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क्या लिखा था प्रेमचंद ने मधुशाला की समीक्षा में

 

हरिवंश राय बच्चन  क्या भूंलू क्या याद करूं किताब के भूमिका में प्रेमचंद के साथ एक मुलाकात का जिक्र करते हुए लिखते है कि मुझे याद है मधुशाला के प्रकाशन के कुछ समय बाद, एक बार अकस्मात ही, प्रयाग में प्रेमचंद जी से भेंट हो गई थी। कुछ ही समय पहले वे मद्रास होकर आये थे। बातों के सिलसिले में उस दिन उन्होंने कहा था-जानते हो, मद्रास के लोग अगर हिन्दी कवि का नाम जानते हैं तो वह बच्चन का नाम है।

जाहिर है प्रेमचंद, हिन्दी कविता में मधुशाला के महत्त्व को पहचान चुके थे। प्रेमचंद ने हंस पत्रिका में मधुशाला पर एक छोटी समीक्षा लिखी थी।

 

बच्चन का अपना व्यक्तित्व , शैली, भाव और अपनी फिलासफी हैं

कवि बच्चन के गीतों और कविताओं का दूसरा संग्रह है जो छोटे आकार में बड़ी सज-धज से छपा है। बच्चन में अपना व्यक्तित्व है, अपनी शैली है, अपने भाव हैं और अपनी फिलासफी है।


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मधु, मधुशाला, साकी आदि भावनाएँ हिन्दी में अनोखी हैं यहाँ तो सोमरस और भंग का प्राधान्य था, मगर सोमरस का वैदिक काल में चाहे जो महत्त्व रहा हो और भंग, गांजा, चरस आदि का साधु और रसिक-मंडली में चाहे आज का जो रिवाज हो, मगर नशे की कल्पना हमारी कविता के क्षेत्र में नहीं घुसने पाई।

 

हमारी मध्यकाल की कविता में बंसी और वृन्दावन की पुकार है और नई कविता में वीणा और माला और धूप-दीप की कल्पना का प्राधान्य। वह साकार की भक्ति थी, वह निराकार की उपासना है और इसलिए आत्मानुभूति पूर्ण और अन्तर्मुखी है।

बच्चन के कविताओं की भावनाओं से हिन्दी अछूती थी


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बच्चनजी की इन कविता में भी वही भावनाएँ हैं मगर कल्पना हिन्दी के लिए सर्वथा अछूती है

 यह श्रेय उनको है कि उन्होंने फारसी का यह तखैयुल यहाँ ऐसा खपाया है कि उसमें बेगानापन बिल्कुल नहीं रहा और चूंकि हिन्दी में भी बुलबुल और कफस और साली और सागर रसिक मौजूद हैं और कसरत में मौजूद हैं, हिन्दी में यह चीज पाकर उन्होंने उसका स्वागत किया।

फारसी और उर्दू के कवियों ने तो साकी और सुराही को अध्यात्म की चीज बना डाला है। उनके लिए शराब दैवी आदेश है, या भक्ति या ज्ञान। उनका नशा वह विह्वलता है, जो भक्ति की पूर्णता है।

पिंजरे में फंसी हुई बुलबुल का, बाग में बनाए हुए घोंसले की याद में तड़पना मनुष्य के जीवन में इतना मिलता है कि इस दुख में शरीक होने के लिए मजबूरी हैं।

शराब की कल्पना भी जहाँ इस दुख भरे संसार से विरिक्ति की सूचक है, वहाँ धार्मिक कट्टरता और संकीर्णता से विद्रोह का भी इशारा करती है। देखिए मधुप भी क्या कहता है-

 

हमने छोड़ी कर की माला,

पोथी-पत्रा भू पर डाला,

मन्दिर-मसजिद के बन्दी-गृह

को तोड़ लिया कर में प्याला।

और दुनिया को आजादी का,

सन्देश सुनाने हम आए।

 

हमें आशा है कि बच्चन जी की मधुबाला कहीं निराशावाद की शराब न पिलाए?

(पुस्तक समीक्षा। हंस, अप्रैल, 1936 में प्रकाशित हुई थी। विविध प्रसंग, भाग-3 में संकलित)

Editor, The Credible History

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