रूपा भवानी : कश्मीर के मर्दाने इतिहास में फेमिनिन हस्तक्षेप
दुर्भाग्य है कि इतिहास अक्सर मर्दों का इतिहास बनकर रह जाता है। इसमें औरतों की भागीदारी के निशानात कहीं दर्ज़ नहीं होते। कोटा रानी के बाद राजपरिवारों की कुछ गिनी-चुनी महिलाओं के अलावा ऐसी महिलाओं का कश्मीरी इतिहास में कोई ज़िक्र नहीं मिलता जिन्होंने वहाँ की राजनीति को प्रभावित किया हो।
घर की क़ैद के बाहर सिर्फ़ धर्म एक ऐसा क्षेत्र था जहाँ उनके लिए कोई स्पेस बन सकता था। लल द्यद के बाद जिस दूसरी कश्मीरी पण्डित महिला का ज़िक्र आता है वह हैं – रूपा भवानी।
कौन थी रूपा भवानी
कश्मीर में मुग़ल शासन की स्थापना के समय ही श्रीनगर के सफा कदल में पण्डित माधो धर के घर में 1624 ईस्वी इनका जन्म हुआ था। बचपन में इन्हें रवाफ नाम दिया गया था, जो संस्कृत में रूपा का समानार्थी है। देखें तो रूपा भवानी की कहानी भी लल द्यद से बहुत अलग नहीं है।
एक शिक्षित पिता घर पैदा होने और आरम्भिक शिक्षा दीक्षा के बावजूद केवल दस वर्ष की उम्र में विवाह और फिर वही ससुराल में ताने, उत्पीड़न। नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त होने पर घर छोड़कर भगवा धारण कर वह संन्यासी हो गईं। अपने पिता से योग, वेदान्त आदि की शिक्षा ली उन्होंने लेकिन ज्ञान की प्यास नहीं बुझी।
लल द्यद के वाख उनके हृदय के सबसे क़रीब पहुँचे। साधुओं, फ़क़ीरों और दरवेशों के यहाँ भटकती रहीं। अंततः उन्हें लार में मिले सूफ़ी संत शाह सादिक़ कलन्दर।
उनसे शास्त्रार्थ करते रूपा भवानी की ज्ञान की प्यास पूरी हुई। उन्होंने भटकना छोड़ दिया और मृत्युपर्यन्त वस्कुर नामक स्थान पर बस गईं जहाँ पूरे कश्मीर में उनके हिन्दू और मुसलमान भक्त दर्शनार्थ आया करते थे।
‘साहेब सप्तमी’ क्यों पवित्र दिन है कश्मीरी पण्डितों के लिए
संवत 1777 में माघ माह के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को 96 वर्ष की उम्र में जब उनकी मृत्यु हुई तो शाह कलन्दर ने इसे एक फ़ारसी रोज़नामचे में दर्ज़ किया। उनकी स्मृति में इस दिन को ‘साहेब सप्तमी’ का नाम दिया गया और यह आज भी कश्मीरी पण्डितों के लिए एक पवित्र दिन है। उनके सम्मान में इस धर परिवार को ‘साहेब धर’ कहा जाता है।
कहते हैं कि इससे पैदा हुई इर्ष्या के कारण धर ब्राह्मणों का दूसरा हिस्सा रूपा भवानी और उनके भक्तों को आडम्बर करने वाला कहकर अपमानित करने लगा और जानबूझकर साहेब सप्तमी को मांस बनाकर खाया जिसके चलते उन्हें ‘हूफ़ धर’ कहा गया। अफ़गान शासन में बहुत प्रभावी रहे बीरबल धर इसी परिवार से थे। ख़ैर, समय के साथ यह विवाद समाप्त हो गया। [i]
कश्मीरी पण्डितों की वेबसाईट कौसा डॉट ओआरजी पर शाह कलन्दर का तो कोई ज़िक्र तो नहीं है लेकिन उनकी मृत्यु से जुड़ी एक कथा है जो बताती है कि कश्मीरी मुसलमानों में उनकी कितनी प्रतिष्ठा थी।
जिस तरह लल द्यद को लल आरिफ़ा कहा जाता था वैसे ही उन्हें भी रूपा आरिफ़ा कहा जाता था और मुसलमानों ने तत्कालीन मुग़ल गवर्नर से उन्हें इस्लामिक विधि से दफ़नाने का आदेश ले लिया था।
इससे दुखी होकर उनके भाई संसार चन्द धर ने उनके शव के सामने प्रार्थना की कि इस अपमानजनक स्थिति से उन्हें बचाएँ।
रूपा भवानी प्रकट हुईं और वहाँ उपस्थित हिन्दू और मुस्लिम भक्तों के सामने कहा कि ‘वह करो जो तुम्हें सही लगे। अपने मुस्लिम भाइयों को रोटी और शीरनी देकर विदा करो।’ उनका इशारा समझकर मुस्लिम भक्त चले गए लेकिन जब चिता पर उनकी देह ले जाने के लिए कफ़न हटाया गया तो वहाँ केवल फूल और पत्ते मिले।
कहते हैं – रूपा भवानी परमात्मा में लीन हो गईं।[ii] यह कथा कबीर की याद दिलाती है।
प्रेमनाथ बज़ाज़ उन्हें दार्शनिक से अधिक एक समाज सुधारक मानते हैं। उन्होंने शराबबन्दी के साथ-साथ पशुबलि, गहने पहनने, बहुविवाह, भिक्षावृत्ति आदि का विरोध किया। इसके अलावा उन्होंने धर्म और जाति के बन्धनों से ऊपर उठकर जीवन में वृहत्तर उद्देश्य की प्राप्ति को लक्ष्य बनाने की शिक्षा दी। उनके अनुसार सभी धर्म एक ही ईश्वर को प्राप्ति की अलग-अलग राहें हैं। बज़ाज़ उन्हें ‘धार्मिक मानवतावादी’ कहते हैं।
मिथकीय क़िस्सों से परे रूपा भवानी की कथा एक तरफ़ कश्मीर में इस दौर तक दोनों धर्मों के संश्लेषण से विकसित हुई उस संस्कृति की स्पष्ट परिचायक है जिसमें एक-दूसरे के साधुओं, फ़क़ीरों का सम्मान और साझा ज्ञान की परम्परा का विकास हुआ
तो दूसरी तरफ़ तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति का भी। लल द्यद हों या कि रूपा भवानी या उनके कोई एक सदी बाद की अर्निमाल सबकी कहानियाँ लगभग एक ही जैसी हैं।
साभार
अशोक कुमार पांडेय, कश्मीर और कश्मीरी पंडित, राजकमल प्रकाशन,2020,नई दिल्ली, पेज-
संदर्भ
[i] देखें, पेज़ 165-68, डॉटर्स ऑफ़ वितस्ता, प्रेमनाथ बज़ाज़, पाम्पोश पब्लिकेशंस, दिल्ली – 1959
[ii]देखें, http://koausa.org/Saints/RupaBhawani/article4.html (आख़िरी बार 14/09/2019 को देखा गया)
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में