जब भीड़ से भिड़ गए नेहरू
बात 1947 की है। विभाजन के बाद सीमा के दोनों ओर इंसान, इंसान के ख़ून का प्यासा हो गया था। चाहे लाहौर हो या कोई और जगह, हत्या और लूट का तांडव मचा हुआ था।
जवाहरलाल नेहरू दिल्ली में 9 सितंबर, 1947, शरणार्थियों की भीड़ में कह रहे थे-
मेरा कहना यही है कि इन मुसलमानों ने तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा हो तो तुम भी इन्हें नुक़सान मत पहुँचाओ। हमे तो न्याय के रास्ते पर चलना चाहिए। अगर इंसाऒ का तकाजा कहे और ज़रूरी हो जाए तो हम पाकिस्तान से युद्ध छेड़ सकते हैं और आप लोग सेना में भर्ती हो सकते हैं। लेकिन इस तरह की नीति और कायरतापूर्ण बात ग़लत है।
पीयूष बबेले ने संवाद प्रकाशन से प्रकाशित अपने किताब नेहरू मिथक और सत्य में इस घटना के बारे में बताया है। उस किताब का एक लेख हम यहाँ सभार प्रकाशित कर रहे हैं-सं
नेहरू क्या कर रहे थे, जब दिल्ली जल रही थी
महात्मा गांधी आरएसएस की तुलना नाज़ी और फ़ासिस्टों से कर रहे थे और उनकी मृत्यु के बाद विनोबा भी वही कर रहे थे। लेकिन नेहरू को सिर्फ़ कहना नहीं था, उन्हें बहुत कुछ करना था और ऐसे वक़्त में करना था, जब दिल्ली जल रही थी।
पाकिस्तान से प्रताड़ित कर भगा दिए गए शरणार्थियों के दल दिल्ली में आते जा रहे थे। देश की राजधानी एक बहुत बड़ा शरणार्थी शिविर हो गई थी। ये लुटे-पिटे लोग बहुत गुस्से में थे। हिंदू सांप्रसायिक संगठन इनके गुस्से को दिल्ली के मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल करने में पूरी तरह जुटे हुए थे। यहाँ कोई सुरक्षित नहीं था। कौन-सा मुसलमान हिंदू या सिख की गोली की ज़द में आ जाए और कब पुरानी दिल्ली में किसी हिंदू को सरे-राह छूरे मार दिया जाए, इसका कोई ठिकाना नहीं था।
और-तो-और हिंसा के इस चरम महौल में दिल्ली के पास अहिंसा का पुजारी महात्मा गांधी भी नहीं था। जो करना था देश के प्रथम सेवक नेहरू को ही करना था। तो क्या इस जलते हुए शहर में नेहरू तीन मूर्ति भवन के सुरक्षित वातावरण में बैठे थे? क्या देश का प्रधानमंत्री सड़क पर था और ख़ुद मामले को देख रह था?
सुशीला नैयर के साथ नेहरू सचिवालय पहुँची
नेहरू क्या कर रहे थे और दिल्ली में क्या हो रहा था। इसका सटीक वर्णन प्यारेलाल जी ने किया है। यहाँ उस पहले दिन का किस्सा बयान किया जा रहा है, जब गांधीजी कलकत्ता से दिल्ली आए। प्यारेलाल जी लिखते है:
9 सिंतबर, 1947 को महात्मा गांधी दिल्ली पहुँच गए। रेलवे स्टेशन पर उन्हें सरदार पटेल लेने पहुँचे। वहाँ से गांधीजी की गाड़ी भंगी कालोनी न जाकर सीधे बिरला-भवन पहुँची, क्योंकि भंगी कालोनी में जहाँ गांधीजी रहा करते थे, उन मकानों पर पाकिस्तान से आए शरणार्थियों ने कब्जा कर लिया था।
दोपहर को बापू को समाचार मिला की किंग्सवे कैंप के टीबी अस्पताल पर पाकिस्तान से आए शरणार्थी हमला करने वाले हैं, क्योंकि वहाँ बड़ी संख्या में मुसलमान मरीज हैं। गांधीजी ने सुशीला नैयर से वहा जाने के लिए कहा और उन्हें समझाया कि रास्ते में सचिवालय में रुककर सरदार और जवाहरलाल को सूचित कर देना कि मैं तुम्हें कहाँ भेज रहा हूँ…
जब सुशीला नैयर सचिवालय पहुँची, तो सरदार आफिस में नहीं थे। सुशीला पंडित नेहरू से मिलीं। नेहरूजी उन्हें अपने साथ अपनी मोटर में बिठाकर डिप्टी कमिश्नर के पास ले गए। टाउन हाल पहुँचकर नेहरूजी ने डिप्टी कमिश्नर से कहा कि सुरक्षाकर्मियों की एक टुकड़ी तुरंत अस्पताल में भेज दी जाए।
डिप्टी कमीश्नर ने कहा: मैं कुछ नहीं कर सकता, हमारे सारे दल काम पर लगे हुए हैं। पंडित नेहरू ने डिप्टी कमीश्नर की तरफ़ मुड़े और बोले, अच्छी बात है तो मैं सुशीला को मरीजों की रक्षा करने के लिए भेज दूंगा। नेहरू जी ने पिता के तरह उसकी पीठ थपथपाकर, उस मोटर में बैठा दिया।
जब पुलिसवाले ने कहा-मुझसे बड़े-बड़े लोग भी इसे नहीं रोक सकते
रास्ते में उसने एक मस्जिद को जलते हुए देखा। वह यह देखने के लिए रुकी कि भीतर कोई है तो नहीं। सुशीला ने बताया-लपटों के कारण हम सारे कमरे तलाश नहीं कर सके, जब मैं वहाँ खड़ी थी, उस समय सामने इमारत से गोलियाँ की झड़ी लगी हुई थी। वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अड्डा था। गोलियाँ मुसलमानों को और मस्जिद के आसपास घूमने वाले उनके हमदर्द लोगों को मारने के साफ़ उद्देश्य से चलाई जा रही थी।
अस्पताल पहुँचने पर पता चला कि कुछ ही मिनट पहले लेडी माउंटबेटन की मदद से मरीजों को जामा मस्जिद पहुँचा दिया गया है। सड़क पर कुछ शरणार्थी किंग्सवे कैंप की दिशा में लूट का माल लिए जा रहे थे। उनके कुछ पीछे एक पुलिसवाला वर्दी पहने आराम से घूम रहा था।
सुशीला ने उसे पुकारा-तुम यहाँ क्या कर रहे हो, देखते नहीं यह लूट का माल है, तुम उन्हें रोक नहीं सकते। पुलिसवाले ने लापरवाही से कहा-मुझसे बड़े-बड़े लोग भी इसे नहीं रोक सकते।
जब नेहरू गाड़ी से कूदकर बाहर आ गए
पंडितजी ने सुशीला को बिना सुरक्षा के भेज तो दिया था, लेकिन उन्हें बराबर खटका लगा हुआ था। जब यह बातचीत हो रही थी। तभी पीछे से एक गाड़ी आकर रुकी। गाड़ी में नेहरूजी थे। सुशीला ने पुलिस वाली घटना पंडित जी को सुना दी। पंडित जी बहुत नाराज़ होकर किंग्सवे कैंप की तरफ़ चले। शरणार्थी लूट का सामान लेकर लौट रहे थे।
नेहरू ने जब यह देखा तो गाड़ी से कूदकर बाहर आ गए। उनके चारों तरफ़ लोग जमा हो गए। नेहरू ने लोगों को फटकारा, मैं समझा था कि हम अपने पीड़ित भाइयों की मदद कर रहे हैं, मुझे यह नहीं पता था कि हम चोर-डाकुओं को आसरा दे रहे हैं। भीड़ को भी गुस्सा आ गया।
एक जोशीला नौजवान सामने आया और बोला, आप हमें नसीहत देते हैं। आप जानते हैं कि हमने कैसी-कैसी मुसीबतें झेली हैं। पंडित जी बहुत बर्दाश्त न कर सके। उन्होंने जोशीले नौजवान की गर्दन पकड़कर उसे झकझोर दिया। सुशीला घबरा गई। कहीं भीड़ काबू से बाहर हो गई तो, सुशीला ने उन्हें खींचकर हटाने की कोशिश की। लेकिन नेहरू जी ने कोहनी से सुशीला को वापस धकेल दिया।
जब उन्होंने युवक को अपनी पकड़ से छोड़ा, तो वह बड़बड़ाया-हाँ, पंडितजी, जो करना है,कर लीजिए। ज़िन्दगी में मेरा इससे बड़ा और क्या सौभाग्य होगा कि मैं आपके हाथों मारा जाऊँ।
पंडितजी का गुस्सा ठंडा पड़ गया। उनके चेहरे पर उदासी छा गई। लेकिन फिर वह गदगद हो गए, उन्होंने कहा–
यह वक़्त ऐसा नहीं है कि मैं तुम्हे बताऊँ कि मैं तुम सबके लिए कितना दुखी हूँ और तुम्हारी तकलीफों के लिए मेरे दिल में कितना दर्द है।
परंतु, मेरा कहना यही है कि इन मुसलमानों ने तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा हो तो तुम भी इन्हें नुक़सान नहीं पहुँचाओ।
हमे तो न्याय के रास्ते पर चलना चाहिए। अगर इंसाफ़ का तकाजा कहे और ज़रूरी हो जाए तो हम पाकिस्तान से युद्ध छेड़ सकते हैं और आप लोग सेना में भर्ती हो सकते हैं। लेकिन इस तरह की नीति और कायरतापूर्ण बात ग़लत है।
भीड़ ने नारे लगाए-जवाहरलाल नेहरू जिंदाबाद।
जब सुशीला ने सरदार को यह घटना सुनाई तो वह घबराए। उन्होंने कहा-क्या एक प्रशासक को इसी ढंग से काम करना चाहिए। उनकी सुरक्षा मेरे जिम्मे हैं। उन्हें इस तरह लोगों के बीच नहीं जाना चाहिए, बेवज़ह खतरे नहीं उठाने चाहिए।
लेकिन जवाहर क्या करते, वह तो ऐसे ही थे। आने वाली दिनों वह सांप्रदायिक संगठनों पर बहुत सख्त होने वाले थे। इतने सख्त कि आज 70 साल बाद भी सांप्रदायिक संगठन अपनी अदावत नहीं भुला पा रहे है।
पीयूष बबेले की किताब ‘मिथक और सत्य’ से साभार
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में