किताबें बेचने वाले क्रान्तिकारी शहीद पीर अली खां
हिन्दुस्तान के पहले स्वतंत्रता संग्राम में न जाने कितने ही आज़ादी के मतवाले सूरमा हुए जिनकी बलिदानों से आज़ादी की लड़ाई गरमाई। जिन शहीदों की गर्दन जकड़ने के लिए फ़िरगियों को हाज़ारों फांसी के फन्दे लटकाने पड़े। जिनको ख़ौफ़नाक सज़ाए देने के लिए सैकड़ों जल्लादों को नियुक्त करना पड़ा। जिनकी शहादत इतिहास में गुमनामी में दबी पड़ी है, जो फांसी के फंदों को तो पा चुके लेकिन शौहरत की मंज़िलों को नहीं छू सके।
इन्क़िलाबाली किताब बेचने वाले क्रातिकारी थे पीर अली खां
उन्हीं गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों में, भारत के बहादुर सपूत, जिन्होंने आज़ादी रूपी शमा को परवाने में तब्दील करने के लिए अपनी जान अज़ादी के लिए कुर्बान कर दिया, उनका नाम है-शहीद पीर अली ख़ां, जिनकी शहादत 7 जुलाई 1857 को फांसी के फंदे को चूमने से हुई।
लखनऊ के साधारण घराने के सदस्य जो बाद में पटना आ गए। वहीं अपना कारोबार जमा लिया था सीधे-सादे पुस्तक विक्रेता का। आम जनता को इन्क़िलाब से संबंधित किताबें पढ़वाते, खुद भी पढ़ते और लोगों को बांटते। उनकी यही किताब दुकान बिहार के क्रांतिकारियों के जमवाड़े का केंद्र बना।
पीर अली ने देश की आज़ादी को अपने जीवन का मकसद बना दिया। वह बिहार में घूमकर क्रांति का जज्बा रखने वाले सैकड़ों युवाओं को संगठित और प्रशिक्षित करते।शहीद पीर अली ख़ां, बेहद खुद्दार व्यक्ति थे। उनके इरादों से इलाके के छोटे-बड़े, गरीब अमीर सभी प्रभावित थे तथा उनका कहा मानते थे।
जब क्रान्ति के कार्यवाहियों पर रोक के लिए कर्फ्यू लगाना पड़ा
उस समय पटना का कमिश्नर एक अंग्रेज विलयम टेलर हुआ करते थे, जिनको अच्छी प्रशासनिक सूझ-बूझ थी। विद्रोह दबाने में महारत हासिल थी उनको। कमिश्नर विलयम टेलर इस बात का अन्दाजा लगा कि दानापुर सैनिकों में भी असंतोष पनप सकता है, उसने दानापुर में उठने वाले बलवे को नियंत्रित करने के लिए ख़ुफिया तौर पर जासूस लगा रखे थे।
पता चला कि ज़िला तिरहुत की पुलिस का जमादार वारिस अली क्रान्ति की संदिग्ध गतिविधियों में शामिल है। वारिस अली को फ़ौरी तौर से गिरफ़्तार कर उसके घर में छापा मारा गया। उसके घर से अंग्रेज शासन के खिलाफ विदोह के कुछ कागजात मिले। वारिस अली के खिलाफ मुकदमा कायम कर उसे मौत की सजा सुनाई गई।[i]
इस कारवाइयों का विपरीत प्रभाव पड़ा। लोग भयभीत होने के बजाए अंग्रेजों के ख़िलाफ भड़क उठे। क्रान्ति के कार्यवाहियों पर रोक लगाने के लिए रात को 9 बजे के बाद किसी को भी घर से निकलने की इज़ाजत नहीं थी, बल्कि कर्फ्यू लगा दिया गया था। जिससे क्रांन्तिकारी रात में कोई मींटिंग न कर सके।[ii]
मसजिदों और मंदिरों में सभाओं पर रोक लगा दी गई। दो या उससे अधिक आदमी यदि एक साथ कही दिखते तो उनको गिरफ्तार करके पूछताछ होने लगी।
जब बगावत दबाने से बगावत और भड़क उठी
उस समय हालात इस तरह के थे कि एक जगह बगावत दबाई जाती तो दूसरे स्थान से बग़ावत उभर आती थी। इन्हीं हालातों में 3 जुलाई 1857 को अज़ीमाबाद में विद्रोह शुरू हुआ। यहां पीर अली के नेतृत्व में इन्क़िलाबियों का एक दल बनाया गया, जिसमें अली करीम, दरोगा मेहदी अली, बुद्धन मेहतो, औसाफ़ हुसैन भाईयों सहित, शैख अब्बास, नन्द कुमार और हाजी मुहम्मद जान उर्फ घसीटा पहलवान शामिल थे।
इन लोगों ने 3 जुलाई 1857 को पीर अली के घर पर दौ सै से ज्यादा हथियारबंद के साथ योजना बनाई और पीर अली के नेतृत्व में पटना के गुलजार बाग इलाके में स्थित अंग्रेजों के प्रशासनिक भवन को घेर लिया। इस भवन से ही बिहार के क्रान्तिकारी गतिविधियों पर नज़र रखी जा रही थी।
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कमिश्नर विलयम टेलर ने डा. लायल, सुपरिटेंडेंट नीलगोदाम को पल्टन के साथ एक जुलूस को नियंत्रित करने के लिए भेजा। आन्दोलकारी इकठ्ठा होकर ब्रिटिश शासन एक विरुद्ध नारेबाजी कर रहे थे। डा. लायल के पलटन ने जुलूस को तितर-बितर करने के लिए बला अन्धा-धुंध उपयोग करना शुरू कर दिया। कई स्वतंत्रता सेनानी घायल हुए, चारों तरफ भगदड़ मची।
इसी माहौल में किसी ने गुस्से में आकर डा. लायल पर निशाना तान कर गोली मार दी वह मौके पर ही ढ़ेर हो गया। फिर क्या था, अंग्रेज शासन पर बदले का जुनून सवार हो गया। उन्होंने डा. लायल के बदले पीर अली और उसके दल के सभी सदस्यों को गिरफ्तार कर लिय और सभी को फांसी पर लटका दिया।[iii]
पीर अली और शेख घसीटा को बिहार के बगावत का बड़ा क्रांतिकारी समझकर, तुरंत फांसी नहीं दी गई। शेख घसीटा के बारे में कोई बयान नहीं मिलता है चूंकि पीर अली उस इन्क़लाबी दल के नेता थे इसलिए अंग्रेजों ने उनको एकदम से सूली पर लटका कर तकलीफों से छुटकारा नहीं दिया। उन्होंने पीर अली को फांसी देने से पहले कई यातानएं दी और अपने गुस्से को ठंडा किया।
पीर अली जैसे लोगों से हमारा कभी-कभी सामना होता है
कमिश्नर विलयम टेलर ने पीर अली के साहस और वीरता को अपनी किताब पटना क्राइसिस में खूद दर्ज किया। जब पीर अली को फांसी का हुक्म सुनाया तो फांसी दिये जाने से पहले, अंग्रेजों के विरुद्ध छेड़े गए आन्दोलन की साजिश के संबंध में कुछ जानकारी हासिल करने के लिए मैंने, उसको अपने विशेष कमरे में बुलाया।
उसे जब मेरे और दूसरे अंग्रेज अधिकारियों के सामने लाया गया तो उस वक्त वह सर से पांव तक इस तरह ज़न्जीरों में जकड़ा हुआ था कि न बैठ सकता था, न आसानी से चल सकता था। उसके कपड़े बहुत ज्यादा गंदे और जगह-जगह से फटे गए थे। वह फटे हुए कपड़े भी खून के धब्बों के कारण कई जगह से बदन पर चिपक गए थे। उन तमाम तकलीफों के बावजूद पीर अली अत्यंत संतुष्ट और निडर दिखाई दे रहा था। यह देखकर वहां सभी लोगों पर उसका बहुत गहरा असर पड़ा। इससे पहले इतना निडर और साहस वाला आदमी नहीं देखा गया।[iv]
विलयम टेलर पटना क्राइसिस में आगे लिखा है –
जब पीर अली से पूछा गया कि वह अगर साज़िश के संबंध में कुछ सवालों का सही-सही जवाब दे दे तो उसकी जान बचाई जा सकती है। इस बात को सुनकर पहले उसने इतने तीखे तेवरों से देखा कि हम सब लोग डर गए। फिर उसने किसी भी राज़ को बताने से साफ इंकार कर दिया।
उसने बहुत ज्यादा हिम्मत और बहादुरी के साथ जवाब दिया-
जिन्दगी में कुछ मौके आते हैं जबकि जान बचाना अक्लमंदी का काम होता है। मगर कुछ अवसर भी आते है जब अपने जीवन की परवाह न करते हुए अपने देश पर कुर्बान हो जाना ईमानदारी के साथ-साथ देश प्रेम का भी सबूत होता है। इसके बाद पीर अली ने कहा कि तुम मुझे और मेरे साथियों को रोजाना फांसी दे सकते हो। मगर याद रखो हमारे खून के छीटों से आज़ादी के हजारों मतवालों के बदनों मैं जो गर्मी आएगी तुम और तुम्हारी हुकूमत पिघल कर रह जाएगीं।[v]
विलयम टेलर पटना क्राइसिस में आगे लिखा है
मैंने इस व्यक्ति का थोड़ा विस्तार से जिक्र किया है, क्योंकि इस प्रकार के लोगों से हमारा इस देश में कभी-कभी सामना होता है, जिनका धार्मिक जुनून उनको बड़ा खतरनाक बना देता है, मगर इसके साथ उनका धैर्य और उनका हौसला बड़ी हद तक उनको प्रतिष्ठा और प्रशंसा का पात्र भी सिद्ध करता है। चरित्र की बुलंदी के इस अंतिम दृश्य पर पीर अली खान के जीवन का ड्रामा समाप्त हुआ। उसको फांसी हो गई, मगर उनके खून से कौम को नय जीवन मिला।[vi]
अंतत: आज़ादी के मतवाले पीर अली को 7 जुलाई 1857 को बांकीपुर लान में फांसी पर लटकाकर अमर शहीद बना दिया गया।
इतिहास में पीर अली के शहादत और वीरता को उस तरह याद नहीं किया जाता है परंतु, पटना में एक मोहल्ला पीरबहोर आबाद है। हाल में सरकार ने शहर को हवाई अड्डॆ से जोड़ने वाली सड़क का नाम पीर अली खां मार्ग रखा है ताकि पीर अली के शहादत को सजोया भी जा सके और अगली पीढ़ी तक पहुंचाया भी जा सके।
संदर्भ
[i] डा. एस.एल.नागौरी, भारत के मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी, राज पब्लिकेशन हाउस, जयपुर, पृष्ठ 34
[ii] सय्यिद इब्राहीम फ़िकरी, हिन्दुस्तानी मुसलमानों का जंगे आजासी में हिस्सा, पेज नं -16
[iii] William Tayler (Commissioner Of Patna), The Patna Crisis Or Three Months at Patna During the Insurrection Of 1857, James Nisbet & Co.,1858.p.66
[iv] वहीं से
[v] वही से
[vi] वही से
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में