मोतीलाल नेहरू: खाक से लाख का सफ़र और फिर आज़ादी की लड़ाई
मोतीलाल नेहरू को अक्सर जवाहरलाल नेहरू के पिता के रूप में ही जाना जाता है। लेकिन बचपन से संघर्ष का जीवन जीते ऐश्वर्य का महल खड़ा करने वाले और फिर आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने पर उस ऐश्वर्य को दाँव पर लगा देने वाले मोतीलाल जी अपने समय की सबसे प्रमुख भारतीय हस्तियों में से एक थे। अंग्रेज़ी में किताब लिखने वाले पहले कश्मीरी पंडित आनंद कौल ने 1924 में छपी अपनी किताब The Kashmiri Pandits में उन्हें सबसे ख्यातिलब्ध कश्मीरी पंडितों में शामिल किया है। [पेज 74]
बलवा, विस्थापन और मुश्किल बचपन
मोतीलाल नेहरू के पिता गंगाधर कौल दिल्ली में पुलिस अधिकारी थे।
उनके एक पुरखे पंडित राज कौल मुग़ल शासक फरूखसियार के समय (1716) में दिल्ली या गए थे। उस दौर में कश्मीरी पंडितों का रोज़गार के लिए दिल्ली आना सामान्य बात थी। असल में कश्मीर के ब्राह्मणों ने, जिन्हें वहाँ भट कहा जाता था, दिल्ली आकर ही अपने लिए ‘कश्मीरी पंडित’ सम्बोधन चुना था जिसे मुहम्मद शाह के समय शासकीय अनुमति मिली थी। मुग़ल दरबार में चल रही उठापठक के बीच नेहरू परिवार के लिए भी मुश्किलें बढ़ीं। 1719 में फरूखसियार के मंत्री सैयद भाइयों ने हरम से खींच कर उसे गिरफ़्तार किया और फिर मार डाला तो राज कौल के लिए अपने संरक्षक की अनुपस्थिति में कुछ गांवों की अपनी जागीर बचाना आसान नहीं था। उनके बेटे मंशाराम कौल और साहेबराम कौल तक तो किसी तरह काम चला लेकिन अगली पीढ़ी को नौकरियां तलाशनी पड़ीं।
मंशाराम कौल के बेटे लक्ष्मीनारायण दिल्ली के मुग़ल दरबार में ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले वकील नियुक्त हुए। इन्हीं के पुत्र थे गंगाधर कौल ।
1857 के विद्रोह से बचते-बचाते गंगाधर अपनी पत्नी जेवरानी देवी, दो बेटों बंशी तथा नंदलाल और दो बेटियों पटरानी तथा महारानी देवी के साथ दिल्ली छोड़ कर आगरा जाने के लिए मजबूर हुए। वहाँ ज़िंदगी की दुबारा शुरुआत करने की कोशिश करते 1861 में इस दुनिया से जब गए तो मोतीलाल माँ के गर्भ में थे। पिता की मृत्यु के तीन महीनों बाद दुनिया में आए इस बालक के पास न तो अपने पुरखों जैसी समृद्धि थी न भविष्य की कोई स्पष्ट राह।
बंशीलाल को आगरा की दीवानी में फ़ैसले लिखने की नौकरी मिली तो परिवार को सहारा मिला। आगे चलकर वह सबऑर्डिनेट जज तक पहुँचे। बंशीलाल नौकरी के चलते अक्सर घर से बाहर रहते तो मोतीलाल को पालने-पोसने की ज़िम्मेदारी नंदलाल पर आई और दोनों भाइयों के बीच जो अटूट स्नेह बना वह पीढ़ियों तक चला।
नंदलाल आगरा कॉलेज में पढे और फिर वहाँ के प्रधानाचार्य मिस्टर एंडरसन की सिफ़ारिश पर खेतड़ी के महाराज के यहाँ पहले उनके शिक्षक और फिर निजी सचिव और अंततः दीवान के पद तक पहुँचे।
कुशल प्रशासक के तौर पर अपनी पहचान बनाने वाले नंदलाल की ख्याति बढ़ी लेकिन 1870 में वहाँ के राजा की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार विवाद में उनकी नौकरी चली गई तो वह आगरा लौट आए, वकालत सीखी और प्रैक्टिस करने लगे। फिर उच्च न्यायालय इलाहाबाद ले जाया गया तो वह भी इलाहाबाद या गए।
आत्मविश्वास, साहस और संघर्ष
खेतड़ी में अपने भाई के साथ रहते हुए मोतीलाल ने आरंभिक शिक्षा महाराज के शिक्षक क़ाज़ी सदरूद्दीन से ली और बारह साल की उम्र तक अरबी और फ़ारसी सीखी। फिर दूसरे भाई बंशीधर के पास कानपुर में उन्होंने हाई स्कूल में दाखिला लिया और अंग्रेज़ी सीखी। वह किताबी कीड़े नहीं थे बल्कि खेल-कूद और व्यायाम में ज़्यादा मन लगता, लेकिन आत्मविश्वास ग़ज़ब था और मेधा तीव्र।
यूनिवर्सिटी की पढ़ाई तो पूरी नहीं की उन्होंने लेकिन भाई के रास्ते चलते हुए वकालत की दुनिया में ज़ोर आजमाने का उनका फ़ैसला तक़दीर बदलने वाला साबित हुआ। वकालत की परीक्षा में पहला स्थान हासिल करके 1883 में उन्होंने पंडित पृथ्वीनाथ के सहायक के रूप में कानपुर में वकालत की शुरुआत की और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
जवाहर नहीं थे उनके पहले पुत्र
उनकी शादी उस समय के कश्मीरी पंडितों की परंपरा के अनुसार बचपन में ही हो गई थी और एक पुत्र भी था। लेकिन पत्नी और पुत्र दोनों की बीमारी से दुखद मृत्यु हो गई। इसके बाद हाल ही में कश्मीर से आए थुस्सू परिवार की बेटी स्वरूपरानी से उनका दूसरा विवाह हुआ।
शादी के कुछ वर्ष बाद से ही स्वरूपरानी बीमार रहने लगी थीं। दम्पत्ति का पहला पुत्र जन्म लेने के कुछ समय के बाद ही मर गया। 14 नवंबर, 1889 को उनके घर जिस बालक की किलकारियाँ गूँजी उसे दुनिया जवाहरलाल नेहरू के नाम से जानती है। इसके बाद तीन बेटियाँ और हुईं।
सफलता के शिखर पर
कानपुर में शुरुआत तो अच्छी हो गई थी लेकिन हाईकोर्ट इलाहाबाद में था तो आगे बढ़ने के लिए वही उचित जगह थी।
1886 में तीन साल का अप्रेंटिस पूरा करके मोतीलाल इलाहाबाद या गए जहां उनके भाई पहले से ही थे। लेकिन संघर्ष जैसे उनकी ज़िंदगी का हिस्सा थे। अगले ही साल नंदलाल 42 साल की अल्प आयु में चल बसे तो उनकी पत्नी, दो बेटियों और पाँच बेटों की ज़िम्मेदारी 25 वर्ष के मोतीलाल पर आ गई। जिस भाई ने उन्हें पाला-पोसा सहारा दिया था उसकी मौत से टूटने की जगह 25 की उम्र में उन्होंने एक भरे-पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी पूरी गंभीरता से उठा ली, पैसा अब शौक़ नहीं ज़रूरत था।
और उन्होंने झोंक दिया खुद को वकालत में।
उन दिनों राजे-रजवाड़ों के संपत्ति विवाद ज़ोरों पर थे और मोतीलाल ऐसे मामलों के अद्भुत वकील साबित हुए। अकूत पैसा कमाया और वैसे ही खर्च किया। 1900 में मुरादाबाद के कुँवर परमानन्द से 1, चर्च रोड पर जो बँगला खरीदा उसे आज ‘आनंद भवन’ [अब स्वराज भवन] के नाम से जाना जाता है। इसी में मोतीलाल जी का संयुक्त परिवार रहता था जिसमें भाभी, भतीजे, भतीजियाँ और कई रिश्तेदार शामिल थे। 1904 में उत्तर प्रदेश और इलहाबाद की पहली निजी कार उनके दरवाज़े पर ही आई। शानदार अरबी घोड़े, पार्टियाँ, खेल और मंहगे कपड़े उनके जीवन का हिस्सा बन गए। ये उल्लास के दिन थे उनके भी और परिवार के भी।
आनंद भवन में एकतरफ़ आधुनिकता थी तो दूसरी तरफ़ स्वरूपरानी, उनकी विधवा बहन राजवती और नंदलाल जी की पत्नी नंदरानी की शुद्ध ब्राह्मण रसोई भी थी जहाँ सबकुछ एकदम पारंपरिक था। अगर मोतीलाल इतने आधुनिक थे कि विदेश से लौटने के बाद प्रायश्चित की कश्मीरी पंडित परंपरा को उन्होंने एकदम से ठुकरा दिया था तो दूसरी तरफ़ उनके घर में दिवाली, हेरात और होली जैसे पर्व पूरी धूमधाम से मनाए जाते थे जिसमें मोतीलाल निष्ठा और उत्साह से शामिल होते। बच्चों की पढ़ाई के लिए अंग्रेज़ी माध्यम चुना गया तो परिवार के धार्मिक जनों के आचरण को भी कभी तिरस्कृत नहीं किया गया।
हालाँकि उनके आधुनिक तौर-तरीक़े इलहाबाद के रूढ़िवादी तबकों की आँख के कांटे बनते गए और उसी दौर से जो घटिया अफ़वाहों का दौर चला वह अब भी जारी है।
राजनीति में प्रवेश और नए संघर्ष
हालांकि मोतीलाल 1888 की इलाहाबाद कांग्रेस में एक डेलीगेट के तौर पर और फिर 1889 तथा 1891 में ‘सब्जेक्ट कमेटी’ के सदस्य के रूप में चुने जाने के बाद 1892 में इलाहाबाद कांग्रेस में स्वागत समिति के सचिव के रूप में शामिल हुए थे लेकिन उसके बाद वह जिस तरह अपनी प्रोफेशनल ज़िंदगी में मशगूल हुए, उसमें राजनीति के लिए जगह बना पाना मुश्किल था। लगभग एक दशक बाद जब बंग-विभाजन प्रस्ताव के बाद काँग्रेस में उदारवादियों और अतिवादियों के बीच संघर्ष चला तो इलाहाबाद में संयुक्त प्रांत की एक सभा में अध्यक्षीय आसंदी से बोलते हुए गोखले के अनन्य प्रशंसक मोतीलाल नेहरू ने उदारवाद के पक्ष में लंबा भाषण दिया। इस भाषण में अन्य बातों के अलावा जातिप्रथा और पर्दा प्रथा की तीखी आलोचना की थी।
मोतीलाल जी राजनीति में सक्रिय होने को तैयार नहीं थे, लेकिन उस वक़्त हैरो में पढ़ रहे जवाहर उन्हें लगातार राजनीति में शामिल होने के लिए कह रहे थे। यही नहीं पिता की उदारवादी पक्षधरता भी युवा पुत्र की आलोचना का शिकार हो रही थी। वह स्वदेशी और बायकाट के आंदोलन को मन ही मन सराह रहा था और पिता को राजनीति में और अधिक सक्रिय होकर अंग्रेजों की मुखालिफ़त के लिए कह रहा था। ज़ाहिर है जवाहर ने संघर्ष उस तरह नहीं देखे थे, मोतीलाल के लिए बेहद मुश्किल से कमाई संपत्ति का सवाल भी अभी महत्त्वपूर्ण था ही। सूरत कांग्रेस में जो जूतम पैजार हुई उसने इस सुसंस्कृत वकील का मन और खट्टा कर दिया था। इसी मुद्दे पर पुत्र से उनकी पहली राजनैतिक बहस भी हुई।
लेकिन अब उनके लिए राजनीति से दूर रहना भी संभव नहीं रह गया था। ऑक्टूबर 1909 में जब इलाहाबाद से ‘द लीडर’ नामक अखबार निकला तो मोतीलाल उसके बोर्ड ऑफ डायरेक्टरेट के पहले अध्यक्ष बने और मदनमोहन मालवीय पहले संपादक। 1910 की इलाहाबाद कांग्रेस की स्वागत समिति उपाध्यक्ष के रूप में सक्रिय योगदान दिया। यह कांग्रेस अपने आप में ऐतिहासिक थी, जहाँ इस कांग्रेस में ही पहली बार हिन्दू-मुस्लिम कान्फ्रेंस हुई, वहीं इसी समय हिन्दू महासभा का भी गठन हुआ। जहाँ वह कान्फ्रेंस को लेकर कोई खास उत्साहित नहीं थे, वहीं महासभा के गठन का उन्होंने विरोध किया था।
इस दौरान एक मज़ेदार घटना हुई। 1911 में जब दरबार लगा और ब्रिटेन के महाराजा-महारानी दिल्ली आए तो देश भर की रियासतों के राजाओं-महराजाओं के उस आयोजन में मोतीलाल नेहरू और उनके परिवार को भी सम्मान से आमंत्रित किया गया। इस अवसर के लिए पिता के आदेश पर शाही कपड़े तो जवाहरलाल ने ब्रिटेन से भेजे लेकिन जब यह चर्चा चली कि मोतीलालजी को नाइटहुड दिया जा सकता है तो उन्हें इस सम्मान को लेने से हतोत्साहित भी किया। मोतीलाल बेटे से सहमत थे।
जवाहरलाल की वापसी और आगे
जवाहरलाल नेहरू के वकालत की पढ़ाई पूरी करके लौटने के बाद 1912 में पहली बार पिता-पुत्र साथ बांकीपुर काँग्रेस में गए। हालाँकि तिलक की अनुपस्थिति (वह उस समय जेल में थे) यह कांग्रेस तो ढीली-ढाली ही रही लेकिन यह नेहरू परिवार के राजनीति में सक्रिय होने की पूर्वपीठिका तो बन ही गई थी।
पिता-पुत्र में मतभेद अब भी था, युवा जवाहर जहाँ देशभक्ति से ओत प्रोत रेडिकल विचारों के थे, मोतीलाल संवैधानिक तरीक़ों के हामी थे। जब होम रूल लीग आंदोलन शुरू किया एनी बेसेंट ने तो जवाहर काफ़ी उत्साहित थे, लेकिन एनी के पुराने प्रशंसक होने के बावजूद मोतीलाल इस आंदोलन में शामिल होने को तैयार नहीं थे। लेकिन जब मद्रास के गवर्नर ने डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट लगाकर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया तो मोतीलाल के सब्र का बांध टूट गया और वह इलाहाबाद में इसकी मुखालिफ़त करते हुए तेजबहादुर सप्रू, मुंशी नारायण प्रसाद अस्थाना और दूसरे लोगों के साथ होम रूल लीग में शामिल हो गए।
22 जून 1916 को उन्होंने गिरफ़्तारी के खिलाफ हुई एक जनसभा की अध्यक्षता करते हुए कहा – अब जो हो हमने अपनी नावें समुद्र में उतार दी हैं। अगले दिन उन्हें होमरूल लीग का अध्यक्ष चुना गया और जवाहरलाल संयुक्त सचिवों में से एक चुने गए। यह पिता-पुत्र की साझा यात्रा की शुरुआत थी।
जालियाँवाला बाग और आगे
जालियाँवाला बाग की घटना ने उन्हें बेहद उद्वेलित किया। कांग्रेस ने जब घटना की जाँच के लिए कमेटी बनाई तो वह उसके चेयरमैन बने। इसके बाद हुई अमृतसर कांग्रेस में उन्हें अध्यक्ष चुना गया। सत्याग्रह आंदोलन की सक्रियता उन्हें फिर से जेल ले गई लेकिन जब 1922 में चौरीचौरा कांड के बाद महात्मा गांधी ने आंदोलन वापस लिया तो उन्होंने इसका तीखा विरोध करते हुए जेल से तीखा पत्र लिखा।
असेंबली प्रवेश के मामले में गांधी से असहमति के बाद उन्होंने पार्टी के भीतर ही स्वराज पार्टी बनाई और चुनाव लड़कर असेंबली में प्रवेश किया। असेंबली में प्रवेश के बाद उन्होंने आस्ट्रेलिया की तर्ज पर डॉमिनियन राज्य बनाने के लिए संविधान निर्माण की मांग की जो नामंज़ूर हो गई।
जब भगत सिंह को सज़ा हुई तो वह उन पहले नेताओं में थे जिन्होंने उनका मामला असेंबली में उठाया और कई बार उनसे मिलने जेल भी गए।
असहयोग आंदोलन जेल और मृत्यु
असहयोग आंदोलन के चलते उन्हें फिर जेल हुई। इस बार साथ में जवाहरलाल भी थे। इस जेलयात्रा में उनकी तबीयत काफ़ी खराब हो गई तो उन्हें रिहा किया गया। लेकिन जेलयात्रा उन्हें भारी पड़ी थी। 6 फरवरी 1931 को उन्होंने आखिरी सांस ली तो एक तरफ़ जवाहरलाल और दूसरी तरफ़ महात्मा गांधी थे।
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में