं और राजधानी बना ली, जैसे तेरहवीं सदी में तुग़लक वंश के तीन सुल्तान हुए, हर एक ने नई राजधानी बनाई, शहर बनना उनमें से किसी एक की क़िस्मत में भी नहीं लिखा था।
सिर्फ़ समय ही किसी आबादी को शहर नहीं बना देता, दो और चीज़ें हैं जिनकी ज़रूरत होती है, एक तो बाहर से या कर लोगों का बसना और दूसरे व्यापार और आपसी लेन-देन।
मगर इनके बारे में अगली कड़ी में बातचीत होगी।
दूसरी कड़ी : दिल्ली की कहानी – सोहेल हाशमी की ज़ुबानी (एपिसोड 2)
जाने-माने हेरिटेज एक्टिविस्ट, दिल्ली के इतिहास पर विशेष काम।