जन्मदिन विशेष: मृदुला साराभाई
सामाजिक मुद्दों के लिए जीवन समर्पित करने वाली मृदुला साराभाई
मृदला साराभाई वह महिला जो आजादी के आंदोलनों में सफेद खादी की सलवार्म कमीज़ और दुपट्टा तथा पांव में पेशावरी चप्पले पहने होती। वे सिर पर छोटे-छोटे बाल रखती, किसी प्रकार के आभूषणों तथा श्रृंगार प्रसाधनों के बिना नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान गुजरात के हर घर में अपने निडर और दुस्साहस के किस्सों के कारण चर्चा के केंद्र में होती थी। उनके असधारण साहस की कहानियां समूचे प्रांत में सुनने को मिलती थी।
लालन-पालन और प्रारंभिक शिक्षा रचनात्मक रही
मृदला का जन्म 6 मई 1911 को अहमदाबाद में हुआ, देश के प्रथम कोटि का कपड़ा बनाने वाले अंबालाल के घर हुआ। अंबालाल अपने बच्चों के लालन-पालन में असाधारण रूप से उदार और आधुनिक विचार के व्यक्ति थे। परिवार में बेटे-बेटियों के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रखते थे।
एक बार इंग्लैंड से लौटते हुए अंबालाल ने जहाज पर टाइम्स समाचारपत्र के साप्ताहिक परिशिष्ट में बाल-शिक्षा तथा लालन-पालन विषय पर मैडम मांटेंसरी की एक पुस्तक की समीक्षा पढ़ी जो उनके विचारों को समृद्ध करने में सहायक सिद्ध हुई।
जब उन्हेंअपने बच्चों के लिए अपनी आकांक्षाओं को सिद्ध करने वाला विद्यालय नहीं मिला। उन्होंने घर पर ही एक विद्यायल खोला जिसमें इंग्लैंड से कैंब्रिज विश्वविद्यालय से स्नातक शिक्षक बुलवाये। बच्चों के शैक्षणिक पाठ्यक्रम के साथ-साथ संगीत, नृत्य, चित्रकारी, मिट्टी के बरतन, बढ़ईगिरी इत्यादी विषयों की शिक्षा देने के लिए अनेक प्रख्यात भारतीय शिक्षाविदों को नियुक्त किया।[i]
मृदुला उस वक्त मात्र दस वर्ष जब 1921 में यह विद्यालय खोला गया। जाहिर है अपारंपरिक तथा प्रगतिशील गृह-सह-विद्यालय वातावरण में मृदुला को स्वतंत्र विचारों वाला मुक्त व्यक्तित्व विकसित करने का अवसर मिला।
स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद मृदुला अपने भाई विक्रम साराभाई के तरह विदेश नहीं गई वरन असहयोग आंदोलन के दौरान सरकारी महाविद्यालय छोड़ देने वाले विद्यार्थियों के लिए महात्मा गांधी द्वारा स्थापित गुजरात विद्यापीठ में भरती हो गई।
अखिल भारतीय चरखा संघ में सक्रियता
महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद जब कोचरब में आश्रम बनाया तब अंबालाल और उनका परिवार गांधीजी के समीप आया। गांधीजी का मृदुला पर गहरा प्रभाव पड़ा। अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन के समय दस वर्ष की मृदुला ने प्रतिनिधियों के लिए एक प्याउं लगायी थी। उन्होंने कांग्रेस की बाल सेना तथा अखिल भारतीय चर्खा संघ के शिशु विभाग में भी कार्य किया।[ii]
महात्मा गांधी ने उनके अंदर की क्षमता को पहचान लिया था इसलिए उनको मीरा नाम देकर अपनी बेटी के रूप में स्वीकार्य़ ही नहीं किया। इसलिए कस्तूरबा ट्रस्ट की जिम्मेदारी सौपी। कस्तूरबा के निधन के पश्चात जब निर्धन ग्रामीण महिलाओं के बीच कार्य करने के लिए 1944 में कस्तूबरा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट का गठन किया गया तब गांधी ने मृदुला को उसका प्रथम संगठन सचिव नियुक्त किया।
राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रियता और जेल का अनुभव
1930-31 का वर्ष भारत में राजनीतिक आंदोलन की गहमा-महमी का वर्ष था। गांधीजी द्वारा छेड़े गए आंदोलनों में सबसे अधिक सहज, व्यापक और सघन आंदोलन था। उन्होंने महिलाओं को घरों से बाहर निकलने तथा निर्भय होने के लिए ललहारा। उनके इस आह्वान पर आंदोलनमें कूद पड़ने वाली हजारों महिलाओं में मृदुला भी थी।
वो उस समय गुजरात विद्यापीठ की छात्रा थी तथा महिलाओं को दांडी-यात्रा शामिल करने के बारे में गांधीजी की प्रारंभिक झिझक के बावजूद मृदुला सत्याग्रह में भाग लेने का आग्रह किया। गांधीजी ने महिलाओं को विदेशी कपड़ों तथा मदिरा की दुकानों पर धरना देने और स्वदेशी वस्तुओं एंव खादी को लोकप्रिय बनाने का काम विशेष रूप से सौपा।
अहमदाबाद में विदेशी कपड़ों का बहिष्कार समिति का गठन हुआ जिसकी अध्यक्ष सरला देवी और मृदुला थी। मृदुला ने मदिरा तथा विदेशी कपड़ों की दुकानों पर धरने का संगठन किया। ये बच्चे वानर सेना तथा सवेरे-सवेरे राष्ट्रीय गीत गाते हुए शहर के भीतर घूमने के लिए प्रभात-फेरियों का गठन करने वाले शुरू के लोगों में से थीं।
अपनी इन गतिविधियों के लिए उन्हें तीन हफ्ते साबरमती जेल में रखा गया। जेल जीवन का यह, उनका प्रथम अनुभव था। उन्होंने रिहा कर दिया गया परंतु, उन्हें फिर से छह महीने के कारावास का दंड दिया गया जिसे उन्होंने साबरमती, यरवदा और बेलगाम के जेल में भोगा। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन छिड़ने पर मृदुला पुन: मैदान में कूद पड़ी तथा उस वर्ष अगस्त में उन्हें बबंई के जेल में रखा गया।
कांग्रेस में पहली महिला जिन्हें मिला महामंत्री का पद
मृदुला 1930 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुई। 1938 के हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर सरदार वल्लवभाई पटेल ने उन्हें स्वयं सेविकाओं की कप्तान नियुक्त किया तथा महिला स्वयंसेवकों की भरती और प्रशिक्षण का काम सौंपा।
उनके कार्य से प्रभावित होकर गुजरात कांग्रेस के प्रभारी मोरारजी देसाई ने ताल्लुका तथा ग्राम स्तरों पर एक स्थायी महिला स्वयं सेविका दल का गठन का निश्चय किया और यह कार्य मृदुला को सौपा गया। गुजरात प्रदेश कांग्रेस समिति के अंतर्गत एक स्थायी महिला विभाग का गठन करने के बाद मृदुला ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के संतर्गत महिला विभाग के गठन की चेष्टा की, परंतु वे सफल नहीं हो पायी।
1936 में नेहरूजी ने उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की महामंत्री नियुक्त किया। कांग्रेस के इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसी महिला को इस पद पर नियुक्त किया गया था।
सामाजिक कुरतियों पर मुखर रही और महिला अधिकारों के लिए सक्रियता
मृदुला कांग्रेस में रहते हुए कभी भी कांग्रेस जनों के कार्यों की आलोचना करने से नहीं झिझकती थीं। जब कांग्रेस कार्यसमीति में एक भी महिला को शामिल नहीं किया गया तो मृदुला ने नेहरूजी को पत्र में लिखा, मुझे इससे गहरी निराशा और पीड़ा हुई है। उन्होंने यह भी लिखा कि कई कांग्रेसजनों को महिला और पुरुषों की समानता में कोई वास्तविक दिलचसपी नहीं है। इसके बाद भी 1958 तक मृदुला कांग्रेस में रही।
मृदुला की चिंता सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने वाली महिलाएं कहीं उदासीन न हो जाये तथा अपने घरों तक सीमित न रह जाए को लेकर थी। महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में बनाये रखने के उद्देश्य से अहमदाबाद में ज्योति संघ का गठन किया जिसमें प्रौढ़ शिक्षा के साथ व्यवसायिक शिक्षा और अंघ-मान्यताओं के विरूद्ध अभियान चलाये जाते थे।
1938 में कांग्रेस ने राष्ट्रीय योजना समीति का गठन किया था जिसके अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू थे। इस समीति में अध्यक्ष लक्ष्मीबाई राजवाड़े और सचिव मृदुला थीं। मृदुला ने सूचनाओं के संग्रह, लोगों की राय का पता लगाने तथा रिपोर्ट तैयार करने के लिए घोर परिश्रम किया जिससे की कराची अधिवेशन में अगीकृत मौलिक अधिकारों के घोषणा-पत्र में आस्था प्रकट करने के अतिरिक्त गर्भपात, तालाक, अवैध संतान को राज्य की ओर से सहायता देने, विवाह के पूर्व दोनों पक्षों की चिकित्सकीय-परीक्षा आदि अनेक साहसपूर्ण सिफारिशें भी कीं।[iii]
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सांप्रदायिकता पर कभी कोई समझौता स्वीकार्य नहीं किया
मृदुला ने जीवन भर सांप्रदायिक सामंजस्य तथा दंगों के दौरान अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए कार्य किया। अहमदाबाद हो, मेरठ, बिहार अथवा पंजाब, जहां भी सांप्रदायिक अशांति भड़कती, मृदुला तत्काल शांति की पुर्नस्थापना के लिए वहां पहुंचती थीं।
मेरठ जिले में शाहजहांपुर ग्राम के समीप एक सशस्त्र भीड़ को मुसलमानों पर आक्रमण करने से रोकने के लिए वे सात घंटे तक एक पेड़ पर खड़ी रहीं। मुसलमानों में आत्मविश्वास जगाने के लिए गांधीजी जब बिहार के गांव तपती धूप में पैदल घूमे तब मृदुला उनके साथ रही।
आज़ादी के बाद कोई नहीं लिया कोई पद, सार्वजनिक सेवा में लगी रहीं
आजादी मिलने के बाद देश का विभाजन हुआ और पाकिस्तान से करोड़ों शरणार्थी भागकर भारत आये। मृदुला एक बार फिर से सक्रिय हो गयीं। इस बार पंजाब में उन्होंने अपना मुख्यालय अमृतसर में बनाया। शरणार्थियों के पुनवार्स के अतिरिक्त उनका महत्वपूर्ण कार्य भारत और पाकिस्तान से अपहरण कर ली गई महिलाओं को खोजा, 1947-1953 तक यही उनका मुख्य कार्य रहा।
इन छह वर्षों में उन्होंने दोनों तरफ से हजारों महिलाओं को बचाकर निकाला तथा उसका पुर्नवास किया। भारत और पाकिस्ताने के प्रधानमंत्रीयों तक उनकी सीधी पहुंच थी जिसके कारण वह लालफीताशाही की बड़ी सीमा तक धता बता पाई। उन वर्षों में मृदुला का चरित्र का श्रेष्ठतम पक्ष उभरकर सामने आया तथा उनकी कार्यक्षमता एंव उनके भीतर नेतृत्व और संगठनकर्ता के गुण प्रमाणित हो गये। [iv]
तिहाड़ जेल में होना पड़ा नज़रबंद
9 अगस्त 1953 को जवाहरलाल नेहरू और मृदुला दोनों के मित्र कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया गया। मृदुला मानती थी कि शेख अबदुल्ला कश्मीर के एक मात्र वास्तविक जनप्रिय नेता थे तथा भारत सरकार के लिए राजनीतिक उपादेयता और नैतिक औचित्य की दृष्टि से यहीं होगा कि वह उनको जेल में डालने के बजाए उनका समर्थन करे।
काश्मीर के मामले में उनके दृष्टिकोण को राष्ट्रविरोधी मानकर उसके विरुद्ध अनुशासन-भंग की कार्यवाही की गयी थी तथा उन्हें कांग्रेस ने निकाल भी दिया गया था। शेख अब्दुल्ला के समर्थन में होने के कारण उनपर देशद्रोह का इल्जाम लगा। जिसके कारण समस्त संगठंनों से त्यागपत्र देना पड़ा। उन्हें नजरबंदी अधिनियम के तहत पहले तिहाड़ जेल और बाद में अहमदाबाद में नजरबंद रखा गया। [v]
इसी समय एमनेस्टी इंटनेशनल ने उन्हें अन्त:करण के बंदी के रूप में मान्यता प्रदान कर दी तथा वे भारत में एमनेस्टी इंटरनेशनल की भारतीय शाखा की स्थापना में निमित्त बनी। वह उन महिलाओं में से थी जिन्होंने आजादी के पश्चात कोई भी उच्च पद प्राप्त नहीं किया और संपूर्णत: कार्यकर्ता के रूप में कार्य करती रही। अक्टूबर 1974 को उनका निधन हुआ।
मृदुला साराभाई एक विरल मानव थी यह कहना गलत नहीं होगा। विचारों पर डटे रहना, सार्वजनिक सेवा की भावना वह भी भावना और प्रामणिकता के साथ, इसकी सीख मृदुला साराभाई के जीवन से मिलती है।
संदर्भ स्त्रोत
[i] अपर्णा बसु, मृदुला साराभाई, भारतीय पुर्नजागरण में अग्रणी महिलाएं, सं. सुशीला नैयर, कमला मेनकर, अनु. नेमिशरण मित्तल, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली,2005 पेज नं332-33
[ii] वही, पेज नं 335-36
[iii] जे.सी.केर, पोलटिकल ट्रबुल इन इंडिया, 1947-56, पेज नं 196
[iv] वही
[v]आर.के.शर्मा, नेशनलिज्म, सोशल रिफार्म एंड इंडियन विमेन, जानकी प्रकाशन, पटना, 1981 पेज नं118
जे एन यू से मीडिया एंड जेंडर पर पीएचडी। दो बार लाडली मीडिया अवार्ड। स्वतंत्र लेखन।
संपादक- द क्रेडिबल हिस्ट्री